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hindisahityasimanchal.files.wordpress.com · Web viewब ध यन न यज ञ क समय...

Date post: 21-Feb-2020
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धधधधधधधधध / Dharmsutra धधधधधधधधधधध धध धधधधध धधध धधधधध धधधधधधधधधधध धधध धधधधधधधधध-धधधध, धधधधधधधधध धधधध, धधधध धधध धधधधध धध धधधधधधधधध धधध धध धधधधध धध धध धधधधधधधधधधधध धध धधधधधधधध धध धधध धधध धध धधधधधध धधधध धधध धधधधधधधधधधधध धध धधधध धध , धधधध धधधध धध धध धधधधधधधध धधधध धध धधधधधधधधध धध धधधधध-धधध धधधधधधध धधध धधध धधध धधधधधध धध धधधधधधधधध धधधधध धधधध धध धधधधधधधधध धध धध धधधध धध धध धध धधधधधधधध धधधधधधध धधधधधध धध धधधधध धधधधध धधधधधधधध धधधध धध धधधध धध धधधध धधध धधधधधधधध धध धधध धधधध धधधधध धधधध धध ध धधधध धध धध धधध धधधधधध धध धधधधध-धधधधध धधधधधधधधधधध धध धधधधध: धधधधधध धध धधधध धधधध धधध, धधधधधधध धध धधधधधध धध धधधधधध धधधध धधधध धधधध धध धधधधधधधधधधध धध धध धधधध धधधध धधध धध धधधधधधधधधधधध धधध धधधधधधध धधधध धध धध धधध धध धधधधध धधधध धध [1] धधधधधध धध धधधध-धधधधध धधधधधध धधधधधधध धधधधधधधधध धध धधधध धध धधधधधध धधधधधधधध धध धधध-धधध धध धधधध-धधधधधधध, धधधधधधध धधधधधधधधध धधध धधधधधधधध धधधधधधधधधधधध धधध धधधधधधधध धधधधधधधध धधध धधधधधध धध धधध धध धध: धध धधधध धधधधध धध धधधधधधधध धधधधध धध धधध धधधधधधध धधधधध धध धधध धध धधध धधधधधधधध धध धधधधध धधधध धध धधध धधध धधधध धधधधधध धध धधधधधधधध धधधध धधधधध धधधधधध धध धधधधध धधधध,धधधधध धधधधधधधधधधधध धधध धधधधध-धधधधधध धधधधधध धधधधधधधधधधधधध धध धधधधध धधध धध धधधधधधधधधधधधध धध धध धधधधधधधधधध धधधधधधध धधधधधध धध धधधधधधध धध धधधधधध धध धधधधधधधध धधध, धधधध धधधधधध धध धधधधधधधधधधधधध धधध धधधधधध धधधध धधधधधधध धधधधधधधध धध धध-धधध धधध धधध धधधधध धध धध धध धधधधध धध धध धधधध धध धध धधधधधधधध धधधधधधधधध धध धधधध धधधधधधध धध धधध धध धध धधधधधधधधध धधधध धध धधधध धधधध ध धधधधधधधधधधधधध धधध धध धधधधधधधधध धधधधधधधध धधध धधधधधधधध धधधध धधध धधधधध धधधधधधधध ध धधधधधधधधधध धध धधधध धधध धधध -धधध धधधधधधधध धधध धध धधधधध धधधध धधधध धधधधधधधधधध धधधधधधधधध धध धध धधधधध धधध धधधधधध धधधध धधधध धधधधध धधधधधध धध धधधधधधध धधधधध धध धध धधधधधधधधधध धध धधधध धध धधधधधध धधधध धध धधधधधधधधधध धधधध धध धधधधधध बबबब बब बबबब बबबबबबबबबबब बबब बबबबबब बब बबबबबबबबब बबबबबबबबब बब बबबबब बबबबबबब बब बबबब बबब बबबबबबब 1 बबबबबबबबब / Dharmsutra 2 बबबबबबबबबबब बब बबबबब बबब बबबबब 3 बबबब बब बबबबबब 4 बबबबबबबबबबब बब बबबबब बबब बबबबबबबबबब
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धर्म�सूत्र / Dharmsutra धर्म�सूत्रों का उद्भव एवं विवकासधर्म�सूत्रों र्में वर्णाा�श्रर्म-धर्म�, व्यक्ति�गत आचरर्णा, राजा एवं प्रजा के कर्त्त�व्य आदि! का विवधान है। ये गृह्यसूत्रों की श्रृंखला के रूप र्में ही उपलब्ध होते हैं। श्रौतसूत्रों के सर्मान ही, र्माना जाता है विक प्रत्येक शाखा के धर्म�सूत्र भी पृथक्-पृथक् थे। वत�र्मान सर्मय र्में सभी शाखाओं के धर्म�सूत्र उपलब्ध नहीं होते। इस अनुपलब्धिब्ध का एक कारर्णा यह है विक सम्पूर्णा� प्राचीन वाङ्मय आज हर्मारे सर्मक्ष विवद्यर्मान नहीं है। उसका एक बड़ा भाग कालकवक्तिलत हो गया। इसका दूसरा कारर्णा यह र्माना जाता है विक सभी शाखाओं के पृथक्-पृथक् धर्म�सूत्रों का संभवत: प्रर्णायन ही नहीं विकया गया, क्योंविक इन शाखाओं के द्वारा विकसी अन्य शाखा के धर्म�सूत्रों को ही अपना क्तिलया गया था। पूव�र्मीर्मांसा र्में कुर्मारिरल भट्ट ने भी ऐसा ही संकेत दि!या है।[1] आयK के रीवित-रिरवाज वे!ादि! प्राचीन शास्त्रों पर आधृत थे विकन्तु सूत्रकाल तक आते-आते इन रीवित-रिरवाजों, सार्माजिजक संस्थानों तथा राजनीवितक परिरस्थिस्थवितयों र्में पया�प्त परिरवत�न एवं प्रगवित हो गयी थी अत: इन सबको विनयर्मबद्ध करने की आवश्यकता अनुभव की गयी। सार्माजिजक विवकास के साथ ही उठी सर्मस्याए ँभी प्रवितदि!न जदिVल होती जा रही थीं। इनके सर्माधान का काय�भार अनेक वैदि!क शाखाओं ने संभाल क्तिलया,जिजसके परिरर्णाार्मस्वरूप गहन विवचार-विवर्मश� पूव�क सूत्रग्रन्थों का सम्पा!न विकया गया। इन सूत्रग्रन्थों ने इस !ीर्घ�कालीन बौजिद्धक सम्प!ा को सूत्रों के र्माध्यर्म से सुरक्षिक्षत रखा, इसका प्रर्मार्णा इन सूत्रग्रन्थों र्में उद्धतृ अनेक प्राचीन आचायK के र्मत-र्मतान्तरों के रूप र्में मिर्मलता है। यह तो विवकास का एक क्रर्म था जो तत्काक्तिलक परिरस्थिस्थवित के कारर्णा विनरन्तर हो रहा था। यह विवकासक्रर्म यहीं पर नहीं रुका अविपतु सूत्रग्रन्थों र्में भी सर्मयानुकूल परिरवत�न एवं परिरवध�न विकया गया जिजसके फलस्वरूप ही परवतb स्र्मृवितयों का जन्र्म हुआ। नयी-नयी सर्मस्याए ँविफर भी उभरती रहीं। उनके सर्माधानाथ� स्र्मृवितयों पर भी भाष्य एवं Vीकाए ँक्तिलखी गयीं जिजनके र्माध्यर्म से प्राचीन वचनों की नवीन व्याख्याए ँकी गयीं। इस प्रकार अपने से पूव�वतb आधार को त्यागे विबना ही

नूतन क्तिसद्धान्तों तथा विनयर्मों के सर्मयानुकूल प्रवितपा!न का र्माग� प्रशस्त कर क्तिलया गया।अनुक्रर्म1 धर्म�सूत्र / Dharmsutra 2 धर्म�सूत्रों का उद्भव एवं विवकास 3 धर्म� का स्वरूप 4 धर्म�सूत्रों का र्महत्व एवं प्राथमिर्मकता 5 आचार की र्महर्त्ता 6 प्रासंविगकता 7 धर्म�सूत्रों का रचना - काल 8 धर्म�सूत्र तथा धर्म�शास्त्र र्में अन्तर 9 धर्म�सूत्र तथा गृह्यसूत्र 10 Vीका दिVप्पर्णाी और सं!भ�

धर्म� का स्वरूपजैसा विक नार्म से ही विवदि!त है विक धर्म�सूत्रों र्में व्यक्ति� के धर्म�सम्बन्धी विक्रयाकलापों पर विवचार विकया गया है, विकन्तु धर्म�सूत्रों र्में प्रवितपादि!त धर्म� विकसी विवशेष पूजा-पद्धवित पर आक्षिश्रत न होकर सर्मस्त आचरर्णा व व्यवहार पर विवचार करते हुए सम्पूर्णा� र्मानवजीवन का ही विनयन्त्रक है। ‘धर्म�’ शब्! का प्रयोग वैदि!क संविहताओं तथा उनके परवतb साविहत्य र्में प्रचुर र्मात्रा र्में होता जा रहा है। यहाँ पर यह अवधेय है विक परवतb साविहत्य र्में धर्म� शब्! का वह अथ� दृमिnगोचर नहीं होता, जो विक वैदि!क संविहताओं र्में उपलब्ध है। संविहताओं र्में धर्म� शब्! विवस्तृत अथ� र्में प्रयु� है। अथव�वे! र्में पृक्तिथवी के ग्यारह धारक तत्त्वों की गर्णाना ‘पृक्तिथवीं स्धारयन्तिन्त’ कहकर की गयी है।[2] इसी प्रकार ॠग्वे!* र्में ‘ताविन धर्मा�क्षिर्णा प्रथर्मान्यासन्’ कहकर यही भाव प्रकV विकया गया है। इस प्रकार यह धर्म� विकसी !ेशविवशेष तथा कालविवशेष से सम्बन्धिन्धत न होकर ऐसे तत्वों को परिरगक्षिर्णात करता है जो सर्मस्त पृक्तिथवी अथवा उसके विनवाक्तिसयों को धारर्णा करते हैं। वे विनयर्म शाश्वत हैं तथा सभी के क्तिलए अपरिरहाय� हैं। र्मैक्सर्मूलर ने भी धर्म� के इस स्वरूप की ओर इन शब्!ों र्में इंविगत विकया है- प्राचीन भारतवाक्तिसयों के क्तिलए धर्म� सबसे पहले अनेक विवषयों के बीच एक रुक्तिच का विवषय नहीं था अविपतु वह सबका आत्र्मसर्मप�र्णा कराने वाली विवमिध थी। इसके अन्तग�त न केवल पूजा और प्राथ�ना आती थी अविपतु वह सब भी आता था जिजसे हर्म !श�न, नैवितकता, क़ानून और शासन कहते हैं। उनका सम्पूर्णा� जीवन उनके क्तिलए धर्म� था तथा दूसरी चीजें र्मानों इस जीवन की भौवितक आवश्यकताओं के क्तिलए विनमिर्मर्त्त र्मात्र थीं।‘[3] संविहताओं के परवतb साविहत्य र्में धर्म� केवल वर्णाा�श्रर्म के आचार-विवचार तथा विक्रयाकलापों तक ही सीमिर्मत रह गया। उपविनविषत-काल र्में धर्म� का यही स्वरूप उपलब्ध होता है। छान्!ोग्य उपविनष!* र्में धर्म� के तीन स्कन्ध विगनाए गये हैं। इनर्में यज्ञ, अध्ययन तथा !ान प्रथर्म, तप विद्वतीय तथा आचाय�कुल र्में वास तृतीय स्कन्ध है।[4] स्पn ही इनके अन्तग�त वगK र्में रूढ़ होकर परवतb काल र्में पूजापद्धवित को भी धर्म� ने अपने र्में सर्माविवn कर क्तिलया। इतना होने पर भी सभी ने धर्म� का र्मूल वे! को र्माना जाता है। र्मनु ने तो इस विवषय र्में 'धर्म� जिजज्ञासर्मानानां प्रर्मार्णां परर्मं श्रुवित:' तथा 'वे!ोऽखिखलो धर्म�र्मूलर््म' आदि! र्घोषर्णाा करके वे!ों को ही धर्म� का र्मूल कहा है।* गौतर्म धर्म�सूत्र र्में तो प्रारम्भ र्में ही 'वे!ों धर्म�र्मूलर्म'।* ‘तविद्व!ां च स्र्मृवितशीले’* सूत्रों द्वारा यही बात कही गयी है। ये !ोनों सूत्र र्मनुस्र्मृवित के 'वे!ोंऽखिखलो धर्म�र्मूलर्म

