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महादेवी वमा� (26 मार्च� , 1907 — 11 सि�तंबर, 1987) हि न्दी की �र्वाा�धि�क प्रहितभार्वाान कर्वाधि�हि��ों में �े ैं। र्वाे हि न्दी �ाहि त्� में छा�ार्वाादी �ुग के र्चार प्रमुख स्तंभों में �े एक मानी जाती ैं।[१] आ�ुहिनक हि न्दी की �ब�े �शक्त कर्वाधि�हि��ों में �े एक ोने के कारण उन् ें आ�ुहिनक मीरा के नाम �े भी जाना जाता ै।[२] कहिर्वा हिनराला ने उन् ें “हि न्दी के हिर्वाशाल मन्दिन्दर की �रस्र्वाती” भी क ा ै।[ख] म ादेर्वाी ने स्र्वात�ंता के प ले का भारत भी देखा और उ�के बाद का भी। र्वाे उन कहिर्वा�ों में �े एक ैं न्दिजन् ोंने व्यापक �माज में काम करते हुए भारत के भीतर हिर्वाद्यमान ा ाकार, रुदन को देखा, परखा और करुण ोकर अन्धकार को दूर करने र्वााली दृधि> देने की कोसिशश की।[३] न केर्वाल उनका काव्य बल्किAक उनके �ामाज�ु�ार के का�� और महि लाओं के प्रहित रे्चतना भार्वाना भी इ� दृधि> �े प्रभाहिर्वात र े। उन् ोंने मन की पीड़ा को इतने स्ने और शंृगार �े �जा�ा हिक दीपसिशखा में र्वा जन जन की पीड़ा के रूप में स्थाहिपत हुई और उ�ने केर्वाल पाठकों को ी न ीं �मीक्षकों को भी ग राई तक प्रभाहिर्वात हिक�ा।[ग]

उन् ोंने खड़ी बोली हि न्दी की कहिर्वाता में उ� कोमल शब्दार्वाली का हिर्वाका� हिक�ा जो अभी तक केर्वाल बृजभाषा में ी �ंभर्वा मानी जाती थी। इ�के सिलए उन् ोंने अपने �म� के अनुकूल �ंस्कृत और बांग्ला के कोमल शब्दों को रु्चनकर हि न्दी का जामा प ना�ा। �ंगीत की जानकार ोने के कारण उनके गीतों का नाद-�ौंद�� और पैनी उसिक्त�ों की वं्यजना शैली

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अन्�� दुल�भ ै। उन् ोंने अध्�ापन �े अपने का��जीर्वान की शुरूआत की और अहंितम �म� तक र्वाे प्र�ाग महि ला हिर्वाद्यापीठ की प्र�ानार्चा�ा� बनी र ीं। उनका बाल-हिर्वार्वाा हुआ परंतु उन् ोंने अहिर्वार्वााहि त की भांहित जीर्वान-�ापन हिक�ा। प्रहितभार्वाान कर्वाधि��ी और गद्य लेखिखका म ादेर्वाी र्वामा� �ाहि त्� और �ंगीत में हिनपुण ोने के �ाथ �ाथ[४] कुशल सिर्च�कार और �ृजनात्मक अनुर्वाादक भी थीं। उन् ें हि न्दी �ाहि त्� के �भी म त्त्र्वापूण� पुरस्कार प्राप्त करने का गौरर्वा प्राप्त ै। भारत के �ाहि त्� आकाश में म ादेर्वाी र्वामा� का नाम धु्रर्वा तारे की भांहित प्रकाशमान ै। गत शताब्दी की �र्वाा�धि�क लोकहिप्र� महि ला �ाहि त्�कार के रूप में र्वाे जीर्वान भर पूजनी� बनी र ीं।[५] र्वाष� 2007 उनकी जन्म शताब्दी के रूप में मना�ा जा र ा ै।

