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भक्ति काल · Web viewइसक ब द वह स त मनर ग क प स...

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भभभभभ भभभ Posted by: सससससस- ससससससस सससससस on: October 29, 2007 In: 2 ससससस ससस Comment! ससससस ससससससस सस भभभभभ भभभ 1375 सस0 सस 1700 सस0 सस सससस सससस सस सस ससस सससससससस सस ससस सस सससससससस सससस ससससस ससससससस सस ससससससस ससस ससससससस ससससस ससससससस सस ससससससस ससस सस ससससस सससससस सस ससस ससस ससससससस सससस ससससससससस ससस ससससस सससस ससस सस सससससससस सससस सस ससससससस सस सस ससससससस सससस ससससससस सस सस सससस सससस ससस-सससस सससस सस ससससस सससससस ससससससससस सस सससससस सससससस ससस सससससससस सस सस सससससस ससस सससससस ससससससससससससस सससससस ससससससससससससससस सस सससससस ससस ससससससस ससससससस सससससससससस ससससससस सससस सस ससस सस सससस सससस सससससस सससससससससस ससससस सस ससससससस ससस ससस-ससस सस ससस सससस ससससससस ससससससस सस ससससससस सससससससससस सस सससस ससससस ससससससस ससस सस ससससस सस सससस जजजज-जजजजज जजजज जजजज ज ससस सस ससस सस ससस सस ससस।। ससससससस सस सससससस सस ससससस ससस सस सससससस सस सस ससससससससससस सस सस सससस ससससस-ससससस सस सससससस सस ससससससससस सस ससससस ससस सससससस ससससससससस ससससस-सससस सस ससससस-सससससस ससस सससस ससससससस सस ससस सस ससस सससससस ससस ससस सस ससससससस सससससस सस सससससससस ससससससससससस ससससससससससस सस सससससस-ससससस सस ससससससस सस सस सससससस सस सससससससससस सस सससससस सससस सस सससससस सससससससस सससससस ससस सससस-ससस सस ससससस ससस सससस ससससस सस सससससससस ससससससससससस सस सससससससससस सससससस सस सससस ससससससस सस सससस ससससस ससस ससससससससससस सससससससस सससससस ससससस ससस सससससससस सससससससससस सस सस सस-सससस सस ससससस सस ससससस -ससससससस ससस सस सससस सससससससस सस सस ससस सससससससस स ससससस सस ससस -ससससस सस सससससससस ससस सससससससस ससस सससससस सससससस सससस ससससससस सस सस ससससससस सससससस सस ससससससस ससससससस सस ससस सससस ससससस सससस सस ससस ससससस ससससससस सससससस सससससस
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भक्ति� कालPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 29, 2007

In: 2 भथि� काल Comment!

 

हि�ंदी साहि�त्य का भक्ति� काल 1375 हिव0 से 1700 हिव0 तक �ाना जाता �ै। य� युग भथि�काल के ना� से प्रख्यात �ै। य� हि�ंदी साहि�त्य का श्रेष्ठ युग �ै। स�स्त हि�ंदी साहि�त्य के श्रेष्ठ कहिव और उत्त� रचनाए ंइस युग �ें प्राप्त �ोती �ैं।दक्षि2ण �ें आलवार बंधु ना� से प्रख्यात भ� �ो गए। इन�ें से कई ताकथित नीची जाहितयों से आए े। वे बहुत पढे-थिलखे न�ीं े परंतु अनुभवी े। आलवारों के पश्चात दक्षि2ण �ें आचाय? की एक परंपरा चली जिजस�ें रा�ानुजाचायB प्र�ुख े।रा�ानुजाचायB की परंपरा �ें रा�ानंद हुए। आपका व्यथि�त्व असाधारण ा। वे उस स�य के सबसे बडे़ आचायB े। उन्�ोंने भथि� के 2ेत्र �ें ऊंच-नीच का भेद तोड़ दिदया। सभी जाहितयों के अमिधकारी व्यथि�यों को आपने थिशष्य बनाया। उस स�य का सूत्र �ो गयाः जाहित-पांहित पूछे नहि�ं कोई। �रिर को भजै सो �रिर का �ोई।।रा�ानंद ने हिवष्णु के अवतार रा� की उपासना पर बल दिदया। रा�ानंद ने और उनकी थिशष्य-�ंडली ने दक्षि2ण की भथि�गंगा का उत्तर �ें प्रवा� हिकया। स�स्त उत्तर-भारत इस पुण्य-प्रवा� �ें ब�ने लगा। भारत भर �ें उस स�य पहुंचे हुए संत और ��ात्�ा भ�ों का आहिवभाBव हुआ।��ाप्रभु वल्लभाचायB ने पुमिQ-�ागB की स्थापना की और हिवष्णु के कृष्णावतार की उपासना करने का प्रचार हिकया। आपके द्वारा जिजस लीला-गान का उपदेश हुआ उसने देशभर को प्रभाहिवत हिकया। अQछाप के सुप्रथिसध्द कहिवयों ने आपके उपदेशों को �धुर कहिवता �ें प्रहितहिबंहिबत हिकया।