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स्र्मृवितशीले च तविद्व!ार््म' श्लोकांश के ही रूपान्तर र्मात्र हैं। इसी प्रकार वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र* र्में भी 'श्रुवितस्र्मृवितविवविहतो धर्म�:' कहकर धर्म� के विवषय र्में श्रुवित तथा स्र्मृवित को प्रर्मार्णा र्माना है। बौधायन धर्म�सूत्र र्में श्रुवित तथा स्रृ्मवित के अवितरिर� क्तिशnाचरर्णा को भी धर्म� का लक्षर्णा कहकर र्मनुस्र्मृवित र्में प्रवितपादि!त शु्रवित, स्र्मृवित तथा क्तिशnाचरर्णा को ही सूत्र रूप र्में विनबद्ध विकया है।[5] इस प्रकार धर्म� के लक्षर्णा र्में श्रुवित के साथ स्र्मृवित तथा क्तिशnाचरर्णा को भी सन्धिम्र्मक्तिलत कर क्तिलया गया। !श�नशास्त्र र्में धर्म� का लक्ष्य लोक-परलोक की क्तिसजिद्ध* कहकर अत्यन्त व्यापक कर दि!या गया तथा एक प्रकार से सर्मस्त र्मानव-जीवन को ही इसके द्वारा विनयन्तिन्त्रत कर दि!या गया। वैशेविषक !श�न के उ� लक्षर्णा का यही अथ� है विक सर्मस्त जीवन का, जीवन के प्रत्येक श्वास एवं क्षर्णा का उपयोग ही इस रीवित से विकया जाए विक जिजससे अभ्यु!य तथा विन:श्रेयस की क्तिसजिद्ध हो सके। इसर्में ही अपना तथा दूसरों का कल्यार्णा विनविहत है। धर्म� र्मानव की शक्ति�यों एवं लक्ष्य को संकुक्तिचत नहीं करता अविपतु वह तो र्मनुष्य र्में अपरिरमिर्मत शक्ति� !ेखता है जिजसके आधार पर र्मनुष्य अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकता है। अभ्यु!य तथा विन:श्रेयस की क्तिसजिद्ध नार्मक लक्ष्य इतना र्महान है विक इससे बाहर कुछ भी नहीं है। इसे प्राप्त करने की विन:सीर्म सम्भावनाए ँर्मनुष्य र्में विनविहत हैं। इस प्रकार जीवन के प्रत्येक पक्ष पर धर्म� विवचार करता है तथा अपनी व्यवस्था !ेता है। धर्म�सूत्रों का र्महत्व एवं प्राथमिर्मकताइस व्यवस्था के प्रवितपा!क ही धर्म�सूत्र तथा स्र्मृवितयाँ हैं। धर्म�सूत्रकारों ने अपने-अपने ग्रन्थों द्वारा र्मानवजीवन को इस प्रकार विनयंवित्रत करने का यत्न विकया विक जिजससे वह उ� !ोनों लक्ष्यों को प्राप्त कर सके। धर्म�सूत्रकारों ने र्मानव जीवन से सम्बन्धिन्धत प्रत्येक सर्मस्या पर विवचार करके अपनी व्यवस्था !ी है जिजससे विक र्मानव जीवन व्यवस्थिस्थत रूप से चल सके। इसीक्तिलए उन्होंने वर्णा�धर्म�, आश्रर्म-धर्म�, राजधर्म�, प्रजाधर्म�, खानपान, पाप, प्रायक्षि�र्त्त, जावित-प्रथा, !ाया!, विववाह आदि! प्रत्येक प्रर्मुख विवषयों पर उर्त्तर्म रीवित से विववेचन विकया। धर्म�सूत्रों का व्यक्ति� के सार्माजिजक जीवन की दृमिn से अत्यन्त र्महत्व है। र्मनुष्य एक सार्माजिजक प्रार्णाी है। सर्माज र्में रहकर ही उसे अपने आचार-व्यवहार, नैवितकता आदि! का पालन करना होता है। सर्माज की दृमिn से अपने आप को विनयन्तिन्त्रत करना होता है। उचृ्छङ्-खलता-विनयर्म-रविहतता या अनैवितकता के रहते सर्माज चल नहीं सकता। धर्म�सूत्रों र्में व्यक्ति� के सार्माजिजक जीवन के सम्पा!नाथ� विनयर्म बनाए गये हैं। उन विनयर्मों के द्वारा ही सर्माज र्में व्यक्ति� के कर्त्त�व्य तथा अमिधकारों का विनयन्त्रर्णा होता है। धर्म�सूत्रों र्में सर्माज के विवक्षिभन्न वगK के पारस्परिरक आचार-व्यवहार आदि! का भी क्रमिर्मक वर्णा�न रहता है तथा विवक्षिभन्न स्थिस्थवितयों से गुजरते हुए व्यक्ति� के कत�व्य एवं अमिधकारों का भी उल्लेख रहता है। कभी-कभी धर्म�सूत्र गृह्यसूत्रों के प्रवितपाद्य विवषयों पर भी विवचार करते प्रतीत होते हैं विकन्तु ऐसा कर्म स्थानों पर ही है। गृह्यसूत्रों र्में पाकयज्ञ, विववाह, संस्कार, श्राद्ध, र्मधुपक� आदि! का वर्णा�न रहता है। इस प्रकार गृह्यसूत्रों र्में व्यक्ति� के गृहस्थ जीवन के संचालनाथ� ऐसे रीवित-रिरवाज तथा विनयर्मों का वर्णा�न है जो व्यक्ति� के धार्मिर्म�क जीवन को संयमिर्मत तथा अनुशाक्तिसत करते हैं विकन्तु व्यक्ति� का जीवन केवल धर्म� तक ही तो सीमिर्मत नहीं है। उसे सार्माजिजक जीवन भी जीना होता है जहाँ उसकी कुछ सार्माजिजक सर्मस्याए ँहोती हैं, उसके सार्माजिजक एवं नैवितक !ामियत्व भी होते हैं जिजनके पूर्णा� न करने पर या उनको तोड़ने पर !ण्ड का विवधान भी विकया जाता है। धर्म�सूत्रों का र्महत्व इसी दृमिn से है विक इन सार्माजिजक एवं नैवितक !ामियत्वों तथा इनके पूर्णा� न करने पर विवविवध प्रकार के !ण्डों का विवधान धर्म�सूत्रकार ही करते हैं। इस प्रकार धर्म�सूत्रों का क्षेत्र सर्माज र्में व्याप्त विवविवध वगK तथा आश्रर्मों के जीवन और उनकी सर्मस्याओं तक विवस्तृत है, जबविक गृह्यसूत्रों का क्षेत्र अपनी शाखाओं के अन्तग�त प्रचक्तिलत विनयर्मों तथा रीवित-रिरवाजों तक ही सीमिर्मत है। धर्म�सूत्रों का र्महत्व उनके विवषय-प्रवितपा!न के कारर्णा है। सार्माजिजक व्यवस्था का आधार वर्णाा�श्रर्म-पद्धवित है। धर्म�सूत्रों र्में वर्णाा�श्रर्म-व्यवस्था के आधार पर ही विवविवध विवषयों का प्रवितपा!न विकया गया है। इनर्में वर्णाK के कत�व्यों तथा अमिधकारों पर पया�प्त प्रकाश डाला गया है। धर्म�सूत्रकार आपत्काल र्में भी र्मन से ही आचार-पालन पर बल !ेते हैं।[6] अयोग्य तथा दूविषत व्यक्ति� से परिरग्रह का सव�था विनषेध विकया गया है। वर्णाK एवं आश्रर्मों के कत�व्य-विनधा�रर्णा की दृमिn से भी धर्म�सूत्र पया�प्त र्महत्व रखते हैं। धर्म�सूत्रों के काल तक आश्रर्मों का र्महत्व पया�प्त बढ़ गया था अत: धर्म�सूत्रों र्में एताविद्वषयक पया�प्त विन!�श दि!ये गये हैं। सभी आश्रर्मों का आधार गृहस्थाश्रर्म है तथा उसका आधार है विववाह। धर्म�सूत्रों र्में विववाह पर पया�प्त प्रकाश डाला गया है। यहाँ पर यह विवशेष है विक अnविवध विववाहों र्में सभी धर्म�सूत्रकारों ने न तो एक क्रर्म को अपनाया तथा न ही उनकी श्रेष्ठता के तारतम्य को सभी ने स्वीकार विकया। प्रतोलोर्म विववाह की सव�त्र विनन्!ा की गयी है। विववाहोपरान्त पवित-पत्नी के धार्मिर्म�क कृत्य एक साथ करने का विवधान है। धन-सम्पक्षिर्त्त पर !ोनों का सर्मान रूप से अमिधकार र्माना गया है। गृहस्थ के क्तिलए पञ्च र्महायज्ञ तथा सभी संस्कारों की अविनवाय�ता यहाँ पर प्रवितपादि!त की गयी है। धर्म�सूत्रकार इस बात से भी भलीभाँवित परिरक्तिचत थे विक र्मया�!ा-उल्लंर्घन से सर्माज र्में वर्णा�संकरता उत्पन्न होती है। धर्म�सूत्रकारों ने वर्णा�संकर जावितयों को भी र्मान्यता प्र!ान करके उनकी सार्माजिजक स्थिस्थवित का विनधा�रर्णा कर दि!या तथा वर्णा�व्यवस्था का पालन कराकर वर्णा�संकरता को रोकने का !ामियत्व राजा को सौंप दि!या गया। गौतर्म धर्म�सूत्र* र्में जात्युत्कष� तथा जात्यपकष� का क्तिसद्धान्त भी प्रवितपादि!त विकया गया है। इस प्रकार वर्णाा�श्रर्म के विवविवध कत�व्यों का प्रवितपा!न करके इसके साथ पातक, र्महापातक, प्रायक्षि�र्त्त, भक्ष्याभक्ष्य, श्राद्ध, विववाह और उनके विनर्णा�य, साक्षी, न्यायकता�, अपराध, !ण्ड, ॠर्णा, ब्याज, जन्र्म-र्मृत्युविवषयक अशौच, स्त्री-धर्म� आदि! ऐसे सभी विवषयों पर धर्म�सूत्रों र्में विवचार विकया गया है, जिजनका जीवन र्में उपयोग है। आचार की र्महर्त्ता

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धर्म�सूत्रकारों ने व्यक्ति� के आचार एवं व्यवहार पर बहुत बल दि!या है। आचार ही र्मानव का आधार है; वही धर्म� का तत्व है, इस बात को धर्म�शास्त्रकार भली-भाँवित जानते थे। र्मनुस्र्मृवित र्में तो आचार पर यहाँ तक बल दि!या गया है विक उसे ही परर्म धर्म�[7] कह दि!या गया तथा कहा गया है विक आचारभ्रn व्यक्ति� को वे! भी पविवत्र नहीं कर सकता।[8] इसी प्रकार का विवचार वक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र* र्में व्य� विकया गया है। हर्में धर्म� को अपने व्यवहार र्में उतारना चाविहए, न विक केवल शब्!र्मात्र र्में। यद्यविप स!ाचार का पालन अत्यन्त अपरिरहाय� है। तभी सर्माज स्थिस्थर रह सकता है, विकन्तु इसके साथ ही यह तथ्य भी स्र्मरर्णाीय है विक स!ाचार का पालन अत्यन्त ही कदिठन काय� है। सतत प्रयत्न करते रहने पर भी आचरर्णा-भ्रnता सम्भव है तथा कुछ व्यक्ति� जानबूझकर भी सर्माज-विवरोधी तथा शास्त्र-विवरोधी आचरर्णा कर !ेते हैं। आचारहीनता विकसी भी कारर्णा से हो, ऐसा व्यक्ति� पवितत कहलाता है। धर्म�सूत्रकार इस बात को अच्छी प्रकार जानते थे। वे यह भी जानते थे विक ऐसे व्यक्ति� को दुराचरर्णा अथवा उसके अपराध का !ण्ड तो मिर्मलना ही चाविहए, विकन्तु यदि! वह र्मन से अपने पापकर्म� पर पा�ाताप करता है तो पुन: उसे श्रेष्ठ बनने का अवसर प्र!ान करना चाविहए न विक स!ैव के क्तिलए ही उसके जीवन को अन्धकारर्मय बना !ेना चाविहए। इसी उदे्दश्य से धर्म�सूत्रकारों ने दुnाचारी के क्तिलए अनेक प्रकार के !ण्डों एवं प्रायाक्षि�तों का विवधान विकया जाता है जिजससे वह व्यक्ति� शुद्ध हो सके। धर्म�सूत्रों की दृमिn र्में अपराधी व्यक्ति� र्घृर्णाा का पात्र नहीं हैं, बब्धिल्क वह स्नेह एवं सहानुभूवित का पात्र है। धर्म�सूत्रकारों की र्मान्यता के र्मूल र्में कर्म� क्तिसद्धान्त हैं, जिजसके अनुसार विकया हुआ कोई भी शुभाशुभ कर्म� नn नहीं होता, अविपतु अचे्छ-बुरे विकसी न विकसी फल को अवश्य ही उत्पन्न करता है। उन कर्मK का फल चाहे इसी जन्र्म र्में मिर्मल जाए, चाहे अगले जन्र्म र्में, विकन्तु वह मिर्मलेगा अवश्य। इसक्तिलए वत�र्मान तथा भावी !ोनों ही जन्र्म शुद्ध हो सकें , यही धर्म�सूत्रकारों का यत्न है। आचारशास्त्र के र्मूल र्में कर्म�क्तिसद्धान्त ही है। यही पाप को दूर करने की पे्ररर्णाा !ेता है। वर्णाा�श्रर्म धर्म� के साथ ही धर्म�सूत्रों र्में राजधर्म� का भी गहन विववेचन विकया गया है। राजा र्में !ैवीय अंश की कल्पना की गयी है। धर्म�सूत्रों र्में राजा के कत�व्य, अमिधकार एवं सर्माजविवरोधी तत्वों के क्तिलए !ण्ड-व्यवस्था पर भी विवचार विकया गया है। धर्म� तथा अथ� के विवरोध की स्थिस्थवित र्में राजा को धर्म� का ही पक्ष लेना चाविहए। राजा के क्तिलए युद्धादि! के विनयर्मों का उल्लेख भी इन ग्रन्थों र्में विकया गया है यथा ब्राह्मर्णा, पीठ दि!खाने वाला, भूमिर्म पर बैठने वाला ये अवध्य कहे गये हैं। इस प्रकार धर्म�सूत्र राजशास्त्र के प्ररु्मख विवषयों तथा उपा!ानों की सार्मान्य विववेचना प्रस्तुत करते हैं। इस प्रकार अपने सर्मय र्में वर्णाा�श्रर्म के कत�व्यों का विनधा�रर्णा करके धर्म�सूत्रकारों ने सर्माज को उक्तिचत दि!शा !ेने र्में र्महत्वपूर्णा� भूमिर्मका का विनवा�ह विकया है। साथ ही अपराधों के क्तिलए विवविवध प्रकार के प्रायक्षि�त तथा !ण्ड-विवधान करके सर्माज को अपराधरु्म� करने का भी यत्न विकया। सार्माजिजक रीवित-रिरवाजों एवं आचार-व्यवहार को र्मान्यता प्र!ान करना धर्म�सूत्रकारों का ही काय� था। प्रतीत होता है विक उस काल र्में धर्म�सूत्रकार सर्माज को सार्माजिजक एवं नैवितक दृमिn से विनयन्तिन्त्रत एवं संयमिर्मत करने र्में लगे हुए थे। एक सभ्य एवं स्वस्थ सर्माज के क्तिलए यह अविनवाय� था। प्रासंविगकता आज सर्माज र्में पूवा�पेक्षया अनेक परिरवत�न हो चुके हैं। यथा-आज राजनीवितक प्रर्णााली एवं न्याय-व्यवस्था ब!ल चुकी है। क्तिशक्षा का स्वरूप तथा संस्थाए ँभी वे नहीं हैं, जो प्राचीनयुग र्में थीं। वर्णा�व्यवस्था का स्थान जन्र्मगत जावित-प्रथा ने ले क्तिलया है। सार्माजिजक तथा नैवितक र्मूल्य भी पूवा�पेक्षया परिरवर्तित�त हुए हैं। !ाया! तथा सम्पक्षिर्त्त-विवभाजन आदि! के क्तिलए भी आज राजनीवितक क़ानून ही सव�र्मान्य हैं, इत्यादि!। ऐसे सर्मय र्में इन धर्म�सूत्रों की परिरमिर्मत प्रासंविगकता ही र्मानी जा सकती है। गौतर्म तथा बौधायन आदि! धर्म�सूत्रों से हर्में पया�प्त र्मात्रा र्में भौगोक्तिलक संकेत भी प्राप्त होते हैं, यथा बौधायन धर्म�सूत्र* र्में क्तिशnों के !ेश की सीर्मा बतलायी गयी है। यही आया�वत� है तथा इस प्र!ेश का आचरर्णा अन्यों के क्तिलए प्रर्मार्णा है। र्मनुस्र्मृवित र्में भी इसका उल्लेख विकया गया है।* र्में अन्य आचायK का र्मत भी दि!या गया है विक गंगा तथा यर्मुना के बीच का प्र!ेश भी आया�वत� है। इस प्रकार भौगोक्तिलक जानकारी !ेने के रूप र्में भी ये सूत्रग्रन्थ र्महत्वपूर्णा� स्थान रखते हैं। इन धर्म�ग्रन्थों र्में अनेक प्राचीन आचायK के र्मतों का नार्म लेकर या विबना नार्म क्तिलए ही उल्लेख विकया गया जिजससे हर्में उनके र्मत जानने र्में भी सहायता मिर्मलती है। धर्म�सूत्रों* से हर्में जावितयों की उत्पक्षिर्त्त का इवितहास जानने र्में भी पया�प्त सहायता मिर्मलती है। धर्म�सूत्रों का रचना - काल गौतर्म, बौधायन तथा आपस्तम्ब धर्म�सूत्रों को अन्य धर्म�सूत्रों की अपेक्षा प्राचीन र्माना जता है तथा इनका काल 300 ई॰पू॰ तथा 600 ई॰पू॰ के र्मध्य रखा जाता है। र्मानव-जीवन को विनयंवित्रत करने के क्तिलए र्मनुस्र्मृवित आदि! धर्म�शास्त्र तथा गौतर्मादि! के द्वारा प्रर्णाीत धर्म�सूत्रों के रूप र्में !ो प्रकार के ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं। प्रश्न है विक धर्म�शास्त्र पूव�वतb है या धर्म�सूत्र पूव�वतb हैं? विवद्वानों ने !ोनों ही पक्षों र्में अपनी व्यवस्था !ी है। अन्त: आक्ष्य के आधार पर धर्म�शास्त्रों को धर्म�सूत्रों से पूव�वतb र्माना जा सकता है, क्योंविक धर्म�सूत्रों र्में धर्म�शास्त्र तथा इनके कता�ओं का उल्लेख अनेकत्र हुआ है। इसके क्तिलए विनम्न उ!ाहरर्णा द्रnव्य हैं जहाँ पर विक* धर्म�शास्त्र का उल्लेख हुआ है-'तस्य च व्यवहारो वे!े धर्म�शास्त्राख्याङ्गाविन उपवे!ा: पुरार्णार्म्।' इतना ही नहीं, अविपतु गौतर्म धर्म�सूत्र र्में र्मनु का साक्षात् नार्म भी क्तिलया गया है।* धर्म�सूत्रों र्में अनेक स्थानों पर 'एके'* तथा 'आचाय�'* आदि! शब्!ों द्वारा अन्यों के र्मत का भी उल्लेख विकया गया है। इस आधार पर कुछ विवद्वानों ने विनष्कष� विनकाला है विक ये संकेत धर्म�शास्त्रों की ओर ही हैं।[9] विकन्तु उ� कथन अनुर्मान पर ही आधृत है। 'एके' तथा 'आचाय�:' आदि! शब्!ों के द्वारा अन्य धर्म�सूत्रकारों का स्र्मरर्णा भी विकया जा सकता है केवल धर्म�शास्त्रकारों का ही नहीं। अत: इस हेतु को धर्म�शास्त्रों की पूव�काक्तिलकता के रूप र्में उपस्थिस्थत नहीं विकया जा सकता। पुनरविप गौतर्म धर्म�सूत्र र्में र्मनु धर्म�शास्त्रों का उल्लेख होने से इनको गौतर्म धर्म�सूत्र से पूव�वतb र्मानना ही सर्मीचीन है।