जन्म और परिरवारम ादेर्वाी का जन्म 26 मार्च� , 1907 को प्रातः 8 बजे[६] फ़रु� ख़ाबाद उत्तर प्रदेश , भारत में हुआ। उनके परिरर्वाार में लगभग 200 र्वाषa �ा �ात पीढ़िc�ों के बाद प ली बार पु�ी का जन्म हुआ था। अतः बाबा बाबू बाँके हिर्वा ारी जी ष� �े झूम उठे और इन् ें घर की देर्वाी — म ादेर्वाी मानते हुए[६] पु�ी का नाम म ादेर्वाी रखा। उनके हिपता श्री गोविर्वांद प्र�ाद र्वामा� भागलपुर के एक कॉलेज में प्राध्�ापक थे। उनकी माता का नाम ेमरानी देर्वाी था। ेमरानी देर्वाी बड़ी �म� परा�ण, कम�हिनष्ठ, भारु्वाक एर्वां शाका ारी महि ला थीं।[६] हिर्वार्वाा के �म� अपने �ाथ सि�ं ा�ना�ीन भगर्वाान की मूर्तितं भी ला�ी थीं[६] र्वाे प्रहितढ़िदन कई घंटे पूजा-पाठ तथा रामा�ण, गीता एर्वां हिर्वान� पहि�का का पारा�ण करती थीं और �ंगीत में भी उनकी अत्�धि�क रुसिर्च थी। इ�के हिबAकुल हिर्वापरीत उनके हिपता गोहिर्वान्द प्र�ाद र्वामा� �ुन्दर, हिर्वाद्वान, �ंगीत प्रेमी, नाल्किस्तक, सिशकार करने एर्वां घूमने के शौकीन, मां�ा ारी तथा ँ�मुख व्यसिक्त थे। म ादेर्वाी र्वामा� के मान� बं�ुओं में �ुधिम�ानंदन पंत एर्वां [[�ू��कांत हि�पाठी 'हिनराला' |हिनराला]] का नाम सिल�ा जा �कता ै, जो उन�े राखी बँ�र्वााते र े।[७] हिनराला जी �े उनकी अत्�धि�क हिनकटता थी,[८] उनकी पु> कलाइ�ों में म ादेर्वाी जी लगभग र्चाली� र्वाषa तक राखी बाँ�ती र ीं।[९]

शि�क्षाम ादेर्वाी जी की सिशक्षा इंदौर में धिमशन स्कूल �े प्रारम्भ हुई �ाथ ी �ंस्कृत, अंग्रेज़ी, �ंगीत तथा सिर्च�कला की सिशक्षा अध्�ापकों द्वारा घर पर ी दी जाती र ी। बीर्च में हिर्वार्वाा जै�ी बा�ा पड़ जाने के कारण कुछ ढ़िदन सिशक्षा स्थहिगत र ी। हिर्वार्वाा ोपरान्त म ादेर्वाी जी ने 1919 में

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क्रास्थर्वाेट कॉलेज इला ाबाद में प्ररे्वाश सिल�ा और कॉलेज के छा�ार्वाा� में र ने लगीं। 1921 में म ादेर्वाी जी ने आठर्वाीं कक्षा में प्रान्त भर में प्रथम स्थान प्राप्त हिक�ा। � ीं पर उन् ोंने अपने काव्य जीर्वान की शुरुआत की। र्वाे �ात र्वाष� की अर्वास्था �े ी कहिर्वाता सिलखने लगी थीं और 1925 तक जब उन् ोंने मैढ़िxक की परीक्षा उत्तीण� की, र्वाे एक �फल कर्वाधि��ी के रूप में प्रसि�द्ध ो रु्चकी थीं। हिर्वाभिभन्न प�-पहि�काओं में आपकी कहिर्वाताओं का प्रकाशन ोने लगा था। कालेज में �ुभद्रा कुमारी र्चौ ान के �ाथ उनकी घहिनष्ठ धिम�ता ो गई। �ुभद्रा कुमारी र्चौ ान म ादेर्वाी जी का ाथ पकड़ कर �खिख�ों के बीर्च में ले जाती और क तीं ― “�ुनो, �े कहिर्वाता भी सिलखती ैं”। 1932 में जब उन् ोंने इला ाबाद हिर्वाश्वहिर्वाद्याल� �े �ंस्कृत में एम.ए. पा� हिक�ा तब तक उनके दो कहिर्वाता �ंग्र नी ार तथा रश्मि�म प्रकासिशत ो रु्चके थे।

