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Magadh University, Bodh Gaya

Date post: 20-Jan-2023
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ISHAVASYA UPANISHAD Prof. (Dr.) Kamala Kumari Upadhyaya Head, P.G. Department of Sanskrit Magadh University, Bodh Gaya
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ISHAVASYA UPANISHAD

Prof. (Dr.) Kamala Kumari Upadhyaya

Head, P.G. Department of Sanskrit

Magadh University, Bodh Gaya

वैदिक सादित्य

वदैिक सादित्य दिन्िू धर्म के प्राचीनतर् स्वरूप पर प्रकाश डालनेवाला तथा ववश्व का प्राचीनतर् ् स्रोत िै। वदैिक सादित्य को 'श्रतुत'किा जाता िै,क्योंकक ऋवियों ने भी इस सादित्य को श्रवण-परम्परासे िी ग्रिण ककया था।

वदैिक सादित्य तनम्न भागों र्ें बँटा िै-1. सदंिता (र्न्र भाग)2. ब्राह्र्ण-ग्रन्थ (गद्य र्ें कर्मकाण्ड की वववेचना)3. आरण्यक (कर्मकाण्ड के पीछे के उद्िेश्य की वववेचना)4. उपतनिि (पररे्श्वर, परर्ात्र्ा-ब्रह्र् और आत्र्ा के स्वभाव और

सम्बन्ध का बिुत िी िाशमतनक और ज्ञानपवूमक वणमन)

❖ जब िर् चार वेिों की बात करते िैं तो उससे संदिता भाग का िीअथम ललया जाता िै।

... कालांतर र्ें वदैिक सादित्य के ववश्लेिण एवं स्पष्टीकरण िेतु कुछअन्य ग्रथंों की भी रचना िुई जजन्िें र्खु्य रूप से िो वगों र्ें ववभाजजतककया गया िै:1. वेिांग : वेि के अथम तथा ववियों का स्पष्टीकरण करने के ललए

ललखे गए सरू-ग्रन्थ. वेिाङ्ग छः िैं-➢ (1)लशक्षा, (2)छन्ि, (3)व्याकरण, (4)तनरुक्त, (5)कल्प और (6)ज्योतति

पिले चार वेिांग, र्न्रों के शुद्ध उच्चारण और अथम सर्झने के ललए तथा अजन्तर् िोवेिांग धालर्मक कर्मकाण्ड और यज्ञों का सर्य जानने के ललए आवश्यक िैं। व्याकरण कोवेि का रु्ख किा जाता िै, ज्योतति को नेर, तनरुक्त को श्रोर, कल्प को िाथ, लशक्षा कोनालसका तथा छन्ि को िोनों पैर।

2. सरू-सादित्य : कर्मकाण्ड-सम्बन्धी लसद्धांतों का नवीन रूपकर्मकाण्ड-सम्बन्धी सूर-सादित्य को चार भागों र्ें बाँटा गया:➢ (1) श्रौत सूर (2) गहृ्य सूर (3) धर्म सूर और (4) शुल्ब सूर

पिले र्ें वैदिक यज्ञ सम्बन्धी कर्मकाण्ड का वणमन िै। िसूरे र्ें गृिस्थ के िैतनक यज्ञों का, तीसरे र्ें सार्ाजजक तनयर्ों का और चौथे र्ें यज्ञ-वेदियों के तनर्ामण का।

उपतनिि

उपनिषद् शब्ि ‘उप’, ‘तन’ उपसगम तथा, ‘सद्’ धातु से तनष्पन्न िुआ िै; जजसकासाधारण अथम िै - ‘सर्ीप उपवेशन’ या 'सर्ीप बैठना (ब्रह्र् ववद्या की प्राजततके ललए लशष्य का गुरु के पास बैठना)।

उपतनिि भारतीय आध्याजत्र्क चचतंन के रू्लाधार िै। उपतनििों र्ें रु्ख्य रूपसे 'आत्र्ववद्या' का प्रततपािन िै, जजसके अन्तगमत ब्रह्र् और आत्र्ा केस्वरूप, उसकी प्राजतत के साधन और आवश्यकता की सर्ीक्षा की गयी िै।