इसके उपरांत �ाध्व ता हिनंबाकB संप्रदायों का भी जन- स�ाज पर प्रभाव पड़ा �ै। साधना- 2ेत्र �ें दो अन्य संप्रदाय भी उस स�य हिवद्य�ान े। नाों के योग- �ागB से प्रभाहिवत संत संप्रदाय चला जिजस�ें प्र�ुख व्यथि�त्व संत कबीरदास का �ै। �ुसल�ान कहिवयों का सूफीवाद हि�ंदुओं के हिवथिशQादै्वतवाद से बहुत क्षिभन्न

न�ीं �ै। कुछ भावुक �ुसल�ान कहिवयों द्वारा सूफीवाद से रंगी हुई उत्त� रचनाएं थिलखी गईं। सं2ेप �ें भथि�- युग की चार प्र�ुख काव्य- धाराएं मि�लती �ैं : ज्ञानाश्रयी शाखा, [ पे्र�ाश्रयी शाखा]], कृष्णाश्रयी शाखा और

रा�ाश्रयी शाखा, प्र� दोनों धाराएं हिनगुBण �त के अंतगBत आती �ैं, शेष दोनों सगुण �त के।

ज्ञानाश्रयी शाखाइस शाखा के भ�-कहिव हिनगुBणवादी े और ना� की उपासना करते े। गुरु को वे बहुत सम्�ान देते े और जाहित-पाहित के भेदों को अस्वीकार करते े। वैयथि�क साधना पर वे बल देते े। मि�थ्या आडंबरों और रूदिढयों का वे हिवरोध करते े। लगभग सब संत अपढ़ े परंतु अनुभव की दृमिQ से स�ृध्द े। प्रायः सब सत्संगी े और उनकी भाषा �ें कई बोथिलयों का मि�श्रण पाया जाता �ै इसथिलए इस भाषा को ‘सधुक्कड़ी’ क�ा गया �ै। साधारण जनता पर इन संतों की वाणी का ज़बरदस्त प्रभाव पड़ा �ै। इन संतों �ें प्र�ुख कबीरदास े। अन्य �ुख्य संत-कहिवयों के ना� �ैं - नानक, रैदास, दादूदयाल, संुदरदास ता �लूकदास।