वैवाहिहक जीवन�न् 1916 में उनके बाबा श्री बाँके हिर्वा ारी ने इनका हिर्वार्वाा बरेली के पा� नबार्वा गंज कस्बे के हिनर्वाा�ी श्री स्र्वारूप नारा�ण र्वामा� �े कर ढ़िद�ा, जो उ� �म� द�र्वाीं कक्षा के हिर्वाद्याथ� थे। श्री र्वामा� इण्टर करके लखनऊ मेहि�कल कॉलेज में बोर्डिं�ंग ाउ� में र ने लगे। म ादेर्वाी जी उ� �म� क्रास्थर्वाेट कॉलेज इला ाबाद के छा�ार्वाा� में थीं। श्रीमती म ादेर्वाी र्वामा� को हिर्वार्वााहि त जीर्वान �े हिर्वारसिक्त थी। कारण कुछ भी र ा ो पर श्री स्र्वारूप नारा�ण र्वामा� �े कोई र्वाैमनस्� न ीं था। �ामान्� स्�ी-पुरुष के रूप में उनके �म्बं� म�ुर ी र े। दोनों में कभी-कभी प�ार्चार भी ोता था। �दा-कदा श्री र्वामा� इला ाबाद में उन�े धिमलने भी आते थे। श्री र्वामा� ने म ादेर्वाी जी के क ने पर भी दू�रा हिर्वार्वाा न ीं हिक�ा। म ादेर्वाी जी का जीर्वान तो एक �ंन्�ासि�नी का जीर्वान था ी। उन् ोंने जीर्वान भर श्वेत र्वास्� प ना, तख्त पर �ोईं और कभी शीशा न ीं देखा। 1966 में पहित की मृत्�ु के बाद र्वाे स्थाई रूप �े इला ाबाद में र ने लगीं।

म ादेर्वाी का का��के्ष� लेखन, �ंपादन और अध्�ापन र ा। उन् ोंने इला ाबाद में प्र�ाग महि ला हिर्वाद्यापीठ के हिर्वाका� में म त्र्वापूण� �ोगदान हिक�ा। � का�� अपने �म� में महि ला-सिशक्षा के के्ष� में क्रांहितकारी कदम था। इ�की र्वाे प्र�ानार्चा�� एर्वां कुलपहित भी र ीं। 1932 में उन् ोंने महि लाओं की प्रमुख पहि�का ‘र्चाँद’ का का��भार �ंभाला। 1930 में नी ार, 1932 में रश्मि�म, 1934 में नीरजा, तथा 1936 में �ांध्�गीत नामक उनके र्चार कहिर्वाता �ंग्र प्रकासिशत हुए। 1939 में इन र्चारों काव्य �ंग्र ों को उनकी कलाकृहित�ों के �ाथ र्वाृ दाकार में �ामा शीष�क �े प्रकासिशत हिक�ा ग�ा। उन् ोंने गद्य, काव्य, सिशक्षा और सिर्च�कला �भी के्ष�ों में नए आ�ाम

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स्थाहिपत हिक�े। इ�के अहितरिरक्त उनकी 18 काव्य और गद्य कृहित�ां ैं न्दिजनमें मेरा परिरर्वाार , स्मृहित की रेखाएं , पथ के �ाथी , शंृखला की कहिड़�ाँ और अतीत के र्चलसिर्च� प्रमुख ैं। �न 1955 में म ादेर्वाी जी ने इला ाबाद में �ाहि त्�कार �ं�द की स्थापना की और पं इलार्चंद्र जोशी के � �ोग �े �ाहि त्�कार का �ंपादन �ंभाला। � इ� �ंस्था का मुखप� था। उन् ोंने भारत में महि ला कहिर्वा �म्मेलनों की नीर्वा रखी।[१०] इ� प्रकार का प ला अखिखल भारतर्वाष�� कहिर्वा �म्मेलन 15 अप्रैल 1933 को �ुभद्रा कुमारी र्चौ ान की अध्�क्षता में प्र�ाग महि ला हिर्वाद्यापीठ में �ंपन्न हुआ।[११] र्वाे वि ंदी �ाहि त्� में र स्�ाद की प्रर्वार्तितंका भी मानी जाती ैं।[१२] म ादेर्वाी बौद्ध �म� �े बहुत प्रभाहिर्वात थीं। म ात्मा गां�ी के प्रभार्वा �े उन् ोंने जन�ेर्वाा का व्रत लेकर झू�ी में का�� हिक�ा और भारती� स्र्वात�ंता �ंग्राम में भी हि स्�ा सिल�ा। 1936 में नैनीताल �े 25 हिकलोमीटर दूर रामगc क�बे के उमागc नामक गाँर्वा में म ादेर्वाी र्वामा� ने एक बँगला बनर्वाा�ा था। न्दिज�का नाम उन् ोंने मीरा मंढ़िदर रखा था। न्दिजतने ढ़िदन र्वाे � ाँ र ीं इ� छोटे �े गाँर्वा की सिशक्षा और हिर्वाका� के सिलए काम करती र ीं। हिर्वाशेष रूप �े महि लाओं की सिशक्षा और उनकी आर्थिथकं आत्महिनभ�रता के सिलए उन् ोंने बहुत काम हिक�ा। आजकल इ� बंगले को म ादेर्वाी �ाहि त्� �ंग्र ाल� के नाम �े जाना जाता ै।[१३][१४] शंृखला की कहिड़�ाँ में स्त्रिस्��ों की मुसिक्त और हिर्वाका� के सिलए उन् ोंने न्दिज� �ा � र्वा दृcता �े आर्वााज़ उठाई ैं और न्दिज� प्रकार �ामान्दिजक रूढ़िc�ों की विनंदा की ै उ��े उन् ें महि ला मुसिक्तर्वाादी भी क ा ग�ा।[१५] महि लाओं र्वा सिशक्षा के हिर्वाका� के का�a और जन�ेर्वाा के कारण उन् ें �माज-�ु�ारक भी क ा ग�ा ै।[१६] उनके �ंपूण� गद्य �ाहि त्� में पीड़ा �ा र्वाेदना के क ीं दश�न न ीं ोते बल्किAक अदम्� रर्चनात्मक रोष �माज में बदलार्वा की अदम्� आकांक्षा और हिर्वाका� के प्रहित � ज लगार्वा परिरलभिक्षत ोता ै।[१७]