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कुन्!नलाल शर्मा� ने अपना आशय इन शब्!ों र्में व्य� विकया है- सूत्र-रचना से पूव� भी पद्यात्र्मक रचना थी विकन्तु वह नn हो गयी। ब्यूहलर के अनुसार इस प्रकार के श्लोक स्रृ्मवितसहायभूत लोकप्रचक्तिलत पद्यों के अंश थे।[10] र्मैक्सरू्मलर ने धर्म�शास्त्रों की अपेक्षा धर्म�सूत्रों को पूव�वतb र्माना है। स्Vेन्त्सलर का अनुवा! करते हुए र्मैक्सर्मूलर ने बलपूव�क यह र्मत व्य� विकया है विक सभी प!यात्र्मक धर्म�शास्त्रों की रचना विबना विकसी अपवा! के प्राचीन सूत्र-रचनाओं के आधार पर की गयी थी।[11] डॉ॰ भाण्डारकर का भी यही विवचार है विक धर्म�सूत्रों की रचना के प�ात ही अनुnुप छन्! वाले धर्म�शास्त्रों की रचना की गयी। र्म॰र्म॰पी॰वी॰ कारे्णा इससे सहर्मत नहीं हैं। उनके अनुसार धर्म�सूत्र पूव�वतb हैं तथा धर्म�शास्त्र परवतb- 'इसी प्रकार कुछ बहुत पुराने सूत्रों यथा बौधायन धर्म�सूत्र र्में भी एक श्लोक उद्धतृ हैं', इससे यह स्पn हो जाता है विक श्लोकबद्ध धर्म�ग्रन्थ धर्म�सूत्रों से भी पूव� विवद्यर्मान थे।[12] र्मनुस्र्मृवित आदि! धर्म�शास्त्रों के काल पर विवचार करते हुए हर्में यह भी ध्यान र्में रखना होगा विक यास्काचाय� ने विनरु� र्में र्मनु का नार्म क्तिलया है।[13] अत: र्मानना होगा विक यास्क से पूव� धर्म�शास्त्र विवद्यर्मान थे। यास्क का काल 800 ई॰ पू॰ र्माना जाता है। र्मनुस्र्मृत्यादि! धर्म�शास्त्र इससे पूव�वतb हैं तथा धर्म�सूत्र यास्क के सर्मकालीन या इससे भी उर्त्तरवतb क्तिसद्ध होते हैं। इतना तो विनक्षि�त है विक धर्म�सूत्रों र्में प्राचीनतर्म गौतर्म, बौधायन और आपस्तम्ब के धर्म�सूत्र ईसा पूव� 600 और 300 के बीच के सर्मय के हैं।* धर्म�सूत्र तथा धर्म�शास्त्र र्में अन्तर(1) अमिधकतर धर्म�सूत्र या तो विकसी सूत्रचरर्णा से सम्बद्ध कल्प के भाग है या गृह्यसूत्रों से सम्बन्ध रखते हैं, जबविक धर्म�शास्त्र विकसी भी सूत्रचरर्णा से सम्बन्धिन्धत नहीं हैं। (2) धर्म�शास्त्र पद्यर्मय हैं, जबविक धर्म�सूत्र गद्य या गद्य-पद्य र्में होते हैं।(3) धर्म�सूत्रों र्में अपनी शाखा के वे! अथवा चरर्णा के प्रवित आ!र विवशेष रहता है, जबविक धर्म�शास्त्रों र्में ऐसा नहीं है। (4) धर्म�सूत्रों र्में विवषय-विववेचन का कोई विनक्षि�त क्रर्म नहीं रहता, जबविक धर्म�शास्त्रों र्में सभी विवषयों का आचार, व्यवहार तथा प्रायक्षि�र्त्त इन तीन भागों र्में विवभाजन करके क्रर्मबद्ध तथा व्यवस्थिस्थत विववेचन उपलब्ध होता है। र्मैक्सरू्मलर के अनुसार धर्म�शास्त्र धर्म�सूत्रों के रूपान्तर र्मात्र हैं। उनका स्वतन्त्र अब्धिस्तत्व नहीं है। त!नुसार र्मनुस्र्मृवित र्मैत्रायर्णाी शाखा के विकसी प्राचीन र्मानव धर्म�सूत्र का नवीन संस्करर्णा र्मात्र है।[14] धर्म�सूत्र तथा गृह्यसूत्र गृह्यसूत्र तथा धर्म�सूत्र !ोनों ही स्र्मार्त्त� हैं। कभी-कभी धर्म�सूत्र अपने कल्प के गृह्यसूत्रों का अनुसरर्णा भी करते हैं तथा गृह्यसूत्रों के ही विवषय का प्रवितपा!न करते हैं।[15] तथाविप उनकी सर्त्ता एवं प्रार्माक्षिर्णाकता स्वतंत्र है। इस सर्मय चार ही धर्म�सूत्र ऐसे उपलब्ध हैं जो अपने गृह्यसूत्रों का अनुसरर्णा करते हैं। ये हैं – बौधायन, आपस्तम्ब, विहरण्यकेशी तथा वैखानस गृह्यसूत्र। अन्य गृह्यसूत्रों का अनुसरर्णा करने वाले धर्म�सूत्र इस सर्मय उपलब्ध नहीं हैं। यह भी र्माना जाता है विक अपने-अपने कल्प के गृह्यसूत्र तथा धर्म�सूत्र का कर्त्ता� एक ही व्यक्ति� होता था। डॉ॰ रार्मगोपाल ने इस विवषय र्में यह विवचार प्रकV विकया है- 'यह तो क्तिसद्ध है विक एक ही कल्प के गृह्यसूत्र तथा धर्म�सूत्र का कर्त्ता� कए ही व्यक्ति� था, विकन्तु इस विवषय र्में र्मतभे! पाया जाता है विक एक ही शाखा के सभी गृह्यसूत्रों के अनुरूप धर्म�सूत्रों की भी रचना की गयी थी या केवल कुछ शाखाओं के कल्पों र्में ही यह विवशेषता रखी गयी थी।' कुन्!ल लाला शर्मा� भी धर्म�, श्रौत तथा गृह्यसूत्र इन तीनों का कर्त्ता� एक ही व्यक्ति� को र्मानते हुए क्तिलखते हैं- 'यह क्तिसद्धान्त स्थिस्थर सर्मझना चाविहए विक एक कल्प के श्रौत, गृह्य तथा धर्म�सूत्रों के कर्त्ता� एक ही व्यक्ति� थे।[16]' यदि! इनके कर्त्ता� एक ही व्यक्ति� थे तो ये ग्रन्थ सर्मकाक्तिलक रहे होंगे। एक ही कर्त्ता� ने कौन-सा सूत्रग्रन्थ पहले रचा तथा कौन-सा बा! र्में, इससे इनके पौवा�पय� पर विवशेष अन्तर नहीं पड़ता। डॉ॰ उर्मेश चन्द्र पाण्डेय ने धर्म�सूत्रों के Vीकाकारों के आधार पर ऐसा संकेत भी दि!या है विक धर्म�सूत्र, श्रौत तथा गृह्यसूत्रों से पूव� विवद्यर्मान थे, विकन्तु डॉ॰ पाण्डेय ने इस तथ्य को अस्वीकार करते हुए प्रवितपा!न विकया है विक धर्म�सूत्र श्रौतसूत्र तथा गृह्यसूत्रों के बा! की रचनाए ँहैं।* वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र/ vasishth Dharmsutraभट्ट कुर्मारिरल ने वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र का सम्बन्ध श्रग्वे! से स्थाविपत विकया है।* र्म. र्म. कार्णाे ने भी इससे सहर्मवित व्य� की है, विकन्तु उनकी र्मान्यतानुसार ऋग्वेदि!यों ने इसे अपने कल्प के पूरक रूप र्में बा! र्में ही स्वीकार विकया।* धर्म�सूत्रगत उपनयन, अनध्याय, स्नातक के व्रतों और पञ्चर्महायज्ञों से सम्बद्ध प्रकरर्णाों का शांखायन गृह्यसूत्रगत तविद्वषयक सार्मग्री से बहुत सादृश्य है। आश्वलायन गृह्यसूत्र के भी कुछ अंशों से इसकी सर्मानता है। इनके अवितरिर� पारस्कर गृह्यसूत्र के कवितपय सूत्रों का साम्य भी इसके साथ परिरलक्षिक्षत होता है। धर्म�सूत्रों र्में गौतर्म धर्म�सूत्र के साथ इसका विवशेष सम्बन्ध है। गौतर्म के सोलहवें और वाक्तिसष्ठ के दूसरे अध्यायों र्में अक्षरशः साम्य दि!खलाई !ेता है। वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र की उपलब्ध पाण्डुक्तिलविपयों और प्रकाक्तिशत संस्करर्णाों र्में स्वरूपगत पुष्न्कल वैक्षिभन्न्य है। जीवानं! के संस्करर्णा र्में लगभग 21 अध्याय हैं तथा आनन्!ाश्रर्म और डॉ. फ्यूहरर् के संस्करर्णाों र्में 30 अध्याय हैं। इसकी संरचना प्रायः पद्यात्र्मक है। सूत्रों का परिरर्मार्णा बहुत कर्म है। बहुसंख्यक प्राचीन व्याख्याकारों, यथा विवश्वरूप, र्मेधावितक्तिथ प्रभृवित ने वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र को अत्यन्त आ!रपूव�क उद्धतृ विकया है। इसर्में प्रवितपादि!त विवषयों का विववरर्णा इस प्रकार हैः–अध्याय-1 धर्म� का लक्षर्णा, आया�वर्त्त� की सीर्मा, पाप का विवचार, तीनों वगK की न्धिस्त्रयों के साथ ब्राह्मर्णा के विववाह का विवधान, छह प्रकार के विववाह, लोकव्यवहार पर राजा का विनयन्त्रर्णा, उपज के षष्ठांश की राजकर रूपता।

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अध्याय-2 चातुव�ण्य� विवचार, आचाय� का र्महत्व, !रिरद्रता की स्थिस्थवित र्में क्षा़त्र और वैश्यवृक्षिर्त्त के स्वीकरर्णा की र्मान्यता, कुसी! (ब्याज लेने) की विनन्!ा। अध्याय-3 अज्ञ ब्राह्मर्णा की विनन्!ा, गुप्त धन प्रान्तिप्त की विवमिध, आत्र्मरक्षा कें क्तिलए आततायी के वध की अनुज्ञा, पंक्ति�पावनी परिरष!,् आचर्मन तथा शौचादि! के विनयर्म, विवक्षिभन्न द्रव्यों की संस्कार–विवमिध। अध्याय-4 चातुव�ण्य�विवधान, संस्कारों का र्महत्व, अवितक्तिथ सत्कार, र्मधुपक� , जन्र्म और र्मृत्यु विवषयक अशौच। अध्याय-5 न्धिस्त्रयों की विनभ�रता और रजस्वला स्थिस्थवित के विनयर्म। अध्याय-6 आचार की प्रशंसा, वेग, संवेग तथा र्मलर्मूत्रादि! त्याग के क्तिलए विनयर्म, ब्राह्मर्णा की नीवित, शूद्र की विवशेषता, शूद्र के र्घर र्में खाने की विनन!ा, व्यवहार विनयर्म तथा उर्त्तर्म सन्तान का विनयर्म। अध्याय-7 चतुराश्रर्म और ब्रह्चारी के कर्त्त�व्य। अध्याय-8 गृहस्थ का धर्म� और अवितक्तिथ–अचा� की विवमिध। अध्याय-9 अरण्यवासी तपस्वी (वानप्रस्थ) के विनयर्म। अध्याय-10 सन्यासी के विनयर्म। अध्याय-11 स्वतन्त्र सम्र्मान का अमिधकारी, भोजन परिरवेशन का क्रर्म, श्राद्ध के विनयर्म और काल, उपनयन, अखिग्नहोत्र के विनयर्म, सर्मय, !ण्ड, र्मेखला आदि!। अध्याय-12 स्नातक व्यवहार का विवधान। अध्याय-13 उपाक्रर्म (वे!पाठ आरम्भ) के विनयर्म, अनध्याय के विनयर्म, अक्षिभवा!न विवमिध, अक्षिभवा!न र्में पौवा�पय� विवधान, र्माग�गर्मन के विनयर्म। अध्याय-14 भक्ष्याभक्ष्य विनर्णा�य। अध्याय-15 पोष्यपुत्रजन्य विनयर्म। अध्याय-16 न्याय की व्यवस्था, वित्रविवध प्रर्मार्णापत्र, साक्षी और अमिधकार, जब!�स्ती अमिधकार करने का विनयर्म, राजा के उप!ेश, साक्षी होने की योग्यता, मिर्मथ्या विनयर्म, संकल्पकारी को क्षर्मा करने की विवमिध। अध्याय-17 औरस पुत्र की प्रशंसा, के्षत्रज पुत्र के विवषय र्में र्मतभे!, 12 प्रकार के पुत्र, भाइयों के र्मध्य सम्पक्षिर्त्त का बँVवारा, व्यस्क कन्या के विववाह का विनयर्म, उर्त्तरामिधकार–विनयर्म। अध्याय-18 चाण्डाल जैसी प्रवितलोर्म जावित, शूद्र के क्तिलए वे!श्रवर्णा और वे!ाध्ययन का विनषेध। अध्याय-19 राजा के कर्त्त�व्य, रक्षा और !ण्ड। अध्याय-20 ज्ञात अथवा अज्ञात रूप र्में कृत पाप का प्रायक्षि�र्त्त। अध्याय-21 ब्राह्मर्णा स्त्री के साथ व्यक्षिभचार करने तथा गौ–हत्या करने का प्रायक्षि�र्त्त। अध्याय-22 अभक्ष्य–भक्षर्णा जविनत पाप का प्रयक्षि�र्त्त।

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अध्याय-23 ब्रह्मचारी के द्वारा र्मैथुन करने तथा सुरापान करने पर प्रायक्षि�र्त्त। अध्याय-24 कृच्छ्र और अवितकृच्छ्र व्रत। अध्याय-25 गुप्त तपस्या और लर्घु पापों के क्तिलए व्रताचरर्णा। अध्याय-26,27 प्रार्णाायर्म की उपा!ेयता, वे!र्मन्त्र तथा गायत्री की उपा!ेयता। अध्याय-28 न्धिस्त्रयों की प्रशंसा, अर्घर्मष�र्णा सू� और !ान की प्रशंसा। अध्याय-29 !ान, ब्रह्चय� और तपस्या के सुफल। अध्याय-30 सत्य, धर्म� और ब्राह्मर्णाों की स्तुवित। विवषय–विनरूपर्णा र्में वैक्तिशष्ट्य वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र ने सार्मान्यतः संस्कारों की गर्णाना नहीं की है, विकन्तु उपनयन और विववाह का उल्लेख विकया है। विववाह के प्रकारों र्में आठ के स्थान पर छह का ही विवधान है। बलपूव�क हरर्णा केवल क्षवित्रय कन्या का ही विकया जा सकता है। साक्षिक्षगत प्रर्मार्णाों के सन्!भ� र्में वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र क्तिलखिखत, साक्षी, भुक्ति� (Possession) को प्रर्मार्णा रूप र्में स्वीकार करता है। साक्षी को विनर्म�ल, श्रोवित्रय, आविनजिन्!त, चरिरत्रवान्, सत्यविनष्ठ और पविवत्र होना चाविहए। वाक्तिसष्ठ ने कुछ विनक्षि�त स्थिस्थवितयों र्में विनयोगविवमिध को र्मान्यता !ी है। म्लेच्छ भाषा के अध्ययन का इसर्में विनषेध विकया गया है। बाल–विवधवा के पुनर्तिव�वाह की इसर्में अनुज्ञा !ी गई है। वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र ने स!ाचार को बहुत र्महत्व दि!या है। हीनाचारों से ग्रस्त व्यक्ति� के लोक और परलोक !ोनों ही नn होते हैं। स!ाचार रविहत ब्राह्मर्णा के क्तिलए वे!, वे!ांग और यज्ञानुष्ठान उसी प्रकार विनरथ�क हैं जैसे विक अन्धे के क्तिलए पत्नी की सुन्!रता – आचारः परर्मो धर्म�ः सव�षामिर्मवित विन�यः।हीनाचार परीतात्र्मा पे्रत्य चेह च नश्यवित।।आचारहीनस्य तु ब्राह्मर्णास्य वे!ाः षडङ्गास्त्वखिखलाः सयज्ञाः।कां प्रीवितर्मुत्पा!मियतुं सर्मथा� अन्धस्य !ारा इव !श�नीयाः।। वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र ने पौनः पुन्येन र्मनुष्यों को धर्मा�चरर्णा और सत्य–संभाषर्णा करने की ही पे्ररर्णाा !ी है – उसका कथन है विक अरे र्मनुष्यों! धर्म� का पालन करो, अधर्म� से बचो। सत्य बोलो, मिर्मथ्या से बचो। अपनी दृमिn को विवशाल बनाओ, कु्षद्रता से बचो और विकसी को भी पराया न सर्मझो। धर्म�, चरत र्माऽधर्म¥ सत्यं व!त र्माऽनृतर्म्।!ीर्घ¥ पश्यत, र्मा ह्रस्वं परं पश्यत र्माऽपरर्म्।। वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र पर केवल एक ही व्याख्या प्रकाक्तिशत हुई है, वह है कृष्र्णा पस्थिण्डत धर्मा�दि!कारी की 'विवद्वन्र्मोदि!नी'। यह बनारस संस्करर्णा र्में र्मुदिद्रत है। बौधायन धर्म�सूत्र के व्याख्याकार गोविवन्! स्वार्मी ने वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र के व्याख्याकार के रूप र्में यज्ञस्वार्मी का उल्लेख विकया है। सन् 1883 र्में बम्बई से डॉ. फ्यूहरर् के द्वारा सम्पादि!त–प्रकाक्तिशत संस्करर्णा का पहले ही उल्लेख हो चुका है। 1904 र्में लाहौर से इसका विहन्!ी अनुवा! सविहत प्रकाशन हुआ है। आनन्!ाश्रर्म से 'स्र्मृतीनां सरु्मच्चयः' के अन्तग�त 1905 र्में यह धर्म�सूत्र प्रकाक्तिशत है। जीवानन्! के द्वारा सम्पादि!त 'स्र्मृवित–संग्रह' (धर्म�शास्त्र संग्रह) र्में 20 अध्यायात्र्मक रूप र्में इसका प्रकाशन हुआ है।

बौधायन धर्म�सूत्र / Baudhayan Dharmsutra अनुक्रर्म1 बौधायन धर्म�सूत्र / Baudhayan Dharmsutra 2 कता� 3 स्वरूप 4 भाषा एवं शैली 5 बौधायन धर्म�सूत्र का सर्मय 5.1 प्रथर्म प्रश्न 5.2 विद्वतीय प्रश्न 5.3 तृतीय प्रश्न 5.4 चतुथ� प्रश्न 6 प्रवितपाद्य का विवश्लेषर्णा

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6.1 चार आश्रर्म 6.2 विववाह के विवविवध विनयर्म 6.3 –!ण्ड विवधान 6.4 यज्ञ 7 बौधायन धर्म�सूत्र के व्याख्याकार 8 बौधायन धर्म�सूत्र के संस्करर्णा 9 Vीका दिVप्पर्णाी और सं!भ�

कता�इस धर्म�सूत्र के रचमियता बौधायन (या बोधायन) हैं। विकन्तु स्वयं इस धर्म�सूत्र र्में बौधायन के र्मत को कई स्थलों पर उद्धतृ विकया गया है।* एक स्थान पर तप�र्णा के प्रसंग र्में अन्य सूत्रकारों के साथ काण्व बौधायन का उल्लेख भी विकया गया है।* इससे स्पn है विक काण्व बौधायन वत�र्मान धर्म�सूत्र के कता� नहीं हो सकते। इस धर्म�सूत्र की रचना के सर्मय वे ॠविष र्माने जाते थे। वत�र्मान धर्म�सूत्र का कता� इनका ही वंशज है, जिजसकी अवा�चीनता स्वत: क्तिसद्ध है। बौधायन धर्म�सूत्र के Vीकाकार गोविवन्!स्वार्मी ने भी वत�र्मान धर्म�सूत्र के कता� को काण्वायन कहा है। स्वरूपयह धर्म�सूत्र चार प्रश्नों र्में हैं। प्रश्नों का विवभाजन अध्याय तथा खण्डों र्में विकया गया है। प्रथर्म प्रश्न र्में 11 अध्याय तथा 21 खण्ड हैं। विद्वतीय प्रश्न र्में 10 अध्याय तथा 12 खण्ड हैं। तृतीय प्रश्न र्में 10 अध्याय तथा 10 ही खण्ड हैं। चतुथ� प्रश्न र्में 8 अध्याय तथा 8 खण्ड हैं। तृतीय तथा चतुथ� प्रश्न के अध्याय तथा खण्डों र्में कोई अन्तर नहीं है। तृतीय प्रश्न र्में विकसी र्महत्वपूर्णा� विवषय का विववेचन न करके पूव� विववेक्तिचत विवषयों पर ही अवितरिर� विनयर्म दि!ये गये हैं। इस प्रश्न का !शर्म अध्याय गौतर्म धर्म�सूत्र से उद्धतृ है तथा षष्ठ अध्याय विवष्रु्णा धर्म�सूत्र के अड़तालीसवें अध्याय के तुल्य है। बौधायन धर्म�सूत्र र्में विवषयवस्तु के विवभाजन र्में अस्तव्यस्तता है। कई विवषय अनेक बार तथा विबना विकसी क्रर्म-व्यवस्था के !ोहराये गये हैं। यथा !ायभाग के विनयर्मों का प्रवितपा!न प्रायक्षि�त-प्रकरर्णा के र्मध्य है। अनध्यायों की चचा� अnविवध विववाह के प्रसंग र्में की गयी है। प्रथर्म प्रश्न के तृतीय अध्याय र्में तथा पुन: 2.3.10 र्में स्नातक के व्रतों की चचा� की गयी है। इस धर्म�सूत्र र्में एक ही स्थान पर विकसी भी विवषय के सभी विनयर्मों को सर्माप्त नहीं कर दि!या जाता, अविपतु एक ही विवषय का क्षिभन्न-क्षिभन्न अध्यायों र्में विववेचन विकया गया है। यथा-उर्त्तरामिधकार, प्रायक्षि�त, शुजिद्ध, पुत्र-भे! तथा अनध्याय क्षिभन्न-क्षिभन्न स्थलों पर चर्चिच�त हैं।* भाषा एवं शैलीबौधायन धर्म�सूत्र की भाषा पाक्षिर्णाविन पूव� प्रतीत होती है। इसर्में अनेक अपाक्षिर्णानीय प्रयोग भी उपलब्ध होते हैं* 'अक्षिभगच्छात्' तथा* 'आनमियत्वा' प्रयोग पाक्षिर्णानीय व्याकरर्णा के विवरुद्ध हैं। यह सूत्रग्रन्थ गद्य-पद्यर्मय है। ब्राह्मर्णा - ग्रन्थों की शैली के सदृश लम्बे गद्यात्र्मक अंश तथा छोVे-छोVे सूत्र भी इसर्में हैं। इस धर्म�सूत्र र्में अनेक वे!र्मन्त्र सम्पूर्णा� रूप र्में* या आंक्तिशक* रूप र्में उद्धतृ हैं। वैदि!क र्मन्त्रों अथवा र्मन्त्रांशों का विन!�श 'इवित शु्रवित:' तथा 'इवित विवज्ञायते' द्वारा विकया गया है। 'अथाप्यु!ाहरन्तिन्त' कहकर अनेक श्लोकों को इसर्में उद्धतृ विकया गया है। बौधायन प्राय: विवरोधी र्मत को उपस्थिस्थत करने के प�ात ही अपना र्मत !ेते हैं। इस सूत्रग्रन्थ की शैली अन्य धर्म�सूत्रों की अपेक्षा सरल है। *गोविवन्!स्वार्मी ने इस तथ्य की ओर इंविगत विकया है विक बौधायन लार्घवविप्रय नहीं हैं। विवभाजन की अस्त-व्यस्तता के कारर्णा ऐसा र्माना जाता है विक सर्मय-सर्मय पर इसर्में परिरवत�न एवं परिरवध�न विकये जाते रहे हैं, जिजस कारर्णा इस धर्म�सूत्र का कुछ अंश प्रक्षिक्षप्त है। यथा चतुथ� प्रश्न बा! र्में जोड़ा गया प्रतीत होता है। इसके चार अध्यायों र्में प्रायक्षि�र्त्त का विववेचन विकया गया है, जिजसका प्रवितपा!न पहले ही विद्वतीय प्रश्न के प्रथर्म अध्याय र्में 'अथात: प्रायक्षि�र्त्ताविन'* कहकर दि!या गया है। बौधायन धर्म�सूत्र का सर्मयबौधायन धर्म�सूत्र र्में विहरण्यकेक्तिश, आपस्तम्ब तथा काण्व बौधायन तीनों का नार्म-विन!�शपूव�क उल्लेख हुआ।* पुनरविप विहरण्यकेक्तिश श्रौतसूत्र के भाष्यकार र्महा!ेव ने बौधायन को आपस्तम्ब से प्राचीन र्माना जाता है। बौधायन ने अपने धर्म�सूत्र र्में !ो बार गौतर्म का नार्म लेकर उल्लेख विकया है* तथा गौतर्म धर्म�सूत्र के 19 वें अध्याय के अनेक सूत्रों को ज्यों-का-त्यों[1] तथा अनेक सूत्रों को परवतb रूप र्में अपने धर्म�सूत्र र्में ग्रहर्णा कर क्तिलया है। अत: बौधायन धर्म�सूत्र विनक्षि�त रूप से गौतर्म धर्म�सूत्र से परवतb रचना है। इसी प्रकार बौधायन तथा आपस्तम्ब धर्म�सूत्रों र्में भी कई स्थानों पर सर्मानता है। आपस्तम्ब र्में प्राप्त कई सूत्रों को बौधायन 'इवित' लगाकर उद्धतृ करते हैं। इससे यही क्तिसद्ध होता है विक बौधायन ने इन सूत्रों को आपस्तम्ब से ग्रहर्णा विकया है। आपस्तम्ब की भाषा तथा शैली अमिधक अव्यवस्थिस्थत है, साथ ही इसर्में पुराने अथK र्में ही शब्!ों का प्रयोग विकया गया है। इस आधार पर आपस्तम्ब को बौधायन से पूव�वतb र्माना जाता है। ब्यूहलर बौधायन को आपस्तम्ब से पूव�वतb र्मानते हैं। उनका तक� है विक आपस्तम्ब द्वारा प्रवितपादि!त र्मत बौधायन की अपेक्षा परवतb है तथा आपस्तम्ब ने बौधायन के र्मतों की आलोचना भी की है। बौधायन धर्म�सूत्र र्में प्रवितपादि!त विवषयों को संके्षप र्में इस प्रकार स्पn विकया जा सकता है- प्रथर्म प्रश्नअध्याय-1 धर्म�, आया�वत�, विवक्षिभन्न प्र!ेशों के आचार, ब्रह्मचय� तथा उपनयन, अक्षिभवा!न के विनयर्म। अध्याय-2 क्तिशष्य की योग्यता तथा ब्रह्मचय� का र्महत्व। अध्याय-3 स्नातक के कत�व्य। अध्याय-4 कर्मण्डलु का र्महत्व। अध्याय-5 आचर्मन तथा वस्त्रों एवं पात्रों की शुजिद्ध, शुद्ध वस्तुए,ँ ब्याज का विनयर्म, अशौच एवं अस्पृश्यता, भक्ष्याभक्ष्य। अध्याय-6 भूमिर्म एवं पात्र की शुजिद्ध। अध्याय-7 यज्ञ के विनयर्म।

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अध्याय 8-9 पत्नी, विववाह, पुत्र के प्रकार। अध्याय-10 कर का अंश, वर्णा�धर्म�, वर्णाा�नुसार र्मनुष्य-वध का !ण्ड, साक्षी की योग्यता। अध्याय-11 विववाह के भे! और अनध्याय। विद्वतीय प्रश्नअध्याय-1 पातक कर्मK के प्रायक्षि�त, पतनीय कर्म�, कृच्छव्रत के भे!। अध्याय-2 सम्पक्षिर्त्त विवभाजन तथा पुत्र के भे!, स्त्री की परतन्त्रता एवं स्त्री-धर्म�। अध्याय-3 स्नान, !ान एवं भोजन की विवमिध, विनवासयोग्य स्थान एवं पूज्य व्यक्ति�। अध्याय-4 सन्ध्योपासन, गायत्री एवं प्रार्णाायार्म। अध्याय-5 शारीरिरक शुजिद्ध एवं तप�र्णा। अध्याय-6 गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं सन्यासी के कत�व्य। अध्याय-7 आत्र्मज्ञान। अध्याय-8 श्राद्ध एवं !ान की विवमिध। अध्याय-9 सन्तान-उत्पक्षिर्त्त का र्महत्व। अध्याय-10 सन्यास तथा आत्र्मयज्ञ। तृतीय प्रश्नअध्याय-1 परिरव्राजक के भे!। अध्याय-2 छ: प्रकार की जीवन-वृवितयाँ। अध्याय-3 वानप्रस्थ के भे!। अध्याय-4 व्रतभंग का प्रायक्षि�त। अध्याय 5-9 अर्घर्मष�र्णा, यावकव्रत, कूष्र्माण्डहोर्म, चान्द्रायर्णा, अनश्नत्पारायर्णा। अध्याय-10 प्रायक्षि�र्त्त के विनयर्म। चतुथ� प्रश्नअध्याय-1 प्रायक्षि�र्त्त, कन्या!ान का काल, ॠतुगर्मन का र्महत्व, प्रार्णाायार्म। अध्याय-2 भू्रर्णाहत्या का प्रायक्षि�र्त्त, अवकीर्णाb का प्रायक्षि�र्त्त। अध्याय-3 रहस्यप्रायक्षि�र्त्त। अध्याय-4 शास्त्र-सम्प्र!ाय। अध्याय-5 जप तथा विवविवध व्रत। अध्याय-6 प्रायक्षि�र्त्त के विनयर्म। अध्याय-7 धर्म�पालन की प्रशंसा। अध्याय-8 गर्णाहोर्म। प्रवितपाद्य का विवश्लेषर्णाबौधायन धर्म�सूत्र र्में व्यक्ति� के व्यक्ति�गत एवं सार्माजिजक आचार तथा कत�व्यों का विवश! विववेचन विकया गया है। भारतीय संस्कृवित का आधार वर्णा�-व्यवस्था रही है। इस धर्म�सूत्र र्में सभी वर्णाK एवं आश्रर्मों के कत�व्यों पर विवस्तार से प्रकाश डाला गया है। बौधायन के अनुसार ब्राह्मर्णा का कत�व्य वे!ाध्ययन, !ान लेना-!ेना तथा यज्ञ करना है। वे!ाध्ययन के साथ-साथ यज्ञ करना, !ान !ेना, प्राक्षिर्णायों की रक्षा करना क्षवित्रयों के कत�व्य हैं तथा अध्ययन, यज्ञ, कृविष, व्यापार तथा पशुपालन वैश्यों के कत�व्य हैं। शूद्र का केवल एक ही कत�व्य है तीनों वर्णाK की सेवा करना। यद्यविप सार्मान्यत: इन कायK का विवधान विकया गया है, विकन्तु इनर्में व्यवस्थिस्थत क्रर्म भी !ेखने को मिर्मलता है- यथा 1-5-10 र्में ब्राह्मर्णाों को खेती करने की छूV भी !ी गयी है। इसी प्रकार विवशेष स्थिस्थवित र्में ब्राह्मर्णा तथा वैश्य को भी शस्त्र ग्रहर्णा करने का विवधान विकया गया है। एक स्थान पर यह भी कहा गया है विक पशुपालक, व्यापार करने वाले, भृत्यों का काय� करने वाले तथा सू!खोर ब्राह्मर्णाों के साथ शूद्र के सर्मान आचरर्णा करें।* वैश्य सू! पर धन !े सकता है विकन्तु अमिधक ब्याज लेना पाप है।* चार आश्रर्मइस धर्म�सूत्र र्में र्मनुष्य जीवन को ब्रह्मचय�, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा परिरव्राजक के रूप र्में चार आश्रर्मों र्में विवभ� करके पृथक-पृथक सबके कत�व्य विगनाये गये हैं। ब्रह्मचय� के विनयर्मों र्में ब्रह्मचारी की क्षिभक्षा, यज्ञोपवीत, सन्ध्या, आचर्मन, अनध्याय आदि! के सम्बन्ध र्में जो कुछ भी कहा गया है वह वत�र्मान र्मनुस्र्मृवित र्में विनर्दि!�n ब्रह्मचारी के कत�व्यों के सर्मान ही है। इतना ही नहीं, अविपतु ऐसे अनेक श्लोक भी बौधायन धर्म�सूत्र र्में उपलब्ध होते हैं, जो विक र्मनुस्र्मृवित र्में भी विवद्यर्मान हैं।* गृहस्थ के क्तिलए अन्य धर्म�ग्रन्थों की भाँवित बौधायन ने भी आठ विववाह र्माने हैं।* गृहस्थाश्रर्म से पूव� विवद्या सर्माप्त करके तीन प्रकार के स्नातकों का उल्लेख यहाँ पर विकया गया है- वे!स्नातक, व्रतस्नातक तथा वे!व्रतस्नातक। गृहस्थ के क्तिलए बौधायन ने !ेवयज्ञ, विपतृयज्ञ, भूतयज्ञ, र्मनुष्ययज्ञ तथा ब्रह्मयज्ञ के रूप र्में पंच र्महायज्ञों का विवधान विकया है तथा इनको र्महासत्र कहा है। स्वाध्याय पर पया�प्त बल दि!या गया है, यहाँ तक विक उसे ब्रह्मयज्ञ कहा गया है। स्वाध्याय के साथ-साथ गायत्री-जप,