ककसी उपतनिि का सम्बन्ध ककस वेि से िै, इस आधार पर उपतनििों को तनम्नललखखत शे्रखणयों र्ें ववभाजजत ककया जाता िै-(१) ऋग्वेिीय -- १० उपतनिद्(२) शुक्ल यजुवेिीय -- १९ उपतनिद्(३) कृष्ण यजुवेिीय -- ३२ उपतनिद्(४) सामवेिीय -- १६ उपतनिद्(५) अथवववेिीय -- ३१ उपतनिद्कुल -- १०८ उपतनिद्इनके अततररक्त नारायण, नलृसिं, रार्तापनी तथा गोपाल चार उपतनिद् और िैं।

ईशावास्य उपतनिद्

ईशोपनिषद् शुक्ल यजुवेिीय शाखा के अन्तगमतएक उपतनिि िै। इसर्ें कोई कथा-किानी निीं िै केवलआत्र् वणमन िै।

प्रततपाद्य वविय दृजष्ट से उपतनििों का ववभाजनगद्यात्र्क, पद्यात्र्क, अवांतर, तथा आथवमण (अथामतकर्मकाण्डी) ववभागों र्ें ककया गया िै।

ईशोपतनिद् एक पद्यात्र्क उपतनिि िै।

शांतत पाठॐ पूणव मिः पूणव ममिं पूणावत पूणवमुिच्यते,

पूणवस्य पूणवमािाय पूणवमेवावमशष्यते॥ॐ शांततः शांततः शांततः॥

ॐ वि (परब्रह्र्) पूणम िै और यि (कायमब्रह्र्) भी पूणम िै;क्योंकक पूणम से पूणम की िी उत्पवि िोती िै। तथा[प्रलयकाल रे्] पूणम [कायमब्रह्र्]- का पूणमत्व लेकर (अपनेरे् लीन करके) पूणम [परब्रह्र्] िी बच रिता िै।

त्ररववध ताप की शांतत िो।

ईशावास्यं इिं सवं यत ्ककञ्च जगत्यां जगत।तेि त्यक्तेि भुञ्ञ्जथाः मा गधृः कस्य ञ्स्वद्धिम॥्१॥

जगत र्ें जो कुछ भी चलने वाले और जस्थर रिने वाले प्राणी िैं वे सब ईश्वरके द्वारा व्यातत िैं। तुर् त्याग पूवमक िी भोग करो, ककसी अन्य के धन का लोभ न करो।

कुववन्िेवेि कमावणण ञ्जजीववषेच्छत समाः।एवं त्वनय िान्यथेतोञ्स्त ि कमव मलप्यते िेे ॥२॥

इस संसार र्ें कर्म करते िुए िी सौ विम जीनेकी इच्छा करो। इसके लसवाय कर्म से रु्क्त िोने का अन्य कोई र्ागम निीं िै।

इस लोक र्ें करने योग्य कर्ों को करते िुए िी सौ विम जीने की इच्छा करनी चादिए । तुम्िारे ललए इसके लसवा अन्य कोई र्ागम निीं िै । इस प्रकार कर्ों का लेप निीं िोता ॥२॥

असयुाव िाम ते लोका अधेंि तमसा वतृाः।ता स्ते पे्रत्यामभगछञ्न्त ये के चात्मििो जिाः ॥३॥

असुयम सम्बन्धी जो लोक और योतनयाँ िैं, वे अज्ञान औरअन्धकार से आच्छादित िैं । जो र्नुष्य आत्र् का िननकरते िैं, वे र्रकर उन्िी लोकों को प्रातत िोते िैं ॥३॥

इसर्ें ‘असुयम’ नार्क लोक की बात आती िै — असुयामर्तलब कक सूयम से रदित लोक। वि लोक जिाँ सूयम निींपिँुच पाता, घन,े काले अंधकार से भरा िुआ अन्चतर्लोक, अथामत ् गभमलोक।

अिेजिैकं मिसो जवीयो िैिद्िेवा आप्िुवि पूववमषवत।तद्धावतो न्याित्येनत नतष्ठत तञ्स्मन्िपो मातरेश्वा िधानत ॥४॥