उन् ोंने अपने जीर्वान का अधि�कांश �म� उत्तर प्रदेश के इला ाबाद नगर में हिबता�ा। 11 सि�तंबर, 1987 को इला ाबाद में रात 9 बजकर 30 धिमनट पर उनका दे ांत ो ग�ा।

कहिवता संग्रह 1. नी ार (1930)

2. रश्मि�म (1932)

3. नीरजा (1934)

4. �ांध्�गीत (1936)

5. दीपसिशखा (1942)

6. �प्तपणा� (अनढू़िदत-1959)

7. प्रथम आ�ाम (1974)

8. अखिग्नरेखा (1990)

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श्रीमती म ादेर्वाी र्वामा� के अन्� अनेक काव्य �ंकलन भी प्रकासिशत ैं, न्दिजनमें उप�ु�क्त रर्चनाओं में �े रु्चने हुए गीत �ंकसिलत हिक�े ग�े ैं, जै�े आस्त्रित्मका, परिरक्रमा, �स्त्रिन्धनी (1965), �ामा (1936), गीतपर्वा�, दीपगीत, स्मारिरका, नीलांबरा और आ�ुहिनक कहिर्वा म ादेर्वाी आढ़िद।

महादेवी वमा� का गद्य साहिहत्य रेखाचि त्र: अतीत के र्चलसिर्च� (1941) और स्मृहित की रेखाएं (1943), संस्मरण: पथ के �ाथी (1956) और मेरा परिरर्वाार (1972 और �ंस्मरण (1983)) ुने हुए भाषणों का संकलन: �ंभाषण (1974) हिनबंध: शंृखला की कहिड़�ाँ (1942), हिर्वार्वाेर्चनात्मक गद्य (1942), �ाहि त्�कार की

आस्था तथा अन्� हिनबं� (1962), �ंकश्मिAपता (1969) लचिलत हिनबंध: क्षणदा (1956) कहाहिनयाँ: हिगAलू संस्मरण, रेखाचि त्र और हिनबंधों का संग्रह: हि माल� (1963),

अन्� हिनबं� में �ंकश्मिAपता तथा हिर्वाहिर्वा� �ंकलनों में स्मारिरका, स्मृहित सिर्च�, �ंभाषण, �ंर्च�न, दृधि>बो� उAलेखनी� ैं। र्वाे अपने �म� की लोकहिप्र� पहि�का ‘र्चाँद’ तथा ‘�ाहि त्�कार’ मासि�क की भी �ंपादक र ीं। हि न्दी के प्रर्चार-प्र�ार के सिलए उन् ोंने प्र�ाग में ‘�ाहि त्�कार �ं�द’ और रंगर्वााणी नाट्य �ंस्था की भी स्थापना की।

महादेवी वमा� का बाल साहिहत्यम ादेर्वाी र्वामा� की बाल कहिर्वाताओं के दो �ंकलन छपे ैं।

ठाकुरजी भोले ैं आज खरीदेंगे म ज्र्वााला

समालो ना

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म ादेर्वाी की कलाकृहित �े �जा मुखपृष्ठ