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प्रार्णाायार्म तथा सन्ध्योपासन का विवधान भी यहाँ पर विकया गया है। सूत्रकार का इन विक्रयाओं पर सम्भवत: इसक्तिलए बल है विक ये काय� व्यक्ति� को सन्र्माग� की ओर पे्ररिरत करते हैं। वैखानस अथा�त सन्यासी के क्तिलए !स प्रकार की !ीक्षा का विवधान यहाँ पर विकया गया है। विववाह के विवविवध विनयर्मयद्यविप बौधायन ने विववाह के विवविवध विनयर्म बना कर स्त्री-पुरुषों की कार्मप्रवृक्षिर्त्त को उक्तिचत दि!शा !ेने का यत्न विकया है, तथाविप उन्हें पता है विक कुर्माग�गामिर्मयों द्वारा सर्माज र्में अनवैितक सम्बन्ध भी पनप जाते हैं। इसी को ध्यान र्में रखते हुए बौधायन ने सन्तान के कई प्रकार विगनाए हैं-यथा- कानीन, !र्त्तक, कृवित्रर्म, अपविवद्ध, सहोढ, क्रीत तथा पौनभ�व। इनर्में से कुछ पर विवचार करना आवश्यक है। अविववाविहत कन्या से उत्पन्न पुत्र कानीन कहलाता है। प्रतीत होता है विक सर्माज र्में तब ऐसे पुत्र को स्वीकार कर क्तिलया जाता था। पाक्षिर्णाविन ने भी इसके क्तिलए एक सूत्र का विनर्मा�र्णा विकया है।* विववाह काल र्में गर्भिभ�र्णाी के उ!र र्में सुरक्षिक्षत पुत्र सहोढ कहलाता है। क्लीब या पवितत पवित को छोड़कर अन्य पवित से उत्पन्न संतान पौनभ�व कहलाती थी।* इससे विनयोग प्रथा की ओर संकेत मिर्मलता है। उ� सभी पुत्र !ायभाग के अमिधकारी थे। व्यक्षिभचार के क्तिलए बौधायन कठोरतर्म !ण्ड का विवधान करते हैं, यहाँ तक विक अखिग्न र्में जीविवत जला !ेने का भी। बौधायन धर्म�सूत्र र्में ब्राह्मर्णा, क्षवित्रय तथा वैश्य के क्तिलए क्रर्मशः चार, तीन तथा !ो पन्धित्नयों का विवधान भी विकया गया है। शूद्र के क्तिलए केवल एक पत्नी ही विवविहत है।* यद्यविप यह उच्च आ!श� नहीं है, साथ ही वर्णाK के प्रवित पक्षपात भी है; विकन्तु संभव है विक उस सर्मय सर्माज र्में यह सब कुछ स्वीकृत हो। इसी प्रसंग र्में बौधायन ने वर्णा�संकरों का उल्लेख भी विकया है। प्रवितलोर्म विववाह से उत्पन्न संतानों को इस धर्म�सूत्र के प्रथर्म प्रश्न के नवर्म अध्याय र्में चाण्डाल, रथकार, कुक्कुV, वै!ेहक, श्वपाक, पाराशव, विनषा! आदि! अनेक नार्मों से पुकारा गया है* विक सभी वर्णा�संकर संतानें हैं जो वर्णाK के परस्पर संबंधों से उत्पन्न हुई हैं। प्रतीत होता है विक बौधायन धर्म�सूत्र की रचना के सर्मय सर्माज र्में उ� अवस्था उत्पन्न हो रही थी। विववाह की वैदि!क र्मया�!ा VूVकर वर्णा�संकरता के कारर्णा नई–नई जावितयाँ बनती जा रहीं थीं। धर्म�सूत्रों ने इन सबको सार्माजिजक र्मान्यता !ेने का उपक्रर्म विकया जिजससे विक इनकी उपेक्षा न होने पाए तथा विकसी रूप र्में सार्माजिजक बंधन भी बना रहे। !ण्ड–विवधानगौतर्म की भाँवित बौधायन भी र्मानते हैं विक र्मनुष्य बुरे कायK र्में क्तिलप्त हो जाता है।* एत!थ� बौधायन ने अनेक प्रकार के प्रायक्षि�तों तथा चन्द्रायर्णा आदि! व्रतों का विवधान विकया है जिजससे व्यक्ति� अपने पाप–भार को छोड़कर पुनः सन्र्माग�–गार्मी बन सके। उन्होंने इस सं!भ� र्में पातकों तथा उपपातकों की गर्णाना भी की है तथा सभी के क्तिलए !ण्ड–विवधान विकया है। इनर्में से कई !ण्ड तो अत्यंत कठोर हैं – यथा – सुरापान का !ण्ड जलती हुई सुरा पीकर शरीर को जलाना है। र्मनुस्र्मृवित र्में भी इस !ण्ड का विवधान इसी प्रकार विकया गया है। सम्भवतः कठोर !ण्ड इसक्तिलए है जिजससे व्यक्ति� पाप–र्माग� र्में प्रवृर्त्त ही न हो सके। बौधायन ने सर्मान अपराध के क्तिलए सभी वर्णाK के क्तिलए !ण्ड र्में भे! विकया है। ब्राह्मर्णा के क्तिलए यद्यविप कठोर !ण्ड का विवधान तो मिर्मलता है तथाविप उसे सभी अपराधों र्में अवध्य कहा गया है।* वर्णाा�श्रर्म के साथ–साथ बौधायन ने राजा के अमिधकार एवं कर्त्त�व्यों पर भी पया�प्त प्रकाश डाला है। राजा को प्रजा से आय का छठा भाग कर के रूप र्में लेना चाविहए, जिजससे वह प्रजा की रक्षा कर सके।* अक्षिभज्ञानशाकुन्तलर्म् र्में भी दुष्यन्त द्वारा कर के रूप र्में षष्ठ भाग का ही उल्लेख विकया गया है।* यज्ञबौधायन ने यज्ञ के सर्मय नए वस्त्र धारर्णा करने का विवधान विकया है, साथ ही नार्म लेकर यह भी कहा है विक यजर्मान, यजर्मान पत्नी तथा ऋन्तित्वक ये सभी शुद्ध वस्त्र पहनें।* इस कथन से स्पn है विक न्धिस्त्रयों को भी पवित के साथ यज्ञ र्में बैठने का अमिधकार था। *बौधायन ने न्धिस्त्रयों की स्वतंत्रता पर रोक लगाई है* तथा इस विवषय र्में एक श्लोक भी उद्धतृ विकया है, जो वत�र्मान र्मनुस्र्मृवित र्में* र्में भी स्वल्प शब्!–भे! से उपलब्ध है। बौधायन धर्म�सूत्र के अनुसार, !ायभाग र्में भी न्धिस्त्रयों का अमिधकार नहीं है।* बौधायन ने कश्यप के नार्म से एक श्लोक भी उद्धतृ विकया है – जो स्त्री द्रव्य से क्रय की जाती है उसे पत्नी का नहीं अविपतु !ासी का स्थान प्राप्त होता है।* इस प्रकार कुल मिर्मलाकर इस धर्म�सूत्र र्में स्त्री की स्थिस्थवित अच्छी नहीं है। न्धिस्त्रयों के सर्मान शूद्रों की भी बहुत अच्छी स्थिस्थवित नहीं है। एक स्थान पर उतने सर्मय तक अनध्याय करने का विवधान विकया गया है, जिजतने सर्मय तक शूद्र दि!खलायी पडे़ या उसकी ध्वविन सुनायी !े।* बौधायन धर्म�सूत्र के प्रथर्म प्रश्न के पंचर्म अध्याय के अनेक सूत्रों र्में र्मांसभक्षर्णा का प्रसंग भी चलाया गया है। सभी विवद्वान ऐसा र्मानते हैं विक इस धर्म�सूत्र र्में सर्मय सर्मय पर अनेक परिरवत�न एवं परिरवध�न होते रहे हैं, जिजससे प्रतीत होता है विक यह र्मांस–प्रकरर्णा तथा स्त्री एवं शूद्रों की !ीनावस्था के प्रवितपा!क प्रकरर्णा भी इसर्में प्रक्षिक्षप्त कर दि!ए गए। इस प्रकार इस धर्म�सूत्र र्में र्मानव जीवन से संबन्धिन्धत प्रायः सभी कर्त्त�व्यों का विवधान करके उसे प्रशस्त करने का यत्न विकया गया है। तात्काक्तिलक परिरस्थिस्थवितयों का प्रभाव सूत्रकार पर पड़ा ही होगा, उसी का दि!ग्!श�न अनेकत्र इस धर्म�सूत्र र्में !ेखने को मिर्मलता है। इस धर्म�सूत्र का प्रवितपाद्य र्मनुस्र्मृवित से पया�प्त साम्य रखता है। बौधायन धर्म�सूत्र के व्याख्याकारइसकी गोविवन्!स्वार्मीकृत विववरर्णा ‘नाम्नी’ एकर्मात्र व्याख्या उपलब्ध है। इस व्याख्या र्में गोवन्! स्वार्मी ने अनेक स्र्मृवितयों के उद्धरर्णा दि!ए हैं। इसके अवितरिर� उन्होंने शातातप, शङ्खक्तिलखिखत, र्महाभाष्य, योगसूत्र, भगवद्गीता तथा शाबरभाष्य से भी अनेक उद्धरर्णा दि!ए हैं। श्रौतसूत्रों के भी पया�प्त उद्धरर्णा इसर्में प्राप्त होते हैं। इन सबसे गोविवन्! स्वार्मी की विवद्वता का अनुर्मान विकया जा सकता है। इन उद्धरर्णाों से विन�य ही गोविवन्! स्वार्मी की व्याख्या के गौरव र्में वृजिद्ध हुई है। बौधायन धर्म�सूत्र के संस्करर्णासव�प्रथर्म ई. हुल्त्श (E. Hultsch) ने लीपजिजग से 1884 ई. र्में इसे प्रकाक्तिशत विकया था। यह संस्करर्णा गोविवन्! स्वार्मी की ‘विववरर्णा’ Vीका सविहत है। सैके्रड बुक्स ऑफ दि! ईस्V–भाग 14 र्में इसी संस्करर्णा का ब्यूह्लरकृत आङ्ग्ल भाषानुवा! ऑक्सफोड� से प्रकाक्तिशत हुआ। इसी का विद्वतीय संस्करर्णा 1965 ई॰ र्में दि!ल्ली र्में प्रकाक्तिशत हुआ। र्मैसूर गवन�रे्मन्V ओरिरयण्Vल लाइबे्ररी से 1907 र्में एक संस्करर्णा प्रकाक्तिशत हुआ। ‘आनन्!ाश्रर्म स्र्मार्त्त�सर्मुच्चय’ के अन्तग�त 1929 ई. र्में पूना से प्रकाक्तिशत है।

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1924 ई. र्में चौखम्बा सं. सीरिरज ऑविफस वारार्णासी ने भी एक संस्करर्णा प्रकाक्तिशत विकया जिजसका सम्पा!न पस्थिण्डत क्तिचन्नस्वार्मी शास्त्री ने विकया है। इस संस्करर्णा के अंत र्में बौधायन धर्म� के सूत्रों र्में आये हुए प्रत्येक प! की सूची भी !ी हुई है। 1972 र्में चौखम्बा सं. सीरिरज वारार्णासी से ही इसका विद्वतीय संस्करर्णा प्रकाक्तिशत हुआ है, जिजसका सम्पा!न डॉ. उर्मेश चन्द्र पाण्डेय ने विकया है। इसर्में सूत्रों का विहन्!ी अनुवा! भी है। प्रस्तावना र्में अनेक उपयोगी विवषयों की विववेचना है।

गौतर्म धर्म�सूत्र / Gautam Dharmsutra अनुक्रर्म1 गौतर्म धर्म�सूत्र / Gautam Dharmsutra 2 कर्त्ता� 3 गौतर्म धर्म�सूत्र का स्वरूप 4 गौतर्म धर्म�सूत्र र्में प्रक्षेप 5 गौतर्म धर्म�सूत्र का काल 5.1 प्रथर्म प्रश्नः 5.2 विद्वतीय प्रश्न 5.3 तृतीय प्रश्न 6 प्रवितपाद्य का विवश्लेषर्णा 7 व्याख्याकार 8 संस्करर्णा 9 Vीका दिVप्पर्णाी

कर्त्ता�गौतर्म धर्म�सूत्र के रक्तिचयता ऋविष गौतर्म र्मुविन र्माने जाते हैं। गौतर्म नार्म का उल्लेख प्राचीन शास्त्रों र्में अनेकत्र पाया जाता है। यथा न्याय !श�न के प्ररे्णाता भी अक्षपा! गौतर्म र्माने जाते हैं। कठोपविनष! र्में गौतर्म का प्रयोग नक्तिचकेता तथा उसके विपता वाजश्रवस् के क्तिलए हुआ है। इसी प्रकार छान्!ोग्य उपविनष!* र्में हारिरद्रुर्म नार्म के आचाय� का उल्लेख हुआ है। अथव�वे!* र्में भी गौतर्म नार्म है। ऋग्वे!* के ऋविष रहूगर्णा गौतर्म हैं। इनर्में से विकसने धर्म�सूत्र का प्रर्णायन विकया है, यह अविनक्षि�त है। चरर्णाव्यूह की Vीका के अनुसार गौतर्म सार्मवे! की रार्णाायनी शाखा के एक विवभाग के आचाय� थे।* गौतर्म धर्म�सूत्र का स्वरूपगौतर्म धर्म�सूत्र र्में केवल तीन प्रश्न हैं। प्रथर्म तथा विद्वतीय प्रश्न र्में नौ–नौ अध्याय तथा तृतीय प्रश्न र्में !स अध्याय हैं। इस प्रकार सम्पूर्णा� गौतर्म धर्म�सूत्र 28 अध्यायों र्में विवभ� है, जिजसर्में एक सहस्त्र सूत्र है। यह ग्रंथ केवल गद्य र्में है तथा सभी धर्म�सूत्रों र्में प्राचीनतर्म है। इस ग्रंथ र्में वे!ों के र्मन्त्रांशों को सूत्र रूप र्में उद्धतृ विकया गया है। यद्यविप इन सूत्रों र्में यजुव�! के र्मन्त्र भी उद्धतृ हैं[1] तथाविप इस ग्रंथ का सम्बन्ध सार्मवे! से र्माना जाता है, क्योंविक इसर्में न केवल सार्मवे! के अनेक विवषयों को ही ग्रहर्णा कर क्तिलया गया है, अविपतु सार्मवे! के कई सू�ों का विन!�श भी है। साथ ही इस ग्रंथ के तृतीय प्रश्न के अnर्म अध्याय र्में अनेक सूत्र सार्मवे! के सार्मविवधान ब्राह्मर्णा से उद्धतृ है। इसी प्रकार तृतीय प्रश्नपत्र के प्रथर्म अध्याय के बारहवें सूत्र र्में सार्मवे! के नौ र्मन्त्रों का विन!�श है। प्रथर्म प्रश्न के प्रथर्म अध्याय के सूत्र 52 वें तथा तृतीय प्रश्न के सप्तर्म अध्याय के 8 वें सूत्र र्में पाँच र्महाव्याहृवितयों का उल्लेख विकया गया है।[2] इन व्याहृवितयों का सम्बन्ध भी सार्मवे! से ही है। इन प्रर्मार्णाों के आधार पर गौतर्म धर्म�सूत्र का सम्बन्ध सार्मवे! से स्पn है। र्म. र्म. कार्णाे ने गौतर्म धर्म�सूत्र का सम्बन्ध गौतर्मकल्प से र्माना है, विकन्तु साथ ही उन्होंने इसकी स्वतन्त्र रचना का र्मत भी प्रवितपादि!त विकया है।* गौतर्म धर्म�सूत्र र्में प्रके्षपसर्मय सर्मय पर गौतर्म धर्म�सूत्र र्में प्रक्षेप भी होते रहे हैं। ऐसा प्रायः अनेक ग्रंथों के साथ हुआ है। गौतर्म धर्म�सूत्र भी इसका अपवा! नहीं है। प्रर्मार्णा रूप र्में कहा जा सकता है विक बौधायन धर्म�सूत्र र्में गौतर्म के नार्म से यह र्मत उद्धतृ विकया गया है विक ब्राह्मर्णा को क्षवित्रय की वृक्षिर्त्त स्वीकार नहीं करनी चाविहए।* विकन्तु वत�र्मान गौतर्म धर्म�सूत्र र्में यह र्मत उपलब्ध नहीं होता, अविपतु इसके स्थान पर यह कहा गया है विक आपत्काल र्में ब्राह्मर्णा क्षवित्रय तथा वैश्य की वृक्षिर्त्त को भी अपना सकता है।* इसी प्रकार वक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र र्में भी गौतर्म के नार्म से यह विवचार व्य� विकया गया है विक यदि! कोई आविहताखिग्न यात्रा र्में र्मर जाए तो उसके सविपण्ड र्घास–फूस के पुतले का पुन!ा�ह करें, विकन्तु वत�र्मान गौतर्म धर्म�सूत्र र्में ऐसा कोई सूत्र नहीं है।गौतर्म धर्म�सूत्र र्में अनेक पाठ–भे! भी उपलब्ध होते हैं तथा कई पाण्डुक्तिलविपयों र्में कर्म�विवपाक पर एक पूरा प्रकरर्णा जोड़ दि!या गया, जिजस पर हर!र्त्त की व्याख्या नहीं है। इन प्रर्मार्णाों के आधार पर विवद्वानों की धारर्णाा है विक गौतर्म धर्म�सूत्र र्में सर्मय सर्मय पर अनेक परिरवत�न होते रहे हैं। कुन्!लाल शर्मा� जी का विवचार हैः– 'इस प्रकार के पाठ–भे! या प्रक्षेप कुर्मारिरल से पूव� ही विकए गए थे क्योंविक 'तन्त्र वार्भिर्त्त�क'* र्में इस प्रकार के पाठभे!ों की चचा� की गई है। मिर्मताक्षरा, स्रृ्मवितचजिन्द्रका तथा अन्य ग्रंथों र्में उद्धतृ इस रचना के अनेक सूत्र वत�र्मान संस्करर्णाों र्में उपलब्ध नहीं हैं।' गौतर्म धर्म�सूत्र का कालगौतर्म धर्म�सूत्र का काल ईसा पूव� 400–600 के पहले र्माना जाता है। इस अवधारर्णाा र्में हेतु यह है विक अनेक ग्रंथों र्में गौतर्म का उल्लेख प्राप्त होता है। जिजससे स्वतः क्तिसद्ध है विक गौतर्म धर्म�सूत्र उनसे पूव�वतb है। इसी प्रकार गौतर्म धर्म�सूत्र र्में भी अन्य साविहत्य का उल्लेख प्राप्त होता है। अतः इस सूत्रग्रंथ को उस साविहत्य से परवतb ही र्मानना होगा। !ोनों पक्ष इस प्रकार हैं–गौतर्म धर्म�सूत्र र्में विकसी भी धर्म�सूत्रकार के नार्म का उल्लेख प्राप्त नहीं होता, अविपतु 'इत्येके', 'एकाषार्म्', 'एके' आदि! शब्!ों के द्वारा ही अपने से पूव�वतb आचायK का उल्लेख इसर्में विकया गया है। गौतर्म धर्म�सूत्र* र्में र्मनु के नार्म से एक र्मत दि!या गया है।* गौतर्म धर्म�सूत्र की व्याख्या करते सर्मय र्मस्करी ने अपनी व्याख्या की पुमिn र्में अनेक उ!ाहरर्णा र्मनुस्र्मृवित से दि!ए हैं। शोधकों ने गौतर्म धर्म�सूत्र र्मथा र्मनुस्र्मृवित के