वि आत्र्तत्व अववचललत, एक तथा र्न से भी तीव्रगतत वाला िै । इसे इजन्ियाँ प्रातत निीं कर सकतींक्योंकक यि उन सबसे पिले िै । वि जस्थर िोते िुए भीसभी गततशीलों का अततक्रर्ण ककये िुए िै । उसी कीसिा र्ें िी वायु सर्स्त प्राखणयों के प्रवतृतरूप कर्ों काववभाग करता िै ॥४॥

तिेजनत तन्िैजनत तद्िूे े तद्वञ्न्तके।तिन्तेस्य सववस्य ति ुसववस्यास्य बाह्यतः ॥५॥

वि आत्र्तत्त्व चलता िै और निीं भी चलता । वि िरू िैऔर सर्ीप भी िै । वि सबके अंतगमत िै और विी सबकेबािर भी िै ॥५॥

तद्वजन्तके : तत ् उ अजन्तके (विी अजन्तक – अत्यंतसर्ीप भी िै)

यस्तु सवावणण भूतान्यात्मन्येवािुपश्यनत।सववभूतेषु चात्मािं ततो ि ववजुगुप्सते ॥६॥

जो र्नुष्य सर्स्त भूतों को आत्र्ा र्ें िी िेखता िै औरसर्स्त भूतों र्ें भी आत्र्ा को िी िेखता िै, वि किरककसी से भी घणृा कैसे कर सकता िै ॥६॥

जो सब भूतों र्ें अपने तनववमशिे आत्र्स्वरूप को िीिेखता िै वि उस आत्र् िशमन के कारण िी ककसी सेघणृा निीं करता िै |

यञ्स्मन्सवावणण भूतान्यात्मैवाभूद्ववजाितः।तत्र को मोिः कः शोक एकत्वमिुपश्यतः ॥७॥

जजस जस्थतत र्ें र्नुष्य के ललए सब भूत आत्र्ा िी िो गएउस सर्य एकत्व िेखने वाले उस ज्ञानी को क्या र्ोि औरक्या शोक रि जाता िै ॥७॥

शोक और र्ोि कार्ना और कर्म के बीज को न जानने वालेको िी िुआ करते िैं, जो आकाश के सर्ान आत्र्ा का ववशुद्धएकत्व िेखने वाला िै उसको निीं िोते.

स पयवगाच्छुतक्रमकायव्रणमस्िाववें शुद्धमपापववद्धम।कववमविीषी परेभुः स्वयंभूयावथातत््यतो अथावि व्यिधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः ॥८॥

वि आत्र्ा परर् तेजोर्य, शरीरों से रदित, अक्षत, स्नायुसे रदित, शुद्ध, शुभाशुभकर्म-सम्पकम शून्य, सवमिष्टा,सवमज्ञ, सवोत्कृष्ट और स्वयंभू िै । विी अनादि काल सेसब अथों की रचना और ववभाग करता आया िै ॥८॥

अन्धं तमः प्रववशञ्न्त ये ववद्यामुपासते।ततो भूय इव ते तमो य उ ववद्यायां ेताः ॥९॥

जो अववद्या की उपासना करते िैं, घोर अन्धकार र्ेंप्रवेश करते िैं । जो ववद्या र्ें रत िैं वे र्ानो उससे भीअचधक अन्धकार र्ें प्रवेश करते िैं ॥९॥

अन्यिेवािुवववद्ययान्यिािुवववद्यया।इनत शुशु्रम धीेाणां ये िस्तद्ववचचक्षिेे ॥१०॥

ववद्या का िल अन्य िै तथा अववद्या का िल अन्य िै ।ऐसा िर्ने उन धीर पुरुिों से सुना िै, जजन्िोंने िर्ें विसर्झाया था ॥१०॥

ववद्यां चाववद्यां च यस्ति वेिोभयम सि।अववद्यया मतृ्यंु तीत्वाव ववद्ययामतृमश्िुते ॥११॥

जो ववद्या और अववद्या िोनों को िी एक साथ जानतािै, वि अववद्या से र्तृ्यु को पार करके ववद्या सेअर्तृत्व को प्रातत िो जाता िै ॥११॥