आ�ुहिनक गीत काव्य में म ादेर्वाी जी का स्थान �र्वा�परिर ै। उनकी कहिर्वाता में प्रेम की पीर और भार्वाों की तीव्रता र्वात�मान ोने के कारण भार्वा, भाषा और �ंगीत की जै�ी हि�रे्वाणी उनके गीतों में प्रर्वााहि त ोती ै र्वाै�ी अन्�� दुल�भ ै। म ादेर्वाी के गीतों की र्वाेदना, प्रण�ानुभूहित, करुणा और र स्�र्वााद काव्यानुराहिग�ों को आकर्तिषंत करते ैं। पर इन रर्चनाओं की हिर्वारो�ी आलोर्चनाए ँ�ामान्� पाठक को ढ़िदग्भ्रधिमत करती ैं। आलोर्चकों का एक र्वाग� र्वा ै, जो � मानकर र्चलते ैं हिक म ादेर्वाी का काव्य हिनतान्त र्वाै�सिक्तक ै। उनकी पीड़ा, र्वाेदना, करुणा, कृहि�म और बनार्वाटी ै।

आर्चा�� रामरं्चद्र शुक्ल जै�े मू��न्� आलोर्चकों ने उनकी र्वाेदना और अनुभहूित�ों की �च्चाई पर प्रश्न सिर्चह्न लगा�ा ै —[घ] दू�री ओर

आर्चा�� ज़ारी प्र�ाद हिद्वर्वाेदी जै�े �मीक्षक उनके काव्य को �मधि> परक मानते ैं।[ङ] शोमेर ने ‘दीप’ (नी ार), म�ुर म�ुर मेरे दीपक जल (नीरजा) और मोम �ा तन गल

रु्चका ै कहिर्वाताओं को उद्धतृ करते हुए हिनष्कष� हिनकाला ै हिक �े कहिर्वाताए ंम ादेर्वाी के ‘आत्मभक्षी दीप’ अभिभप्रा� को ी व्याख्�ाधि�त न ीं करतीं बल्किAक उनकी कहिर्वाता की �ामान्� मुद्रा और बुनार्वाट का प्रहितहिनधि� रूप भी मानी जा �कती ैं।

�त्�प्रकाश धिमश्र छा�ार्वााद �े �ंबंधि�त उनकी शास्� मीमां�ा के हिर्वाष� में क त े ैं ― “म ादेर्वाी ने र्वाैदुष्� �ुक्त तार्तिककंता और उदा रणों के द्वारा छा�ार्वााद और र स्�र्वााद के र्वास्त ुसिशAप की पूर्वा�र्वात� काव्य �े भिभन्नता तथा हिर्वासिश>ता ी न ीं बता�ी, � भी बता�ा हिक र्वा हिकन अथa में मानर्वाी� �ंर्वाेदन के बदलार्वा और अभिभव्यसिक्त के न�ेपन

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का काव्य ै। उन् ोंने हिक�ी पर भार्वा �ाम्�, भार्वाोप रण आढ़िद का आरोप न ीं लगा�ा केर्वाल छा�ार्वााद के स्र्वाभार्वा, र्चरिर�, स्र्वारूप और हिर्वासिश>ता का र्वाण�न हिक�ा।”[१८]

प्रभाकर श्रोहि�� जै�े मनीषी का मानना ै हिक जो लोग उन् ें पीड़ा और हिनराशा की कर्वाधि��ी मानते ैं र्वाे � न ीं जानते हिक उ� पीड़ा में हिकतनी आग ै जो जीर्वान के �त्� को उजागर करती ै।[र्च]

� �र्च ै हिक म ादेर्वाी का काव्य �ं�ार छा�ार्वााद की परिरधि� में आता ै, पर उनके काव्य को उनके �ुग �े एकदम अ�म्पृक्त करके देखना, उनके �ाथ अन्�ा� करना ोगा। म ादेर्वाी एक �जग रर्चनाकार ैं। बंगाल के अकाल के �म� 1943 में इन् ोंने एक काव्य �ंकलन प्रकासिशत हिक�ा था और बंगाल �े �म्बंधि�त “बंग भू शत र्वांदना” नामक कहिर्वाता भी सिलखी थी। इ�ी प्रकार र्चीन के आक्रमण के प्रहितर्वााद में हि माल� नामक काव्य �ंग्र का �ंपादन हिक�ा था। � �ंकलन उनके �ुगबो� का प्रमाण ै।गद्य �ाहि त्� के के्ष� में भी उन् ोंने कम काम न ीं हिक�ा। उनका आलोर्चना �ाहि त्� उनके काव्य की भांहित ी म त्र्वापूण� ै। उनके �ंस्मरण भारती� जीर्वान के �ंस्मरण सिर्च� ैं।उन् ोंने सिर्च�कला का काम अधि�क न ीं हिक�ा हिफर भी जलरंगों में ‘र्वाॉश’ शैली �े बनाए गए उनके सिर्च� �ंु�ले रंगों और ल�पूण� रेखाओं का कारण कला के �ंुदर नमूने �मझे जाते ैं। उन् ोंने रेखासिर्च� भी बनाए ैं। दाहि नी ओर करीन शोमर की हि�ताब के मुखपृष्ठ पर म ादेर्वाी द्वारा बना�ा ग�ा रेखासिर्च� ी रखा ग�ा ै। उनके अपने कहिर्वाता �ंग्र ों �ामा और दीपसिशखा में उनके रंगीन सिर्च�ों और रेखांकनों को देखा जा �कता ै।