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पे्रमाश्रयी शाखा�ुसल�ान सूफी कहिवयों की इस स�य की काव्य-धारा को पे्र��ागg �ाना गया �ै क्योंहिक पे्र� से ईश्वर प्राप्त �ोते �ैं ऐसी उनकी �ान्यता ी। ईश्वर की तर� पे्र� भी सवBव्यापी तत्व �ै और ईश्वर का जीव के सा पे्र� का �ी संबंध �ो सकता �ै, य� उनकी रचनाओं का �ूल तत्व �ै। उन्�ोंने पे्र�गााए ंथिलखी �ैं। ये पे्र�गााए ंफारसी की �सनहिवयों की शैली पर रची गई �ैं। इन गााओं की भाषा अवधी �ै और इन�ें दो�ा-चौपाई छंदों का प्रयोग हुआ �ै। �ुसल�ान �ोते हुए भी उन्�ोंने हि�ंदू-जीवन से संबंमिधत काए ंथिलखी �ैं। खंडन-�ंडन �ें न पड़कर इन फकीर कहिवयों ने भौहितक पे्र� के �ाध्य� से ईश्वरीय पे्र� का वणBन हिकया �ै। ईश्वर को �ाशूक �ाना गया �ै और प्रायः प्रत्येक गाा �ें कोई राजकु�ार हिकसी राजकु�ारी को प्राप्त करने के थिलए नानाहिवध कQों का सा�ना करता �ै, हिवहिवध कसौदिkयों से पार �ोता �ै और तब जाकर �ाशूक को प्राप्त कर सकता �ै। इन कहिवयों �ें �थिलक �ु�म्�द जायसी प्र�ुख �ैं। आपका ‘पद्मावत’ ��ाकाव्य इस शैली की सवBशे्रष्ठ रचना �ै। अन्य कहिवयों �ें प्र�ुख �ैं - �ंझन, कुतुबन और उस�ान।कृष्णाश्रयी शाखाइस गुण की इस शाखा का सवाBमिधक प्रचार हुआ �ै। हिवक्षिभन्न संप्रदायों के अंतगBत उच्च कोदिk के कहिव हुए �ैं। इन�ें वल्लभाचायB के पुमिQ-संप्रदाय के अंतगBत सूरदास जैसे ��ान कहिव हुए �ैं। वात्सल्य एवं श्रृंगार के सवoत्त� भ�-कहिव सूरदास के पदों का परवतg हि�ंदी साहि�त्य पर सवाBमिधक प्रभाव पड़ा �ै। इस शाखा के कहिवयों ने प्रायः �ु�क काव्य �ी थिलखा �ै। भगवान श्रीकृष्ण का बाल एवं हिकशोर रूप �ी इन कहिवयों को आकर्षिषंत कर पाया �ै इसथिलए इनके काव्यों �ें श्रीकृष्ण के ऐश्वयB की अपे2ा �ाधुयB का �ी प्राधान्य र�ा �ै। प्रायः सब कहिव गायक े इसथिलए कहिवता और संगीत का अद्भतु संुदर स�न्वय इन कहिवयों की रचनाओं �ें मि�लता �ै। गीहित-काव्य की जो परंपरा जयदेव और हिवद्यापहित द्वारा पल्लहिवत हुई ी उसका चर�-हिवकास इन कहिवयों द्वारा हुआ �ै। नर-नारी की साधारण पे्र�-लीलाओं को राधा-कृष्ण की अलौहिकक पे्र�लीला द्वारा वं्यजिजत करके उन्�ोंने जन-�ानस को रसाप्लाहिवत कर दिदया। आनंद की एक ल�र देश भर �ें दौड ग़ई। इस शाखा के प्र�ुख कहिव े सूरदास, नंददास, �ीरा बाई, हि�त�रिरवंश, �रिरदास, रसखान, नरोत्त�दास वगैर�। र�ी� भी इसी स�य हुए।रामाश्रयी शाखाकृष्णभथि� शाखा के अंतगBत लीला-पुरुषोत्त� का गान र�ा तो रा�भथि� शाखा के प्र�ुख कहिव तुलसीदास ने �याBदा-पुरुषोत्त� का ध्यान करना चा�ा। इसथिलए आपने रा�चंद्र को आराध्य �ाना और ‘रा�चरिरत �ानस’ द्वारा रा�-का को घर-घर �ें पहुंचा दिदया। तुलसीदास हि�ंदी साहि�त्य के श्रेष्ठ कहिव �ाने जाते �ैं। स�न्वयवादी तुलसीदास �ें लोकनायक के सब गुण �ौजूद े। आपकी पावन और �धुर वाणी ने जनता के त�ा� स्तरों को रा��य कर दिदया। उस स�य प्रचथिलत त�ा� भाषाओं और छंदों �ें आपने रा�का थिलख दी। जन-स�ाज के उत्थान �ें आपने सवाBमिधक ��त्वपूणB कायB हिकया �ै। इस शाखा �ें अन्य कोई हिवशेष उल्लेखनीय कहिव न�ीं हुआ �ै।

संत कवि�Posted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: September 17, 2008

In: 2 भथि� काल Comment!