अन्धं तमः प्रववशञ्न्त ये सम्भूनतमुपासते।ततो भूय इव ते तमो य उ संभूत्यां ेताः ॥१२॥

जो असम्भूतत की उपासना करते िैं, वे घोर अन्धकार र्ेंप्रवेश करते िैं, और जो सम्भूतत र्ें िी रत िैं, वे र्ानोऔर भी अचधक अन्धकार र्ें प्रवेश करते िैं ॥१२॥

अन्यिेवािुः संभवािन्यिािुेसंभवात।इनत शुशु्रम धीेाणां ये िस्ति ववचचक्षिेे ॥१३॥

सम्भूतत का िल अन्य िै और असम्भूतत का िल अन्य िै ।ऐसा िर्ने उन धीर पुरुिों से सुना िै, जजन्िोंने िर्ें विसर्झाया था ॥१३॥

सभंनूत ंच वविाश ंच यस्ति वेिोभयम सि।वविाशेि मतृ्यमु तीत्वाव सम्भतु्यामतृमश्ितुे ॥१४॥

जो सम्भूतत और ववनाशशील िोनों को िी एक साथजानता िै, वि ववनाशशील की उपासना से र्तृ्यु को पारकरके अववनाशी की उपासना के द्वारा अर्तृत्व को प्राततिो जाता िै ॥१४॥

दिेण्यमयेंि पात्रेण सत्यस्यावपदितं मुखं।तत्वं पूषन्िपावणुृ सत्यधमावय द्रषृ्टये ॥१५॥

वि, सत्य का रु्ख, स्वणमरूप ज्योततर्मय पार से ढकािुआ िै । िे पूिन ! तू उस आवरण को िटा िे, जजससेकक सत्यधर्ी को उसका िशमन िो सके ॥१५॥

पूषन्िेकषे यम ् सूयव प्राजापत्य व्यूि ेश्मीन्समूि।कल्याणतमं तत्ते पश्यामम यो सावसौ पुरुषः सोिमञ्स्म॥१६॥

िे पोिण करने वाले ! िे ज्ञानस्वरूप ! िे तनयन्ता ! िे सूयम !िे प्रजापतत ! अपनी इन रजश्र् सरू्िों को एकर कर के िटा िें। इस तेज को अपने तेज र्ें लर्ला लें । र्ैं इस प्रकार उसअततशय कल्याणतर् रूप को िेखता िँू । वि जो परर् पुरुििै, वि र्ैं िी िँू ॥१६॥

वायनुिवलममतृमथेिम भस्माितं शेीेम।ॐ क्रतो स्मे कृतं स्मे क्रतो स्मे कृतं स्मे ॥१७॥

अब यि प्राण उस सवामत्र्क वायु, अतनल, अववनाशी कोप्रातत िो । और शरीर भस्र् िो । ॐ … अब ककये िुएको स्र्रण कर, ककये िुए को स्र्रण कर ॥१७॥

अग्िे िय सुपथा ेाये अस्माि ववश्वािी िेव वयुिानि ववद्वाि।्युयोध्यस्म ज्जुिुेाणमेिो भूनयष्ठां ते िम उञ्क्तं ववधेम ॥१८॥

िे अजग्न ! आप िी धन िैं । सवमस्व िैं । सर्स्त कर्ों कोजानने वाले िैं । िे िेव ! आपकी प्राजतत र्ें रे्रे जो भीप्रततबन्धक कर्म िैं, उन्िें िरू करें । आपको बार-बार नर्स्कारिै ॥१८॥

साभार सन्िभम ग्रन्थ सूची (BIBLIOGRAPHY) ईशावास्योपतनिि, शांकरभाष्य (गीता पे्रस, गोरखपुर) https://hi.wikipedia.org/wiki/ईशावास्य_उपतनिि https://wikisource.org/wiki/ईशावास्य_उपतनिि https://sites.google.com/site/vedicscripturesinc/home/upanishad/ishopanishad

https://ia800608.us.archive.org/34/items/HindiBo

ok-isavasya-upanishad-with-shankara-

bhashya.pdf/HindiBook-isavasya-upanishad-with-shankara-bhashya.pdf

ॐइतत इिं सवं


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