पुरस्कार व सम्मान

म ादेर्वाी — माग�रेट थैर्चर �े ज्ञानपीठ पुरस्कार लेते हुए

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�ाकढ़िटकट

उन् ें प्रशा�हिनक, अ��प्रशा�हिनक और व्यसिक्तगत �भी �ंस्थाआ  �े पुरस्कार र्वा �म्मान धिमले।

1943 में उन् ें ‘मंगलाप्र�ाद पारिरतोहिषक ’ एर्वां ‘भारत भारती ’ पुरस्कार �े �म्माहिनत हिक�ा ग�ा। स्र्वाा�ीनता प्राप्तिप्त के बाद 1952 में र्वाे उत्तर प्रदेश हिर्वा�ान परिरषद की �दस्�ा मनोनीत की ग�ीं। 1956 में भारत �रकार ने उनकी �ाहि प्तित्�क �ेर्वाा के सिल�े ‘पद्म भूषण ’ की उपाधि� दी। 1979 में �ाहि त्� अकादमी की �दस्�ता ग्र ण करने र्वााली र्वाे प ली महि ला थीं।[१९] 1988 में उन् ें मरणोपरांत भारत �रकार की पद्म हिर्वाभूषण उपाधि� �े �म्माहिनत हिक�ा ग�ा।[७]

�न 1969 में हिर्वाक्रम हिर्वाश्वहिर्वाद्याल� , 1977 में कुमाऊं हिर्वाश्वहिर्वाद्याल� , नैनीताल, 1980 में ढ़िदAली हिर्वाश्वहिर्वाद्याल� तथा 1984 में बनार� वि ंदू हिर्वाश्वहिर्वाद्याल�, र्वााराण�ी ने उन् ें �ी.सिलट की उपाधि� �े �म्माहिनत हिक�ा।

इ��े पूर्वा� म ादेर्वाी र्वामा� को ‘नीरजा’ के सिल�े 1934 में ‘�क्�ेरिर�ा पुरस्कार’, 1942 में ‘स्मृहित की रेखाए’ँ के सिल�े ‘हिद्वर्वाेदी पदक ’ प्राप्त हुए। ‘�ामा’ नामक काव्य �ंकलन के सिल�े उन् ें भारत का �र्वा�च्च �ाहि प्तित्�क �म्मान ‘ज्ञानपीठ पुरस्कार’ प्राप्त हुआ।[२०] र्वाे भारत की 50 �ब�े �शस्र्वाी महि लाओं में भी शाधिमल ैं।[२१]

1968 में �ुप्रसि�द्ध भारती� हिफ़Aमकार मृणाल �ेन ने उनके �ंस्मरण ‘र्वा र्चीनी भाई’[२२] पर एक बांग्ला हिफ़Aम का हिनमा�ण हिक�ा था न्दिज�का नाम था नील आकाशेर नीर्चे।[२३]

16 सि�तंबर 1991 को भारत �रकार के �ाकतार हिर्वाभाग ने ज�शंकर प्र�ाद के �ाथ उनके �म्मान में 2 रुपए का एक �ुगल ढ़िटकट भी जारी हिक�ा ै।[२४]

महादेवी वमा� का योगदान

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म ादेर्वाी �े जुडे़ हिर्वासिश> स्थल