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विनर्गु��ण ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रम�ख संत कवि�यों का परिरचयकबीर, क�ाल, रैदास या रहिवदास, ध�Bदास, गुरू नानक, दादूदयाल, संुदरदास, रज्जब, �लूकदास, अ2र अनन्य, जंभना, सिसंगा जी, �रिरदास हिनरंजनी । कबीर कबीर का जन्� 1397 ई. �ें �ाना जाता �ै. उनके जन्� और �ाता-हिपता को लेकर बहुत हिववाद �ै. लेहिकन य� स्पQ �ै हिक कबीर जुला�ा े, क्योंहिक उन्�ोंने अपने को कहिवता �ें अनेक बार जुला�ा क�ा �ै. क�ा जाता �ै हिक वे हिवधवा ब्राह्मणी के पत्र े, जिजसे लोकापवाद के भय से जन्� लेते �ी काशी के ल�रतारा ताल के पास फें क दिदया गया ा. अली या नीरू ना�क जुला�ा बच्चे को अपने य�ाँ उठा लाया. इस प्रकार कबीर ब्राह्मणी के पेk से उत्पन्न हुए े, लेहिकन उनका पालन-पोषण जुला�े के य�ाँ हुआ. बाद �ें वे जुला�ा �ी प्रथिसद्ध हुए. कबीर की �ृत्यु के बारे �ें भी क�ा जाता �ै हिक हि�न्दू उनके शव को जलाना चा�ते े और �ुसल�ान दफ़नाना. इस पर हिववाद हुआ, हिकन्तु पाया गया हिक कबीर का शव अंतधाBन �ो गया �ै. व�ाँ कुछ फूल �ैं. उन�ें कुछ फूलों को हि�न्दुओं ने जलाया और कुछ को �ुसल�ानों ने दफ़नाया.कबीर की �ृत्यु �ग�र जिजला बस्ती �ें सन् 1518 ई. �ें हुई.कबीर का अपना पं या संप्रदाय क्या ा, इसके बारे �ें कुछ भी हिनश्चयपूवBक न�ीं क�ा जा सकता. वे रा�ानंद के थिशष्य के रूप �ें हिवख्यात �ैं, हिकन्तु उनके ‘रा�’ रा�ानंद के ‘रा�’ न�ीं �ैं. शेख तकी ना� के सूफी संत को भी कबीर का गुरू क�ा जाता �ै, हिकन्तु इसकी पुमिQ न�ीं �ोती. संभवत: कबीर ने इन सबसे सत्संग हिकया �ोगा और इन सबसे हिकसी न हिकसी रूप �ें प्रभाहिवत भी हुए �ोंगे.इससे प्रकk �ोता �ै हिक कबीर की जाहित के हिवषय �ें य� दुहिवधा बराबर बनी र�ी �ै. इसका कारण उनके व्यथि�त्व, उनकी साधना और काव्य �ें कुछ ऐसी हिवशेषताए ँ�ैं जो हि�न्दू या �ुसल�ान क�ने-भर से न�ीं प्रकk �ोतीं. उनका व्यथि�त्व दोनों �ें से हिकसी एक �ें न�ीं स�ाता.उनकी जाहित के हिवषय �ें आचायB �जारीप्रसाद हिद्ववेदी ने अपनी पुस्तक ‘कबीर’ �ें प्राचीन उल्लेखों, कबीर की रचनाओं, प्रा, वयनजीवी अवा बुनकर जाहितयों के रीहित-रिरवाजों का हिववेचन-हिवशे्लषण करके दिदखाया �ै.:आज की वयनजीवी जाहितयों �ें से अमिधकांश हिकसी स�य ब्राह्मण श्रेष्ठता को स्वीकार न�ीं करती ी. जागी ना�क आश्र�-भ्रQ घरबारिरयों की एक जाहित सारे उत्तर और पूवg भारत �ें फैली ी. ये नापंी े. कपड़ा बुनकर और सूत कातकर या गोरखना और भररी के ना� पर भीख �ाँग कर जीहिवका चलाया करते े. इन�ें हिनराकार भाव की उपासना प्रचथिलत ी, जाहित भेद और ब्राह्मण श्रेष्ठता के प्रहित उनकी कोई स�ानुभूहित न�ीं ी और न अवतारवाद �ें �ी कोई आस्था ी. आसपास के वृ�त्तर हि�न्दू-स�ाज की दृमिQ �ें ये नीच और अस्पृश्य े. �ुसल�ानों के आने के बाद ये धीरे-धीरे �ुसल�ान �ोते र�े. पंजाब, उत्तर प्रदेश, हिब�ार और बंगाल �ें इनकी कई बस्तिस्तयों ने सा�ूहि�क रूप से �ुसल�ानी ध�B ग्र�ण हिकया. कबीर दास इन्�ीं नवध�ा�तरिरत लोगों �ें पाथिलत हुए े.  रज्जब (17 वीं शती) रज्जब दादू के थिशष्य े. ये भी राजस्थान के े. इनकी कहिवता �ें संुदरदास की शास्त्रीयता का तो अभाव �ै, हिकन्तु पं. �जारीप्रसाद हिद्ववेदी के अनुसार:रज्जब दास हिनश्चय की दादू के थिशष्यों �ें सबसे अमिधक कहिवत्व लेकर उत्पन्न हुए े. उनकी कहिवताए ँ