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प!ों र्में 500 से अमिधक सर्मानताए ंखोज लीं हैं तो भी इससे यह क्तिसद्ध नहीं होता विक वत�र्मान र्मनुस्र्मृवित गौतर्म धर्म�सूत्र का र्मुख्य स्त्रोत है।* गौतर्म धर्म�सूत्र* र्में ‘लोकवे!वे!ांगविवत्’ कहकर वे!–वे!ांग तथा* र्में ‘वाकोवाक्येवितहासपुरार्णाकुशलः’ कहकर पुरार्णा आदि! की चचा� भी की है। साथ ही गौतर्म धर्म�सूत्र* र्में उपविनष!–्वे!ान्त आदि! का उल्लेख भी विकया है।* इसी प्रकार 2–2–28 र्में विनरू�* की ओर भी संकेत हैं।* इन प्रर्मार्णाों के आधार पर गौतर्म धर्म�सूत्र इन ग्रंथों र्में से परवतb प्रतीत होता है। बौधायन धर्म�सूत्र र्में !ो बार गौतर्म का उल्लेख हुआ है।* सार्मवे! के श्रौतसूत्र लाट्यायन* एवं द्राह्यायर्णा* भी गौतर्म को उद्धतृ करते हैं। सार्मवे!ीय गोक्षिभलगृह्यसूत्र* भी गौतर्म धर्म�सूत्र को प्रार्माक्षिर्णाक र्मानता है। वक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र* र्में गौतर्म को उद्धतृ विकया गया है। गौतर्म धर्म�सूत्र का 19 वां अध्याय ही वक्तिसष्ठ धर्म�सूत्र र्में 22 वें अध्याय के रूप र्में है। र्मनुस्र्मृवित* र्में गौतर्म को उतथ्य का पुत्र कहा गया है तथा याज्ञवल्क्य–स्र्मृवित र्में* गौतर्म की गर्णाना धर्म�शास्त्रों र्में की गई है। शंकराचाय� ने वे!ान्तसूत्र–भाष्य* र्में गौतर्म धर्म�सूत्र* को उद्धतृ विकया है।* इन प्रर्मार्णाों के आधार पर गौतर्म धर्म�सूत्र इन रचनाओं के प�ात् ठहराता है। डॉ. जॉली गौतर्म धर्म�सूत्र को आपस्तम्ब धर्म�सूत्र से शताखिब्!यों पूव� र्मानते हैं।* र्म. र्म. कार्णाे का विवचार है विक गौतर्म धर्म�सूत्र के सर्मय पाक्षिर्णाविन का व्याकरर्णा या तो था ही नहीं और यदि! था तो वह अपनी र्महर्त्ता स्थाविपत नहीं कर सका था। विनष्कष� स्वरूप गौतर्म धर्म�सूत्र का रचना काल 600 ई. पू. र्में रखा जा सकता है। गौतर्म धर्म�सूत्र र्में वर्भिर्णा�त विवषयों की सूची इस प्रकार है– प्रथर्म प्रश्नःप्रथर्म अध्याय – धर्म�, उपनयन, शुजिद्ध–प्रकरर्णा, छात्रों के विनयर्म। विद्वतीय अध्याय – ब्रह्चारी के विनयर्म, आचरर्णा और विनषेध। तृतीय अध्याय – गृहस्थाश्रर्म, सन्यास और वानप्रस्थ के विनयर्म। चतुथ� अध्याय – गृहस्थ का धर्म�, विववाह और पुत्रों के प्रकार। पंचर्म अध्याय – पंच र्महायज्ञ और र्मधुपक� । षष्ठर्म अध्याय – अक्षिभवा!न के विनयर्म और व्यक्ति�यों के प्रवित आचरर्णा। सप्तर्म अध्याय – गुरुसेवा और ब्राह्मर्णा के कर्त्त�व्य। अnर्म अध्याय – राजा और बहुश्रुत संस्कार। नवर्म अध्याय – व्रत और आचरर्णा के !ैविनक विनयर्म। विद्वतीय प्रश्नप्रथर्म अध्याय – चारों वर्णाK के कर्त्त�व्य। विद्वतीय अध्याय – राजा के कर्त्त�व्य और धर्म�–विनर्णा�य की प्रविक्रया। \ तृतीय अध्याय – अपराध और उनके !ण्ड, ब्याज, ऋर्णा। चतुथ� अध्याय – विववा! और उनके विनर्णा�य, साक्षी और व्यवहार, सत्यभाषर्णा, न्यायकर्त्ता�। पंचर्म अध्याय – रृ्मत्यु और जन्र्मविवषयक अशौच। षष्ठर्म अध्याय – श्राद्धकर्म�। सप्तर्म अध्याय –वे!ाध्ययन की विवमिध और अनध्याय। अnर्म अध्याय – भक्ष्य और पेय प!ाथ�। नवर्म अध्याय – स्त्री के धर्म�। तृतीय प्रश्नप्रथर्म अध्याय – प्रायक्षि�र्त्त। विद्वतीय अध्याय – त्याज्य व्यक्ति�। तृतीय अध्याय – पातक और र्महापातक। चतुथ� अध्याय से सप्तर्म अध्याय – प्रायक्षि�र्त्त। अnर्म अध्याय – कृच्छ्र व्रत। नवर्म अध्याय – चान्द्रायर्णा व्रत और !शर्म अध्याय – सम्पक्षिर्त्त का विवभाजन। प्रवितपाद्य का विवश्लेषर्णाप्रायः सभी धर्म�सूत्रों का प्रवितपाद्य र्मनुष्य के व्यक्ति�गत तथा सार्माजिजक आचार एवं कर्त्त�व्य हैं। गौतर्म धर्म�सूत्र र्में भी इनके सम्बन्ध र्में विवश! विववेचन विकया गया है। अन्य धर्म�सूत्रों के सर्मान गौतर्म धर्म�सूत्र र्में भी र्मुख्यतः वर्णाK एवं आश्रर्मों के विनयर्मों तथा वर्णाK के !ैविनक धर्म�कृत्यों का विवधान विकया गया है। वर्णाा�श्रर्म–व्यवस्था को गौतर्म धर्म�सूत्र अत्यंत र्महत्व प्र!ान करता है, यहाँ तक विक इसर्में वर्णाा�श्रर्म से हीन, अपविवत्र तथा पविततों के साथ सम्भाषर्णा का भी विनषेध है। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वैखानस तथा क्षिभकु्ष के रूप र्में गौतर्म ने र्मनुष्य जीवन को चार आश्रर्मों र्में विवभ� करके चारों आश्रर्मवाक्तिसयों के कर्त्त�व्यों के विवस्तार से उल्लेख विकया है। गौतर्म गृहस्थाश्रर्म को र्महत्व !ेते हैं, क्योंविक सभी आश्रर्म इसी के आक्षिश्रत हैं। अन्य आश्रर्मों के अन्ग्रत क्षिभकु्ष नार्म से सन्यासाश्रार्म को गौतर्म र्महत्वपूर्णा� र्मानते हैं। वानप्रस्थ या वैखानस गृहस्थ तथा सन्यास के बीच की कड़ी है। गौतर्म ने उन सभी आश्रर्मों के कर्त्त�व्यादि! के विवषय र्में विवस्तार से विवचार विकया है। अवितक्तिथ–सत्कार आश्रर्म–व्यवस्था के अन्तग�त गौतर्म ने अवितक्तिथ–सत्कार को बहुत र्महत्व दि!या है। गौतर्म धर्म�सूत्र* के अनुसार सन्यासी को भी अवितक्तिथ सेवा करनी चाविहए तथा गृहस्थ को ‘!ेवविपतृर्मनुष्यर्तिष�पूजक’ होना चाविहए। दुःखी, रोगी, विनध�न और विवद्याथb की सहायता करना गृहस्थ का परर्म धर्म� है। उसे अवितक्तिथ, बालक, रोगी, स्त्री, वृद्धों, सेवकों को भोजन !ेकर स्वयं भोजन करना चाविहए। गृहस्थ–धर्म� के पालनाथ� गौतर्म ने पांच

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र्महायज्ञों का विवधान विकया है।* इसके साथ ही इस धर्म� की शुद्धता के क्तिलए अनेक विनयर्म भी बनाए हैं। आश्रर्म–धर्म� के प्रसंग र्में गौतर्म धर्म�सूत्र र्में !या, क्षर्मा, परविनन्!ाराविहत्य आदि! र्मानवीय गुर्णाों पर बल दि!या गया है।[3] !ान इन गरु्णाों के साथ !ान !ेने का विवधान भी यहाँ पर विकया गया है, विकन्तु गौतर्म धर्म�सूत्र* के अनुसार !ान पात्र की योग्यता के अनुसार !ेना चाविहए। गौतर्म का सत्यभाषर्णा तथा सत्य आचरर्णा पर बहुत बल है। सभी के क्तिलए यह अविनवाय� है। इसीक्तिलए सत्य भाषर्णा को र्महान तप कहा गया है। सत्य बोलने से स्वग� तथा असत्य भाषर्णा से नरक प्रान्तिप्त की बात भी कही गई है। इन गुर्णाों के साथ र्मनुष्य को अहिह�सक, र्मृदु, सविहष्र्णाु, क्षर्माशील भी होना चाविहए। इस प्रकार गौतर्म धर्म�सूत्र र्में व्यक्ति�गत तथा सार्माजिजक जीवन को श्रेष्ठ बनाने का प्रयत्न विकया गया है। इसके साथ गौतर्म यह भी जानते हैं विक व्यक्ति� अपनी स्वाभाविवक कर्मज़ोरी के कारर्णा कुपथ र्में प्रवृर्त्त हो जाता है। कभी–कभी पूरे सर्माज र्में ही अनैवितकता व्याप्त हो जाती है, विकन्तु यदि! यत्न विकया जाए तो ये दुब�लताए ँ!ेर हो सकती हैं। इसक्तिलए गौतर्म धर्म�सूत्र र्में !ण्ड स्वरूप अनेक प्रकार के प्राय�र्त्तों का विवधान विकया गया है जिजनसे व्यक्ति� शुद्ध होकर पुनः शे्रष्ठ जीवन व्यतीत कर सकता है। इस ग्रंथ र्में कहीं कहीं र्मांस–भक्षर्णा का उल्लेख भी मिर्मलता है, विकन्तु वह प्रक्षिक्षप्त प्रतीत होता है। चारों वर्णा� गौतर्म धर्म�सूत्र र्में आश्रर्म–व्यवस्था के साथ वर्णा�–व्यवस्था पर भी पया�प्त प्रकाश डाला गया है। इस प्रसंग र्में ब्राह्मर्णा को सव¹परिर स्थान प्र!ान विकया गया है। ब्राह्मर्णा, क्षवित्रय, वैश्य तथा शूद्र के रूप र्में चारों वर्णाK के कर्त्त�व्य एवं अमिधकारों का यहाँ अच्छा विववेचन विकया गया है। वर्णा�–व्यवस्था के सुचारू संचालनाथ� यहाँ पर सवर्णा� विववाह को ही र्मान्यता प्र!ान की गई है। यदि! कोई असवर्णा� विववाह करता है तो उसकी सन्तान वर्णा�संकर कहलाएगी। यहाँ पर यह भी कहा गया है विक विनरन्तर सात पीदिढ़यों तक चलने वाली वर्णा�संकर सन्तान भी अपने अपने कायK के आधार पर उत्कृn वर्णा� या विनष्कृV वर्णा� की हो जाती है। प्रायक्षि�र्त्त, अपराध, !ण्ड, र्मृत्यु तथा जन्र्मविवषयक अशौच भी वर्णाा�नुसार ही विनधा�रिरत विकए गए हैं। सम्भवतः ब्राह्मर्णा को उसकी विवद्वता तथा श्रेष्ठ आचरर्णा के कारर्णा ही बंधनों से र्मु� रखा गया होगा। इसक्तिलए गौतर्म धर्म�सूत्र* र्में ‘त!पेक्षस्तद्वकृ्षिर्त्तः’ कहा गया है। गौतर्म धर्म�सूत्र र्में शूद्रों की स्थिस्थवित अच्छी नहीं दि!खाई !ेती है। उनके क्तिलए धार्मिर्म�क संस्कार विवविहत नहीं हैं तथा केवल गृहस्थाश्रर्म ही उनके क्तिलए विवविहत है। शूद्र का यही धर्म� बतलाया गया है विक वह उच्च वर्णा� के लोगों की सेवा करे। नारी को र्महत्व गौतर्म धर्म�सूत्र र्में नारी को पया�प्त र्महत्व दि!या गया है, क्योंविक वह सन्तान की जननी है। उसे श्रेष्ठ आचाय� कहा गया है। यद्यविप गृहसम्बन्धी तथा धार्मिर्म�क कायK र्में गृविहर्णाी तथा सहधर्मिर्म�र्णाी के रूप र्में वह प्रवितमिष्ठत प! पर आसीन है तथाविप उसे धर्म� के विवषय र्में अस्वतन्त्र कहा है। कन्या का विववाह र्माता–विपता के अधीन है विकन्तु यदि! वे सर्मय पर कन्या का विववाह नहीं करते, तो वह स्वयं अनुकूल युवक से विववाह कर सकती है। स्त्री के क्तिलए पावितव्रत्य धर्म� अविनवाय� है। अपने पवित के अवितरिर� उसे विकसी और के विवषय र्में सोचना भी नहीं चाविहए। अनैवितक यौन सम्बन्धों के क्तिलए कठोरतर्म !ण्ड का विवधान विकया गया है। गौतर्म धर्म�सूत्र र्में !ासी के रूप र्में नारी का विनम्न स्वरूप ही दृमिnगोचर होता है। एक सूत्र* र्में तो यहाँ तक कह दि!या गया विक !ासी यदि! विकसी पुरुष के पास बन्धक रखी गई है तो वह उसका उपभोग कर सकता है। इस कथन का औक्तिचत्य गौतर्म धर्म�सूत्र के Vीकाकार हर!र्त्त ने यह कहकर बतलाया है विक पास रखी उपभोग्य वस्तु पर कोई व्यक्ति� कब तक संयर्म रख सकता है? हर!र्त्त का यह कथन नैवितकता की सीर्मा का उल्लंर्घन करता है। कारर्णा कुछ भी हो, यह स्थिस्थवित सर्माज की हीन अवस्था की सूचक है। राज्य–व्यवस्था गौतर्म धर्म�सूत्र र्में राज्य–व्यवस्था पर भी प्रकाश डाला गया है। गौतर्म* के अनुसार प्राक्षिर्णार्मात्र की रक्षा करना तथा न्यायपूव�क !ण्ड !ेकर प्रजा को सुपथ र्में रखना राजा का कर्त्त�व्य है। राजा विवद्वान तथा स!ाचारी ब्राह्मर्णा की सहायता से राजकाय� करता है। धर्म�सूत्रों र्में राजा विनरंकुश नहीं है। उसके न्याय की प्रविक्रया भी जन–तान्तिन्त्रक है। राज्य र्में ब्राह्मर्णा धर्म� का विवधान करने वाला तथा राजा उसका पालन कराने वाला है।* इस प्रकार गौतर्म धर्म�सूत्र र्में एक बहुत ही सर्मन्वयपूर्णा� लोक–व्यवस्था का प्रवितपा!न विकया गया है। सर्माज के विवक्षिभन्न वगK के प्रायः सभी प्रकार के कर्त्त�व्यों का विनधा�रर्णा करके सर्माज को सही दि!शा !ेने का प्रयत्न यहाँ पर विकया गया है जिजससे सर्माज उन्नवित कर सके तथा लोगों र्में पे्रर्म, न्याय, !या, परोपकार आदि! गुर्णाों की वृजिद्ध हो। संके्षप र्में कहा जाए तो गौतर्म ने अपने धर्म�सूत्र के र्माध्यर्म से समू्पर्णा� सर्माज को ही नवैितक एवं सार्माजिजक दृमिn से विनयन्तिन्त्रत करने का प्रयत्न विकया है। व्याख्याकारहर!र्त्त – इस धर्म�सूत्र पर हर!र्त्त ने मिर्मताक्षरा नार्म की Vीका क्तिलखी है जो उपलब्ध है हर!र्त्त का सर्मय 1100–1300 ई. के र्मध्य स्वीकार विकया जाता है। भर्त्तृ�यज्ञ – ये गौतर्म धर्म�सूत्र के प्राचीन व्याख्याकार हैं जिजनका उल्लेख कई लोगों ने विकया है। इनकी व्याख्या इस सर्मय पर उपलब्ध नहीं है। इनका काल 800 ई. से पूव� का र्माना जाता है। असहाय – अद्भतु सागर के लेखक अविनरुद्ध तथा भाष्यकार विवश्वरूप ने सूक्तिचत विकया है विक असहाय ने भी गौ. ध. सू. पर भाष्य क्तिलखा था। र्मेधावितक्तिथ ने विवश्वरूप का उल्लेख विकया है। अतः इनका काल 750 ई. से उर्त्तरवतb नहीं है। र्मस्करी – कल्पतरू के र्मोक्ष काण्ड र्में र्मस्करी को गौ. ध. सू. का व्याख्याता कहा गया है। वेंकVनाथ की शतदूषर्णाी (पृ. 64) र्में भी ऐसा ही कहा गया है। वहाँ इसे ‘सव�स्र्मृवित विनबन्धन’ का नार्म दि!या गया है।

आपस्तम्ब धर्म�सूत्र / Apstamb Dharmsutra अनुक्रर्म1 रक्तिचयता

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2 Vीकाएँ 3 भाषा एवं शैली 4 सर्मय 5 विवषयवस्तु 5.1 –प्रश्न 1 5.2 –प्रश्न 2 6 सार्माजिजक अवस्था 7 वर्णा� अवस्था 8 आश्रर्म अवस्था 9 ब्रह्मचय� 10 गृहस्थाश्रर्म 11 विववाह 12 सन्यास 13 वानप्रस्थ 14 !ण्ड विवधान 15 उर्त्तरामिधकार 16 नवैितक दृमिnकोर्णा 17 Vीका दिVप्पर्णाी और सं!भ�

आपस्तम्बीय कल्प के 30 प्रश्नों र्में से 28 वें तथा 29 वें प्रश्नों को आपस्तम्ब धर्म�सूत्र नार्म से अक्षिभविहत विकया जाता है। ये !ोनों प्रश्न 11–11 पVलों र्में विवभ� है, जिजनर्में क्रर्मशः 32 और 29 कस्थिण्डकायें प्राप्त हैं। रक्तिचयतायही एक कल्पसूत्र है जिजसकी श्रौत, गृह्य, धर्म� और शुल्बसूत्र यु� पूर्णा� कल्प–परम्परा उपलब्ध है; पर उन सभी का कर्त्ता� एक ही है या नहीं, यह कहना कदिठन है। र्महार्महोपाद्याय पाण्डुरंग वार्मन कार्णाे के र्मतानुसार गृह्यसूत्र और धर्म�सूत्र इन !ोनों के प्ररे्णाता एक ही हैं। स्र्मृवितचजिन्द्रका इन !ोनों को ही एक ग्रन्थकार की कृवित र्मानती है। ब्यूह्लर तथा फूय्हरर् को भी इस विवषय र्में कोई शंका नहीं है।* विकन्तु ओले्डनबग� के अनुसार आपस्तम्ब श्रौतसूत्र तथा आपस्तम्ब धर्म�सूत्र के रक्तिचयता क्षिभन्न–क्षिभन्न व्यक्ति� हैं।* बौधायन धर्म�सूत्र के कई अंशों का आपस्तम्ब धर्म�सूत्र से सादृश्य हैं विकन्तु यह कहना कदिठन है विक विकसने विकसकी सार्मग्री ली है। र्महार्महोपाद्याय कारे्णा आपस्तम्ब धर्म�सूत्र को बौधायन से परवतb र्मानते हैं। इस विवषय र्में बनजb ने सु!ीर्घ� आलोचना की है। इससे ज्ञात होता है विक उन्होंने !ोनों गं्रथों की र्मन्त्र–सम्पक्षिर्त्त की तुलनात्र्मक सर्मीक्षा की है। आपस्तम्ब धर्म�सूत्र का सम्बन्ध !क्षिक्षर्णा भारत से प्रतीत होता है, क्योंविक चरर्णा–व्यूहगत 'र्महार्णा�व' नार्मक रचना से उद्धतृ पद्यों के अनुसार आपस्तम्ब शाखा नर्म�!ा के !क्षिक्षर्णा र्में प्रचक्तिलत थी।[1] स्वयं आपस्तम्ब ने धर्म�सूत्रगत श्राद्ध के प्रकरर्णा र्में ब्राह्मर्णाों के हाथ र्में जल विगराने की प्रथा 'उर्त्तर के लोगों र्में' प्रचक्तिलत है, ऐसा कहकर !क्षिक्षर्णा भारतीय होने का परिरचय दि!या है। इस विवषय र्में उल्लेखनीय तथ्य तो यह है विक आपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में तैक्षिर्त्तरीय आरण्यक के जिजन र्मन्त्रों का विन!�श है, वे आन्ध्रपाठ से ही गृहीत हैं। इसी आधार पर ब्यूह्लर आपस्तम्ब को आन्ध्र–प्र!ेशीय र्मानते हैं।* Vीकाएँहर!र्त्त ने आपस्तम्ब धर्म�सूत्र से सम्बन्धिन्धत !ोनों प्रश्नों को 11–11 पVलों र्में विवभ� करके उज्जवलावृक्षिर्त्त नाम्नी Vीका का प्रर्णायन विकया है। हर!र्त्त के अवितरिर� एक और भाष्यकार का उल्लेख कार्णाे ने विकया है, वह है धूत�स्वार्मी। शंकर ने भी आपस्तम्ब धर्म�सूत्र के अध्यात्र्मविवषयक !ो पVलों पर भाष्य क्तिलखा है।* बम्बई संस्कृत सीरीज र्में ब्यूह्लर द्वारा हर!र्त्त की उज्जवला Vीका के अंशों सविहत तथा कुम्भकोर्णार््म संस्करर्णा र्में सम्पूर्णा� हर!र्त्तीय Vीका तथा ब्यूह्लरकृत भूमिर्मका सविहत आंग्ल अनुवा! 'सैके्रड बुक ऑफ दि! ईस्V' (भाग–2) र्में प्रकाक्तिशत हुआ है। भाषा एवं शैलीआपस्तम्ब धर्म�सूत्र भाषा एवं शैली की दृमिn से सभी धर्म�सूत्रों से विवलक्षर्णा है। भाषा की दृमिn से ब्यूह्लर ने इस सूत्र की भाषा से सम्बन्धिन्धत असंगवितयों को चार वगK र्में रखा है। प्राचीन वैदि!क शब्!रूप जो अन्य वैदि!क रचनाओं र्में सर्मुपलब्ध है तथा जिजनकी व्युत्पक्षिर्त्त सादृश्य के आधार पर हुई। प्राचीन व्याकरर्णा रूप जो पाक्षिर्णाविन के व्याकरर्णा की अपेक्षा शुद्ध है विकन्तु अन्यत्र उपलब्ध नहीं होते। ऐसे शब्! रूप जो पाक्षिर्णाविन और वैदि!क व्याकरर्णा के विनयर्मों के विवरुद्ध हैं। वाक्य–संरचनागत असंगवितयाँ। आपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में कुछ अप्रचक्तिलत शब्! प्राप्त होते हैं जैसे विकः– अनविनयोगवु्यपती!, वु्यपजाव, ब्रह्महंसस्तुत, पया�न्त, प्रशास्त, अनात्युत, ब्रह्मोज्झर्म, श्वाविव!,

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षे्ठवन, आचाय�!ारे। इन अप्रचक्तिलत और अपाक्षिर्णानीय प्रयोगों के कारर्णा इस सूत्र के विवषय र्में !ो धारर्णाायें विवद्वानों के र्मध्य र्में दृमिnगोचर होती हैं– आपस्तम्ब पाक्षिर्णाविन से अपरिरक्तिचत थे, उनके सर्मकालीन थे अथवा उनके पूव�वतb थे। आपस्तम्ब धर्म�सूत्र के र्मौक्तिलक पाठ र्में और असंगवितयाँ रही होंगी। र्महार्महोपाद्याय कार्णाे ने भी इससे सहर्मवित व्य� की है।* शैली की दृमिn से यही कहा जा सकता है विक इस सूत्र र्में अमिधकांश सूत्र गद्य र्में हैं विकन्तु इसर्में प्रायः पद्यों का प्रयोग भी सर्मुपलब्ध है। इसर्में प्राप्य सूत्र क्तिशक्तिथल तथा अस्पn हैं तथा इनकी शैली ब्राह्मर्णाों की शैली के सर्मीपतर प्रतीत होती है। सर्मयआपस्तम्ब धर्म�सूत्र के सर्मय विवषय र्में ब्यूह्लर का कथन है विक इसका सर्मय ईसा से 150–200 वष� या इससे भी पूव� र्मानना उक्तिचत है, विकन्तु र्महार्महोपाद्याय कारे्णा ने 700–300 ई. पू. के बीच का सर्मय र्माना है।* विवषयवस्तुआपस्तम्ब धर्म�सूत्र के वण्य� विवषयों का संक्षेपतः वर्णा�न इस प्रकार है– प्रश्न–1धर्म� के स्त्रोत, चातुव�ण्य, उपनयन का वर्णाा�नुसार सर्मय–विववेचन, उपयु� सर्मय पर उपनयन व्रत न करने पर प्रायक्षि�र्त्त, ब्रह्मचारी के संस्कार, 48, 36, 25 तथा 12 वषK का ब्रह्मचय�, !ण्ड, अजिजन और रे्मखला आदि! तथा क्षिभक्षा के विनयर्म, समिर्मधानयन, ब्रह्मचारी के व्रत, स्नातक के धर्म�, अनध्याय, स्वाध्याय की विवमिध, पञ्चर्महायज्ञ, वर्णाा�नुसार कुशलके्षर्म पूछने के विनयर्म, यज्ञोपवीत–धारर्णा के अवसर, आचर्मन का काल तथा विवमिध, भक्ष्याभक्ष्य–विवचार, आपत्काल के अवितरिर� काल र्में ब्राह्मर्णा के क्तिलए वक्षिर्णाक–व्यापार का विनषेध, पतनकारक तथा अशुक्तिचकर कर्म�, ब्रह्मविवषयक अध्यात्र्म–चचा�, परर्म प! की प्रान्तिप्त र्में सहायक सत्य, शर्म, !र्म आदि! का वर्णा�न; क्षवित्रय, वैश्य, शूद्र और स्त्री की हत्या का विनराकरर्णा, ब्राह्मर्णा, आत्रेयी, ब्राह्मर्णा स्त्री, गुरु तथा क्षवित्रय की हत्या से सम्बन्धिन्धत प्रायक्षि�र्त्त कृत्य, गुरुतल्पगर्मन, सूरापान तथा स्वर्णा�स्तेय के क्तिलए प्रायक्षि�र्त्त कृत्य, पशु–पक्षिक्षयों की हत्या तथा अभत्स�नीय की भत्स�ना, शूद्रा गर्मन, अभक्ष्य–भक्षर्णा के प्रायक्षि�र्त्त, द्वा!शरावित्र पय�न्त सम्पन्न विकए जाने वाले कृच्छ्र के विनयर्म, पवित, गुरु तथा र्माता के प्रवित व्यवहार, परस्त्री–गर्मन के क्तिलए प्रायक्षि�र्त्त, आत्र्मरक्षाथ� ब्राह्मर्णा के क्तिलए शस्त्रग्रहर्णा वज�ना, अक्षिभशस्त का प्रायक्षि�र्त्त, विवविवध स्नातकों के व्रत। प्रश्न–2पारिरग्रहर्णा के साथ गृहस्थ धर्म� का प्रारम्भ, गृहस्थ के क्तिलए भोजन और उपवास, स्त्री गर्मन आदि! के विनयर्म, विवक्षिभन्न वर्णाK से सम्बन्धिन्धत कर्त्त�व्य–अकर्त्त�व्य, क्तिसद्ध अन्न की बक्तिल, अवितक्तिथ सत्कार, ब्राह्मर्णा गुरु के अभाव र्में ब्राह्मर्णा का क्षवित्रय या वैश्य गुरु से क्तिशक्षा–ग्रहर्णा, र्मधुपक� के विनयर्म, वैश्व!ेव बक्तिल, भृत्यों के प्रवित उ!ार व्यवहार, ब्राह्मर्णा आदि! के विवक्तिशn कर्म�, युद्ध के विनयर्म, राजपुरोविहत के गुर्णा, अपराध के अनुरूप !ण्ड विवधान, ब्राह्मर्णा की हत्या एवं !ासत्व का विनषेध, र्माग� र्में चलने के विनयर्म, धर्म� और अधर्म� के परिरर्णाार्म स्वरूप उत्थान और पतन। धार्मिर्म�क कृत्यों र्में सुक्षर्म तथा सन्तानवती प्रथर्म पत्नी के रहते विद्वतीय विववाह का विनषेध, षड्विवध विववाह, सवर्णा� पत्नी के पुत्रों का पैतृक सम्पक्षिर्त्त र्में अमिधकार, विपता का विनर्णा�य, सन्तान के व्यापार का विनषेध, विपता के जीविवत रहते पैतृक सम्पक्षिर्त्त का सर्म–विवभाजन, पागलों–नपंुसकों तथा पाविपयों को सम्पक्षिर्त्त के अमिधकार का विनषेध, पुत्राभाव र्में सम्पक्षिर्त्त का अमिधकारी, ज्येष्ठ पुत्र को अमिधक सम्पक्षिर्त्त प्र!ान करने की अवैदि!कता। पवित–पत्नी के बीच सम्पक्षिर्त्त–विवभाजन का विनषेध। सम्बन्धिन्धयों तथा सगोवित्रयों की रृ्मत्यु पर अशौच–विवचार। श्राद्ध र्में भक्ष्याभक्ष्य का विवचार। श्राद्धभोजी ब्राह्मर्णाों के लक्षर्णा आश्रर्म–व्यवस्था, सन्यासी और वानप्रस्थ के विनयर्म, नृप के कर्त्त�व्य। राजधानी, राजप्रासा! तथा सभा की स्थिस्थवित, चोरों का प्रवासन, ब्राह्मर्णा को द्रविवर्णा तथा भू!ान; श्रोवित्रय न्धिस्त्रयों, सन्याक्तिसयों तथा विवद्यार्चिथ�यों की कर–र्मुक्ति�। परस्त्रीगर्मन के क्तिलए विवविहत प्रायक्षि�र्त्त कृत्य, नरहत्या तथा अक्षिभकुत्सन के क्तिलए !ण्ड का विवधान, आचार–विनयर्मों का उल्लंर्घन करने पर !ण्ड, विववा!ों का विनर्णा�य, संदि!ग्ध विववा!ों र्में अनरु्मान या दि!व्य परीक्षा का प्रर्मार्णा। मिर्मथ्या साक्ष्य का !ण्ड, न्धिस्त्रयों तथा शूद्रों के ग्रहर्णा करने योग्य धर्म�। आपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में एक ऐसा सूत्र है जो र्मीर्मांसा के विवक्षिभन्न क्तिसद्धान्तों तथा पारिरभाविषक शब्!ों से ओतप्रोत है– 'यथा–शु्रवितर्तिह� बलीयस्यानुर्माविनका!ाचारात्* विवरोधे त्वनपेक्ष्यं स्या!सवित ह्यनुर्मानर्म्।'* अङ्गानां तु प्रधानैरव्यप!ेश इवित न्यायविवत्सर्मयः।[2] अथाविप विनत्यानुवा!र्मविवमिधर्माहुन्या�यविव!ः,* अथ�वा!ो वा विवमिधशेषत्वात् तस्र्मामिन्नत्यानुवा!ः।* इससे यह स्पn ही है विक आपस्तम्ब के सर्मय र्में र्मीर्मांसा शास्त्र पूर्णा� विवकक्तिसत था। सार्माजिजक अवस्थाआपस्तम्ब धर्म�सूत्र की सार्माजिजक अवस्था अत्यन्त सरल तथा प�ात् कालीन स्थिक्लnताओं से रविहत थी।* आपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में सू! लेने पर प्रायक्षि�र्त्त कृत्य का विवधान विकया गया है।* कुसी!क के यहाँ भोजन करने का प्रवितषेध विकया गया है।* इस सूत्र र्में पैशाच एवं प्राजापत्य विववाहों को उक्तिचत नहीं र्माना गया है।* झूठी सौगन्ध खाने वाले के विनमिर्मर्त्त कठोर !ण्ड का विवधान विकया गया है।* इसर्में अपराधों के क्तिलए अथ�!ण्ड की चचा� नहीं की गई है, अविपतु नरक तथा नारकीय प्रताड़नाओं पर अमिधक बल दि!या गया है। वर्णा� अवस्थाआपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में धर्म� की व्याख्या के अन्तग�त प्रथर्म विववेच्य विवषय वर्णा� ही है। तुच्छ से तुच्छ कृत्यों र्में वर्णा� के आधार पर क्षिभन्नता सव�त्र स्पn रूप से दृमिnगोचर होती है। यज्ञोपवीत का सर्मय, अवस्था, र्मेखला, वस्त्र, !ण्ड तथा क्षिभक्षाचरर्णा की विवमिध सभी के विनमिर्मर्त्त वर्णा� का विवचार अविनवाय� है। उपनयन का विवधान केवल तीन उच्च वर्णाK के क्तिलए विकया गया है। शूद्र तथा दुnकर्म� र्में विनविहत व्यक्ति� के क्तिलए उपनयन (वे!ाध्ययन) का कोई विवधान नहीं है।* शूद्र के क्तिलए केवल सेवाकर्म� ही विवविहत है। उच्च वर्णा� की सेवा करके ही वह पुण्यफल का भागी!ार होता है। आश्रर्म अवस्था

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जिजस प्रकार अच्छी प्रकार जोते हुए खेत र्में पौधों और वनस्पवितयों के बीज अनेक प्रकार के फल उत्पन्न करते हैं, उसी प्रकार गभा�!ान आदि! संस्कारों से यु� व्यक्ति� भी उर्त्तर्म फल का भागी!ार होता है। ब्रह्मचय�आपस्तम्ब धर्म�सूत्र के अनुसार ब्रह्मचारी के र्मुख्यतः तीन प्रकार के कृत्य हैं – गुरु को प्रसन्न करने वाले कृत्य, कल्यार्णाकारी कृत्य तथा वे! का स्वाध्याय।* समिर्म!ाधान तथा क्षिभक्षाचरर्णा भी ब्रह्चारी के क्तिलए अत्यावश्यक हैं। गृहस्थाश्रर्मआपस्तम्ब धर्म�सूत्र के अनुसार गृहस्थ के क्तिलए अवितक्तिथ सत्कार विनत्य विकया जाने वाला एक प्राजापत्य यज्ञ है।* बक्तिलकर्म� के प�ात् गृहस्थ को सव�प्रथर्म अवितक्तिथयों को, उसके प�ात् बालकों, वृद्धों, रोविगयों, सम्बन्धिन्धयों तथा गभ�वती न्धिस्त्रयों को भोजन कराना चाविहए। इसके अवितरिर� वैश्व!ेव–कर्म�, विपतृकर्म� तथा श्राद्धकर्म� भी गृहस्थ के क्तिलए अविनवाय� है। विववाहआपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में विववाह के षड्भे!ों (ब्राह्म, आष�, !ैव, गान्धव�, आसुर और राक्षस) र्में से ब्राह्म, आष� तथा !ैव विववाह को श्रेष्ठ र्माना गया है तथा राक्षस, आसुर तथा गन्धव� विववाह को विनजिन्!त कहा गया है। इसके अवितरिर� गोत्र के विवषय र्में उस्थिल्लखिखत है विक अपने ही गोत्र के पुरुष के साथ पुत्री का विववाह नहीं करना चाविहए।[3] इस सूत्र र्में एकपत्नीत्व को प्रधानता !ी गई है।[4] सन्यासआपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में इस सूत्र के अनुसार सन्यासी को अखिग्न, गृह तथा सभी प्रकार के सुखों का परिरत्याग करके अल्पभाषर्णा करना चाविहए। इसके अवितरिर� उसे उतना ही क्षिभक्षाचरर्णा करना चाविहए जिजससे उसका जीवन विनवा�ह सम्भव हो। सन्यासी को दूसरों के द्वारा परिरत्य� वस्त्रों का ही प्रयोग करना चाविहए। वानप्रस्थआपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में सन्यासी के क्तिलए विवविहत विनयर्मों का ही वानप्रस्थ र्में प्रवेश करने वाले व्यक्ति� को विनवा�ह करना चाविहए। सन्यासी क्षिभक्षाचरर्णा के द्वारा जीवन विनवा�ह करता है लेविकन वानप्रस्थ को स्वयं विगरे हुए फल–पर्त्तों का भक्षर्णा करते हुए जीवन विनवा�ह करना चाविहए। !ण्ड विवधानआपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में व्यक्षिभचारी पुरुष की प्रजननेजिन्द्रय को कVवा !ेने का विवधान विकया गया है।* नरहत्या करने वाले व्यक्ति� को अन्धा कर !ेना चाविहए।* स्वर्णा� चोरी करने वाले व्यक्ति� को स्वयं अपना अपराध स्वीकार कर राजा से र्मृत्यु!ण्ड की प्राथ�ना करनी चाविहए। उर्त्तरामिधकारआपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में इस सूत्र के अनुसार विपता को जीविवत रहते ही अपने पुत्रों र्में अपनी सम्पक्षिर्त्त का विवभाजन कर !ेना चाविहए। नपुंसक, पागल और पातकी पुत्रों को विकसी भी प्रकार का अंश नहीं !ेना चाविहए। पुत्र न होने पर !ाय का भाग सविपण्ड को दि!या जाना चाविहए। पुत्रहीन व्यक्ति� की स्त्री सम्पक्षिर्त्त की अमिधकारर्णाी नहीं होती है। नवैितक दृमिnकोर्णागुरु की हत्या, गुरुपत्नी–गर्मन, सुवर्णा� की चोरी और सुरापान आदि! के क्तिलए इस सूत्र र्में अत्यन्त भयावह प्रायक्षि�र्त्त कृत्यों का विवधान विकया गया है। प्रचक्तिलत आकार की अपेक्षा श्रुवित को ही इसर्में प्रार्माक्षिर्णाक र्माना गया है।[5] आपस्तम्ब धर्म�सूत्र गत प्रथर्म प्रश्न के आठवें पVल को 'अध्यात्र्म पVल' के नार्म से अक्षिभविहत विकया गया है। इसर्में अक्षिभव्य� विवचार उपविनष!ों से प्रभाविवत हैं। इसके अन्तग�त योग पर विवशेष बल दि!या गया है। शंकर ने आपस्तम्ब धर्म�सूत्र के अध्यात्र्म–विवषयक !ो पVलों पर भाष्य क्तिलखा है।*