�ाहि त्� में म ादेर्वाी र्वामा� का आहिर्वाभा�र्वा उ� �म� हुआ जब खड़ी बोली का आकार परिरष्कृत ो र ा था। उन् ोंने हि न्दी कहिर्वाता को बृजभाषा की कोमलता दी, छंदों के नए दौर को गीतों का भं�ार ढ़िद�ा और भारती� दश�न को र्वाेदना की ार्दिदंक स्र्वाीकृहित दी। इ� प्रकार उन् ोंने भाषा �ाहि त्� और दश�न तीनों के्ष�ों में ऐ�ा म त्र्वापूण� काम हिक�ा न्दिज�ने आनेर्वााली एक पूरी पीढी को प्रभाहिर्वात हिक�ा। शर्चीरानी गुटू� ने भी उनकी कहिर्वाता को �ु�श्मिज्तत भाषा का अनुपम उदा रण माना ै।[छ] उन् ोंने अपने गीतों की रर्चना शैली और भाषा में अनोखी ल� और �रलता भरी ै, �ाथ ी प्रतीकों और विबंबों का ऐ�ा �ंुदर और स्र्वााभाहिर्वाक प्र�ोग हिक�ा ै जो पाठक के मन में सिर्च� �ा खींर्च देता ै।[ज] छा�ार्वाादी काव्य की �मृन्दिद्ध में उनका �ोगदान अत्�ंत म त्र्वापूण� ै। छा�ार्वाादी काव्य को ज ाँ प्र�ाद ने प्रकृहिततत्र्वा ढ़िद�ा, हिनराला ने उ�में मुक्तछंद की अर्वातारणा की और पंत ने उ�े �ुकोमल कला प्रदान की र्वा ाँ छा�ार्वााद के कलेर्वार में प्राण-प्रहितष्ठा करने का गौरर्वा म ादेर्वाी जी को ी प्राप्त ै। भार्वाात्मकता एर्वां अनुभहूित की ग नता उनके काव्य की �र्वाा�धि�क प्रमुख हिर्वाशेषता ै। हृद� की �ूक्ष्माहित�ूक्ष्म भार्वा-हि लोरों का ऐ�ा �जीर्वा और मूत� अभिभवं्यजन ी छा�ार्वाादी कहिर्वा�ों में उन् ें ‘म ादेर्वाी’ बनाता ै।[२५] र्वाे हि न्दी बोलने र्वाालों में अपने भाषणों के सिलए �म्मान के �ाथ �ाद की जाती ैं। उनके भाषण जन �ामान्� के प्रहित �ंर्वाेदना और �च्चाई के प्रहित दृcता �े परिरपूण� ोते थे। र्वाे ढ़िदAली में 1986 में आ�ोन्दिजत ती�रे हिर्वाश्व वि ंदी �म्मेलन के �मापन �मारो की मुख्�

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अहितसिथ थीं। इ� अर्वा�र पर ढ़िदए गए उनके भाषण में उनके इ� गुण को देखा जा �कता ै।[२६]

�द्यहिप म ादेर्वाी ने कोई उपन्�ा�, क ानी �ा नाटक न ीं सिलखा तो भी उनके लेख, हिनबं�, रेखासिर्च�, �ंस्मरण, भूधिमकाओं और लसिलत हिनबं�ों में जो गद्य सिलखा ै र्वा शे्रष्ठतम गद्य का उत्कृ> उदा रण ै।[झ] उ�में जीर्वान का �ंपूण� र्वाैहिर्वाध्� �मा�ा ै। हिबना कAपना और काव्यरूपों का � ारा सिलए कोई रर्चनाकार गद्य में हिकतना कुछ अर्जिजंत कर �कता ै, � म ादेर्वाी को पcकर ी जाना जा �कता ै। उनके गद्य में र्वाैर्चारिरक परिरपक्र्वाता इतनी ै हिक र्वा आज भी प्रा�ंहिगक ै।[ञ] �माज �ु�ार और नारी स्र्वात�ंता �े �ंबंधि�त उनके हिर्वार्चारों में दृcता और हिर्वाका� का अनुपम �ामंजस्� धिमलता ै। �ामान्दिजक जीर्वान की ग री परतों को छूने र्वााली इतनी तीव्र दृधि>, नारी जीर्वान के र्वाैषम्� और शोषण को तीखेपन �े आंकने र्वााली इतनी जागरूक प्रहितभा और हिनम्न र्वाग� के हिनरी , �ा�न ीन प्राभिण�ों के अनूठे सिर्च� उन् ोंने ी प ली बार वि ंदी �ाहि त्� को ढ़िदए।मौसिलक रर्चनाकार के अलार्वाा उनका एक रूप �ृजनात्मक अनुर्वाादक का भी ै न्दिज�के दश�न उनकी अनुर्वााद-कृत ‘�प्तपणा�’ (1960) में ोते ैं। अपनी �ांस्कृहितक रे्चतना के � ारे उन् ोंने र्वाेद, रामा�ण, थेरगाथा तथा अश्वघोष, कासिलदा�, भर्वाभूहित एर्वां ज�देर्वा की कृहित�ों �े तादात्म्� स्थाहिपत करके 39 र्च�हिनत म त्र्वापूण� अंशों का हि न्दी काव्यानुर्वााद इ� कृहित में प्रस्तुत हिक�ा ै। आरंभ में 61 पृष्ठी� ‘अपनी बात’ में उन् ोंने भारती� मनीषा और �ाहि त्� की इ� अमूA� �रो र के �ंबं� में ग न शो�पूण� हिर्वामष� हिक�ा ै जो केर्वाल स्�ी-लेखन को ी न ीं वि ंदी के �मग्र सिरं्चतनपरक और लसिलत लेखन को �मृद्ध करता ै।[२७]