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भावपन्न, साफ और स�ज �ैं. भाषा पर राजस्थानी प्रभाव अमिधक �ै और इस्ला�ी साधना के शब्द भी अपे2ाकृत अमिधक �ैं. अक्षर अनन्य  सन् 1653 �ें इनके वतB�ान र�ने का पता लगता �ै. ये दहितया रिरयासत के अंतगBत सेनु�रा के कायस्थ े और कुछ दिदनों तक दहितया के राजा पृथ्वीचंद के दीवान े. पीछे ये हिवर� �ोकर पन्ना �ें र�ने लगे. प्रथिसद्ध छत्रसाल इनके थिशष्य हुए. एक बार ये छत्रसाल से हिकसी बात पर अप्रसन्न �ोकर जंगल �ें चले गए. पता लगने पर जब ��ाराज छत्रसाल 2�ा प्राBना के थिलए इनके पास गए तब इन्�ें एक झाड़ी के पास खूब पैर फैलाकर लेkे हुए पाया. ��ाराज ने पूछा- ‘पाँव पसारा कब से?’ चk से उत्तर मि�ला- ‘�ा स�ेkा जब से’.ये हिवद्वान े और वेदांत के अचे्छ ज्ञाता े. इन्�ोंने योग और वेदांत पर कई गं्र थिलखे.कृहितयाँ  — 1. राजयोग 2. हिवज्ञानयोग 3. ध्यानयोग 4. थिसद्धांतबोध 5. हिववेकदीहिपका 6. ब्रह्मज्ञान 7. अनन्य प्रकाश आदिद.‘दुगाB सप्तशती’ का भी हि�न्दी पद्यों �ें अनुवाद हिकया. मलूकदास   �लूकदास का जन्� लाला संुदरदास खत्री के घर �ें वैशाख कृष्ण 5, सन् 1574 ई. �ें कड़ा, जिजला इला�ाबाद �ें हुआ.इनकी �ृत्यु 108 वषB की अवस्था �ें सन् 1682 �ें हुई. वे औरंगज़ेब के स�य �ें दिदल के अंदर खोजने वाले हिनगुBण �त के ना�ी संतों �ें हुए �ैं और उनकी गदि�याँ कड़ा, जयपुर, गुजरात, �ुलतान, पkना, नेपाल और काबुल तक �ें काय� हुई. इनके संबंध �ें बहुत से च�त्कार और करा�ातें प्रथिसद्ध �ैं. क�ते �ै हिक एक बार इन्�ोंने एक डूबते हुए शा�ी ज�ाज को पानी के ऊपर उठाकर बचा थिलया ा और रूपयों का तोड़ा गंगाजी �ें तैरा कर कडे़ से इला�बाद भेजा ा.आलथिसयों का य� �ूल �ंत्र : अजगर करे न चाकरी, पंछी करे न का� Iदास �लूका कहि� गए, सबको दाता रा� IIइन्�ीं का �ै. हि�न्दुओं और �ुसल�ानों दोनों को उपदेश �ें प्रवृत्त �ोने के कारण दूसरे हिनगुBण�ागg संतों के स�ान इनकी भाषा �ें भी फ़ारसी और अरबी शब्दों का प्रयोग �ै. इसी दृमिQ से बोलचाल की खड़ीबोली का पुk इस सब संतों की बानी �ें एक सा पाया जाता �ै. इन सब ल2णों के �ोते हुए भी इनकी भाषा सुव्यवस्थिस्थत और संुदर �ै. क�ीं-क�ीं अचे्छ कहिवयों का सा पदहिवन्यास और कहिवत्त आदिद छंद भी पाए जाते �ैं. कुछ पद हिबल्कुल खड़ीबोली �ें �ैं. आत्�बोध, वैराग्य, पे्र� आदिद पर इनकी बानी बड़ी �नो�र �ै. कृहितयाँ  –  1. रत्नखान  2. ज्ञानबोध स�ंदरदास (1596 ई.- 1689 ई.)  