हारीत धर्म�सूत्र / Harit Dharmsutra हारीत की र्मान्यता अत्यन्त प्राचीन धर्म�सूत्रकार के रूप र्में हैं। बौधायन धर्म�सूत्र, आपस्तम्ब धर्म�सूत्र और वाक्तिसष्ठ धर्म�सूत्रों र्में हारीत को बार–बार उद्धत विकया गया है। हारीत के सवा�मिधक उद्धरर्णा आपस्तम्ब धर्म�सूत्र र्में प्राप्त होते हैं। तन्त्रवार्तित�क* र्में हारत का उल्लेख गौतर्म, वक्तिसष्ठ, शंख और क्तिलखिखत के साथ है। परवतb धर्म�शान्धिस्त्रयों ने तो हारीत के उद्धरर्णा पौनः पुन्येन दि!ये हैं, विकन्तु हारीत धर्म�सूत्र का जो हस्तलेख उपलब्ध हुआ है और जिजसका स्वरूप 30 अध्यायात्र्मक है, उसर्में इनर्में से बहुत से उद्धरर्णा नहीं प्राप्त होते हैं। धर्म�शास्त्रीय विनबन्धों र्में उपलब्ध हारीत के वचनों से ज्ञात होता है विक उन्होंने धर्म�सूत्रों र्में वर्भिर्णा�त प्रायः सभी विवषयों पर अपने विवचार प्रकV विकए थे। र्मनुस्रृ्मवित के व्याख्याकार कुल्लूक भट्ट के अनुसार हारीत धर्म�सूत्र का प्रारब्धिम्भक अंश इस प्रकार था –अथातो धर्म¥ व्याख्यास्यार्मः। श्रुवितप्रर्मार्णाकों धर्म�ः। शु्रवित� विद्वविवधा–वैदि!की तान्तिन्त्रकी च।'* नाक्तिसक (र्महाराष्ट्र) जनप! के इस्र्मालपुर नार्मक स्थान पर हारीत धर्म�सूत्र का एक हस्तलेख वार्मनशास्त्री को मिर्मला था जिजसर्में 30 अध्याय हैं। यह अत्यन्त भ्रn है और इसर्में उद्धतृांश भी नहीं मिर्मलते, इस कारर्णा कार्णाे प्रभृवित र्मनीविषयों ने इसकी प्रार्माक्षिर्णाकता पर सन्!ेह व्य� विकया है। हारीत धर्म�सूत्र र्में विनरूविपत विवषयों र्में र्मुख्य है– धर्म� का र्मुल स्त्रोत, उपकुवा�र्णा और नैमिष्ठक संज्ञक विद्वविवध ब्रह्चारी, स्नातक, गृहस्थ,

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आरण्यक (वानप्रस्थ) सन्यासी, भक्ष्या–भक्ष्य, जन्र्म और र्मृत्युजन्य अशौच, श्राद्ध, पविवत्र व्यवहार, पञ्चर्महायज्ञ, वे!ाध्ययन और अनध्याय, राजकर्म�, शासन–विवमिध, न्याय–व्यवहार विवमिध, न्धिस्त्रयों के कर्त्त�व्य, प्रायक्षि�र्त्त इत्यादि!। हारीत ने अnविवध विववाहों र्में क्षात्र और र्मानुष– ये !ोनों नार्म ऐसे दि!ए गए हैं, जो अन्यत्र नहीं मिर्मलते। अnविवध विववाहों के अन्तग�त आष� और प्राजापत्य का उल्लेख नहीं है। ब्रह्मवादि!नी न्धिस्त्रयों को वे!ाध्ययन का अमिधकार दि!या गया है। अक्षिभनय–वृक्षिर्त्त को र्घृर्णाा की दृमिn से !ेखा गया है और रंगकर्मb ब्राह्मर्णाों को !ेवकर्म� तथा श्राद्ध–दृमिn से विनविषद्ध बतलाया गया है। डॉ. कालन्! ने हारीत धर्म�सूत्र र्में रै्मत्रायर्णाी संविहता का 'भगवान् र्मैत्रायर्णाी' के रूप र्में आ!रपूव�क उल्लेख !ेखकर इसका सम्बन्ध र्मैत्रायर्णाी संविहता के साथ स्थाविपत करने का प्रयत्न विकया है।* विकन्तु यह अभी विववा!ग्रस्त है। जीवानन्! के द्वारा सम्पादि!त धर्म�शास्त्र संग्रह र्में हारीत धर्म�शास्त्र को 'लर्घु हारीत स्र्मृवित' और 'वृद्ध हारीत स्र्मृवित' – इन !ो रूपों र्में प्रकाक्तिशत विकया गया है। लर्घु हारीत स्र्मृवित र्में सात अध्याय और 250 पद्य हैं। वृद्ध हारीत स्र्मृवित र्में आठ अध्याय और 2600 पद्य हैं। इस पर वैष्र्णाव सम्प्र!ाय का प्रभाव स्पn है। आनन्!ाश्रर्म–संस्करर्णा र्में इन्हीं आठ अध्यायों को 11 अध्यायों र्में विवभ� कर दि!या गया है। विहरण्यकेक्तिश धर्म�सूत्र / Hiranyakeshi Dharmsutraविहरण्यकेशविकल्प के 26 वें तथा 27 वें प्रश्नों की र्मान्यता धर्म�सूत्र के रूप र्में है, विकन्तु यह वास्तव र्में स्वतन्त्र कृवित न होकर आपस्तम्ब धर्म�सूत्र की ही पुनः प्रस्तुवित प्रतीत होती है। अन्तर केवल इतना है विक आपस्तम्ब धर्म�सूत्र के अनेक आष� प्रयोगों को इसर्में प्रचक्तिलत लौविकक संस्कृत के अनुरूप परिरवर्तित�त कर दि!या गया। उ!ाहरर्णा के क्तिलए आपस्तम्ब 'प्रक्षालयवित' और 'शक्ति�विवषयेर्णा' सदृश शब्! विहरण्यकेक्तिश धर्म�सूत्र र्में क्रर्मशः 'प्रक्षालयेत्' और 'यथाशक्ति�' रूप र्में प्राप्त होते हैं। सूत्रों के क्रर्म र्में भी क्षिभन्नता है। आपस्तम्ब के अनेक सूत्रों को विहरण्यकेक्तिश धर्म�सूत्र र्में विवभ� भी कर दि!या गया है। इस पर र्महा!ेव !ीक्षिक्षतकृत 'उज्ज्वला' वृक्षिर्त्त उपलब्ध है। संभवतः अभी तक इसका कोई भी संस्करर्णा प्रकाक्तिशत नहीं हो सका है। वैखानस धर्म�सूत्र / Vaikhanas Dharmsutraवैखानस श्रौत एवं गृह्यसूत्रों के प्रसंग र्में वैखानस (वैष्र्णाव) सम्प्र!ाय की विववेचना की जा चुकी है। इस धर्म�सूत्र र्में तीन प्रश्न हैं जिजनका विवभाजन 51 खण्डों र्में है। इनर्में 365 सूत्र मिर्मलते हैं। प्रवरखण्ड के 68 सूत्र इनसे पृथक हैं। प्रश्न–क्रर्म से प्रवितपाद्य विवषयों का विववरर्णा इस प्रकार हैः– प्रथर्म प्रश्न– चारों वर्णाK और आश्रर्मों के अमिधकारों तथा कर्त्त�व्यों का विनरूपर्णा। विद्वतीय प्रश्न– वानप्रस्थिस्थयों से सम्बद्ध अखिग्न, जिजसर्में इसी नार्म के अनुष्ठान सम्पन्न होते हैं, का विववरर्णा, सन्यासी के कर्त्त�व्यों तथा सन्यास–ग्रहर्णा विवमिध का विनरूपर्णा, सन्यासी के सार्मान्य आचारों का विवधान। तृतीय प्रश्न– गृहस्थ के विनयर्म, विनविषद्ध वस्तुए ँतथा कृत्य, वानप्रस्थ के सार्मान्य धर्म�, सन्यासी के सार्मान्य धर्म�, सन्यासी की र्मृत्यु पर नारायर्णा–बक्तिल, तप�र्णा इत्यादि!। विवष्र्णाु के नार्मों से विवविहत जावितयाँ, व्रात्य। इस धर्म�सूत्र र्में गायत्र, ब्राह्म, प्राजापत्य तथा नैमिष्ठक नार्मों से चार प्रकार के ब्रह्मचारी बतलाए गए हैं। ये हैं– शालीनवृक्षिर्त्त, वाता�वृक्षिर्त्त, यायावर तथा र्घोराचारिरक। इनर्में से पाकयज्ञ, !श�पूर्णा�र्मास तथा चातुर्मा�स्यादि! यागों के अनुष्ठाता शालीनवृक्षिर्त्त की श्रेर्णाी र्में हैं। कृविष से जीविवका विनवा�ह करने वाले वार्त्ता�–वृक्षिर्त्तपरक र्माने गए हैं। यायावर अध्ययन–अध्यापन तथा !ान–प्रवितग्रह प्रभृवित कर्मK से सम्बद्ध हैं। उञ्छवृक्षिर्त्त के द्वारा जीवन विनवा�ह करने वाले र्घोराचारिरक हैं।

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वानप्रस्थों के भी औदुम्बर, वैरस्थिञ्च, बालखिखल्य, फेनप, कालाक्तिशक, उद्दण्ड–संवृर्त्त, उ!ग्रफली, उञ्छवृक्षिर्त्त तथा सं!श�न–वृक्षिर्त्त इत्यादि! बहुसंख्यक प्रभे!ों का विनरूपर्णा है। र्मोक्षाथb क्षिभकु्षओं को भी चार प्रकार विनरूविपत हैं, ये हैं– कुVीचक, बहू!क, हंस तथा परर्महंस। वैखानस धर्म�प्रश्न र्में योग के आठ अंगों और आयुव�! के भी आठ अंगों का विववरर्णा है। अन्य धर्म�सूत्रों की अपेखा यह अवा�चीन रचना प्रतीत होती है। इसकी भाषा–शैली विवशुद्ध लौविकक संस्कृत है। अभी तक इस पर कोई भी व्याख्या उपलब्ध नहीं हुई है। इसके !ो संस्करर्णा प्रकाक्तिशत हुए हैं– सन् 1913 र्में वितरूअनन्तपुरर््म (वित्रवेन्द्रर्म) से Vी. गर्णापवित शास्त्री के द्वारा संपादि!त संस्करर्णा। डॉ. कालन्! के द्वारा संपादि!त तथा अंग्रेज़ी र्में अनूदि!त, विबस्थिब्लयोक्तिथका इस्थिण्डका, कलकर्त्ता से सन् 1927 र्में !ो भागों र्में प्रकाक्तिशत संस्करर्णा। विवष्रु्णा धर्म�सूत्र / Vishnu Dharmsutraविवष्र्णाु स्र्मृवित अथवा वैष्र्णाव धर्म�शास्त्र के रूप र्में भी यह प्रक्तिसद्ध है। इसर्में 100 अध्याय हैं जिजनर्में से कुछ अध्याय अत्यंत संक्षिक्षप्त हैं। उनर्में एक–एक पद्य और एक–एक सूत्र र्मात्र ही हैं। प्रथर्म और अन्तिन्तर्म अध्याय पूर्णा�तया पद्यात्र्मक हैं। इसर्में वर्भिर्णा�त विवषयों का विववरर्णा इस प्रकार हैः– उपक्रर्म–पृथ्वी का विवष्र्णाु के सर्मीप वर्णाा�श्रर्म धर्म� के उप!ेश–हेतु गर्मन, चारों वर्णाK और आश्रर्मों का विनरूपर्णा, राजधर्म�, काषा�पर्णा आदि!, अपराध और उनके क्तिलए !ण्ड, ऋर्णा लेने वाले तथा !ेने वाले, ब्याज !र, बन्धक, वित्रविवध व्यवहार–पत्र, साक्षी, दि!व्य परीक्षाए–ँतुला, अखिग्न, जल, विवष और कोष, 12 प्रकार के पुत्र, असवर्णा� विववाह, सन्तवित का जन्र्म तथा उसकी स्थिस्थवित, वर्णा�संकर, सम्पक्षिर्त्त–विवभाजन, संयु� परिरवार, पुत्रहीन की स्थिस्थवित, स्त्रीधन, विवक्षिभन्न वर्णाbय पन्धित्नयों से उत्पन्न सन्तानों र्में सम्पक्षिर्त्त–विवभाजन, अन्त्येमिn तथा शुजिद्ध, विववाह के प्रकार, नारी धर्म�, विवक्षिभन्न वगK की न्धिस्त्रयों र्में परस्पर ऊँच–नीच की स्थिस्थवित, संस्कार, ब्रह्मचारी व्रत, आचाय� प्रशंसा, वे!ारम्भकाल, अनध्याय, र्माता–विपता और आचाय� का सम्र्मान, अन्य सम्र्मान योग्य व्यक्ति�, पाप, विवविवध पातक, नरक, पापों से साध्य रोगादि!, कृच्छ्र, चान्द्रायर्णाादि!, वासु!ेव भ� का आचरर्णा, बहुविवध अपराध और उनके प्रायक्षि�र्त्त, अर्घर्मष�र्णाादि!, व्रात्यादि! के साहचय� का विनषेध, वित्रविवध धन, गृहस्थ के कर्त्त�व्य, आचार, पञ्चर्महायज्ञ आदि!, स्नातक के व्रत, आत्र्म संयर्म की प्ररोचना, श्राद्ध, गो!ानादि!, कार्भिर्त्त�क स्नान,

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!ान प्रशंसा, कूप, तडागादि! के विनर्मा�र्णा की प्रशंसा, वानप्रस्थ, सन्यास, शरीर विवज्ञान, एकाग्रता, पृथ्वी और लक्ष्र्मी के द्वारा वासु!ेव प्रशंसा, विवष्र्णाु धर्म�सूत्र का र्महात्म्य। विवष्र्णाु के गौरव से परिरपूर्णा� इस धर्म�सूत्र पर पौराक्षिर्णाक आचार–विवचारों का पुष्कल प्रभाव है। प्रतापरूद्र!ेवविवरक्तिचत ‘सरस्वतीविवलास’ से ज्ञात होता है विक इस पर भारूक्तिच की प्राचीन व्याख्या क!ाक्तिचत् थी, जो सम्प्रवित अनुपलब्ध है। सम्प्रवित केवल नन्! पस्थिण्डत प्रर्णाीत ‘वैजयन्ती’ व्याख्या ही प्राप्त होती है। इसके चार–पाँच संस्करर्णा इस सर्मय उपलब्ध हैं, जिजनका विववरर्णा इस प्रकार है– सन् 1881 र्में कलकर्त्ता से प्रकाक्तिशत जुक्तिलयस जॉली के द्वारा संपादि!त और अंग्रेज़ी र्में अनूदि!त तथा ‘वैजयन्ती’ सविहत संस्करर्णा। सैके्रड बुक्स ऑफ दि! ईस्V के सप्तर्म भाग र्में भी यही अनुवा! प्रकाक्तिशत है। जीवानन्! के द्वारा सम्पादि!त ‘धर्म�शास्त्र संग्रह’ के अन्तग�त प्रकाक्तिशत। 'विवष्र्णाुसंविहता' के रूप र्में पञ्चानन तक� रत्न के द्वारा संपादि!त ‘ऊनहिव�शवित संविहता’ के अन्तग�त प्रकाक्तिशत। र्मनसुखराय र्मोर के द्वारा प्रकाक्तिशत ‘स्र्मृवितसन्!भ�’ र्में विवष्र्णाुस्र्मृवित के रूप र्में उपलब्ध संस्करर्णा।


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