तुम मुझ्मे हि2य ! हि3र परिरच्य क्या

तुम मुझ्मे हिप्र� ! हिफ़र परिरच्� क्�ा

ताक� मे छहिर्वा, प्राणों में स्म्रुहित

पलकों में नीरर्वा पद की गहित

लघु उर में पुलकों की �ं�ृहित

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भर लाई हँू तेरी र्चंच्ल

ऒर करँू ज्ग में �ंच्� क्�ा ! तेरा मुख श� अरुणोद�

परछाई रजनी हिर्वाषादम�

र्वा जागृहित र्वा नींद स्व्प्नम�

खेAखेल थ्क्थ्क �ोने दे

में �मझूँगी �ृधि> प्रल� क्�ा !

हिप्र� ! �ान्ध्� गगन

हिप्र� ! �ान्ध्� गगन मेरा जीर्वान !

� भिक्षहितज बना �ँु�ला हिर्वाराग,

नर्वा अरूण अरूण मेरा �ु ाग,

छा�ा �ी का�ा र्वाीतराग,

�ुधि�भीने स्व्प्न रँगीले घ्न ! �ा�ों का आज �ुन् लाप्न,

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धिघरता हिर्वाषाद का हितधिमर �घन,

�न्ध�ा का न्भ �े मूक धिमलन,

� अशु्रम्ती ँस्ती सिर्चत्व्न !

हि3र हिवक्ल हैं 2ाण मेरे !

हिफ़र हिर्वाक्ल ैं प्राण मेरे !

तो� दो � भिक्षहितज मैं भी देख लंू उ� ओर क्�ा ै ! जा र े न्दिज� पंथ �े �ुग क्Aप उस्क छोर क्�ा ै ? क्�ों मुझे प्रार्चीर ब्न कर आज मेरे श्र्र्वाा� घेरे ?

सि�न्धु की हिनः�ीम्ता पर Aघु A र का ला� कै�ा ? दीप Aघु सिशर पर �रे आलोक का आकाश कै�ा ! दे र ी मेरी सिर्चरन्तन्ता क्ष्णों के �ाथ फे़रे !

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हितमिमर में वे पदचि ह्न मिमले ! हितधिमर में र्वाे पदसिर्चह्न धिमले ! �ुग – �ुग क पंथी अकुल मन,

बाँ� र ा प्थ के रजक्ण रु्चन ;

श्र्र्वाा�ों में रँू�े दुख के पल ब्न ब्न दीप च्ले !

अश्मिA�त तन में, हिर्वाघुत-�ी भर, र्वार ब्न्ते मेरे श्र्म-�ीकर; एक एक आँ�ू में शत शत शत्दल्-स्व्प्न खिखले ! �जहिन हिप्र� के पदसिर्चह्न धिमले !

तब क्ष्ण क्ष्ण म्धु - प्याले होंगे ! त्ब क्ष्ण क्ष्न म्�ु-प्�ाले ोंगे !

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ज्ब दूर देश उ� जाने को ह्ग-ख्ज्न म्त्र्वााले ोंगे !

दे आँ�ू-ज्ल स्मृहित के Aघु क्ण,

मैंने उर-विपंजर में उन्म्न,

अप्ना आकुल मन ब लाने

�ुख-दुख के ख्ग पाले ोंगे !

ज्ब मेरे शूलों पर शत शत,

म�ु के �ुग ोंगे अश्मिव्Aम्बत,

मेरे क्र्न्दन �े अत्प के-

ढ़िदन सि�व्न रिर�ाले ोंगे !

  

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