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संुदरदास 6 वषB की आयु �ें दादू के थिशष्य �ो गए े. उनका जन्� 1596 ई. �ें जयपुर के हिनकk द्यौसा ना�क स्थान पर हुआ ा. इनके हिपता का ना� पर�ानंद और �ाता का ना� सती ा. दादू की �ृत्यु के बाद एक संत जगजीवन के सा वे 10 वषB की आयु �ें काशी चले आए. व�ाँ 30 वषB की आयु तक उन्�ोंने ज�कर अध्ययन हिकया. काशी से लौkकर वे राजस्थान �ें शेखावkी के हिनकk फत�पुर ना�क स्थान पर गए. वे फ़ारसी भी बहुत अच्छी जानते े.उनका दे�ांत सांगा�ेर �ें 1689 ई. �ें हुआ.हिनगुBण संत कहिवयों �ें संुदरदास सवाBमिधक शास्त्रज्ञ एवं सुथिशक्षि2त े. क�ते �ैं हिक वे अपने ना� के अनुरूप अत्यंत संुदर े. सुथिशक्षि2त �ोने के कारण उनकी कहिवता कलात्�कता से यु� और भाषा परिर�ार्जिजंत �ै. हिनगुBण संतों ने गेय पद और दो�े �ी थिलखे �ैं. संुदरदास ने कहिवत्त और सवैये भी रचे �ैं. उनकी काव्यभाषा �ें अलंकारों का प्रयोग खूब �ै. उनका सवाBमिधक प्रथिसद्ध गं्र ‘संुदरहिवलास’ �ै.काव्यकला �ें थिशक्षि2त �ोने के कारण उनकी रचनाए ँहिनगुBण साहि�त्य �ें हिवथिशQ स्थान रखती �ैं. हिनगुBण साधना और भथि� के अहितरिर� उन्�ोंने सा�ाजिजक व्यव�ार, लोकनीहित और क्षिभन्न 2ेत्रों के आचार-व्यव�ार पर भी उथि�याँ क�ी �ैं. लोकध�B और लोक �याBदा की उन्�ोंने अपने काव्य �ें उपे2ा न�ीं की �ै.व्यB की तुकबंदी और ऊkपkाँग बानी इनको रूथिचकर न ी. इसका पता इनके इस कहिवत्त से लगता �ै: बोथिलए तौ तब जब बोथिलबे की बुजिद्ध �ोय,ना तौ �ुख �ौन गहि� चुप �ोय रहि�ए Iजोरिरए तौ तब जब जोरिरबै को रीहित जानै,तुक छंद अर अनूप जा�े लहि�ए IIगाइए तौ तब जब गाइबे को कंठ �ोय,श्रवन के सुनत�ीं �नै जाय गहि�ए Iतुकभंग, छंदभंग, अर मि�लै न कछु,संुदर क�त ऐसी बानी नहि�ं कहि�ए II कृहितयाँ–1. संुदरहिवलास दादूदयाल (1544 ई. - 1603 ई.) कबीर की भाँहित दादू के जन्� और उनकी जाहित के हिवषय �ें हिववाद और अनेक हिकंवदंहितयाँ प्रचथिलत �ै. कुछ लोग उन्�ें गुजराती ब्राह्मण �ानते �ैं, कुछ लोग �ोची या धुहिनया. प्रो. चंदिद्रकाप्रसाद हित्रपाठी और क्षि2हित�ो�न सेन के अनुसार दादू �ुसल�ान े और उनका ना� दाऊद ा. क�ते �ैं दादू बालक रूप �ें साबर�ती नदी �ें ब�ते हुए लोदीरा� ना�क नागर ब्राह्मण को मि�ले े. दादू के गुरू का भी हिनक्षिश्चत रूप से पता न�ीं लगता. कुछ लोग �ानते �ैं हिक वे कबीर के पुत्र क�ाल के थिशष्य े. पं. रा�चंद्र शुक्ल का हिवचार �ै हिक उनकी बानी �ें कबीर का ना� बहुत जग� आया �ै और इस�ें कोई संदे� न�ीं हिक वे उन्�ीं के �तानुयायी े. वे आ�ेर, �ारवाड़, बीकानेर आदिद स्थानों �ें घू�ते हुए जयपुर आए. व�ीं के भराने ना�क स्थान पर 1603 ई. �ें शरीर छोड़ा. व� स्थान दादू पंथियों का केन्द्र �ै. दादू की रचनाओं का संग्र� उनके दो थिशष्यों संतदास और जगनदास ने ‘�रडेवानी’ ना� से हिकया ा. कालांतर �ें रज्जब ने इसका सम्पादन ‘अंगवधू’ ना� से हिकया.दादू की कहिवता जन सा�ान्य को ध्यान �ें रखकर थिलखी गई �ै, अतएव सरल एवं स�ज �ै. दादू भी कबीर

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के स�ान अनुभव को �ी प्र�ाण �ानते े. दादू की रचनाओं �ें भगवान के प्रहित पे्र� और व्याकुलता का भाव �ै. कबीर की भाँहित उन्�ोंने भी हिनगुBण हिनराकार भगवान को वैयथि�क भावनाओं का हिवषय बनाया �ै. उनकी रचनाओं �ें इस्ला�ी साधना के शब्दों का प्रयोग खुलकर हुआ �ै. उनकी भाषा पक्षिश्च�ी राजस्थानी से प्रभाहिवत हि�न्दी �ै. इस�ें अरबी-फ़ारसी के काफ़ी शब्द आए �ैं, हिफर भी व� स�ज और सुग� �ै.कृहितयाँ  — 1. �रडेवानी 2. अंगवधू र्गु�रू नानक गुरू नानक का जन्� 1469 ईसवी �ें कार्षितंक पूर्णिणं�ा के दिदन तलवंडी ग्रा�, जिजला ला�ौर �ें हुआ ा.इनकी �ृत्यु 1531 ईसवी �ें हुई.इनके हिपता का ना� कालूचंद खत्री और �ाँ का ना� तृप्ता ा. इनकी पत्नी का ना� सुल2णी ा. क�ते �ैं हिक इनके हिपता ने इन्�ें व्यवसाय �ें लगाने का बहुत उद्य� हिकया, हिकन्तु इनका �न भथि� की ओर अमिधकामिधक झुकता गया. इन्�ोंने हि�न्दू-�ुसल�ान दोनों की स�ान धार्मि�ंक उपासना पर बल दिदया. वणाBश्र� व्यवस्था और क�Bकांड का हिवरोध करके हिनगुBण ब्रह्म की भथि� का प्रचार हिकया. गुरू नानक ने व्यापक देशाkन हिकया और �क्का-�दीना तक की यात्रा की. क�ते �ैं �ुग़ल सम्राk बाबर से भी इनकी भेंk हुई ी. यात्रा के दौरान इनके साी थिशष्य रागी ना�क �ुस्थिस्ल� र�ते े जो इनके द्वारा रथिचत पदों को गाते े.गुरू नानक ने थिसख ध�B का प्रवत्तBन हिकया. गुरू नानक ने पंजाबी के सा हि�न्दी �ें भी कहिवताए ँकी. इनकी हि�न्दी �ें ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों का �ेल �ै. भथि� और हिवनय के पद बहुत �ार्मि�कं �ैं. गुरू नानक ने उलkबाँसी शैली न�ीं अपनाई �ै. इनके दो�ों �ें जीवन के अनुभव उसी प्रकार गँुे �ैं जैसे कबीर की रचनाओं �ें. ‘आदिदगुरू गं्र सा�ब’ के अंतगBत ‘��ला’ ना�क प्रकरण �ें इनकी बानी संकथिलत �ै. उस�ें सबद, सलोक मि�लते �ैं.गुरू नानक की �ी परम्परा �ें उनके उत्तरामिधकारी गुरू कहिव हुए. इन�ें �ै–गुरू अंगद (जन्� 1504 ई.)गुरू अ�रदास (जन्� 1479 ई.)गुरू रा�दास (जन्� 1514 ई.)गुरू अजुBन (जन्� 1563 ई.)गुरू तेगब�ादुर (जन्� 1622 ई.) औरगुरू गोहिवन्द सिसं� (जन्� 1664 ई.). गुरू नानक की रचनाए ँ — 1. जपुजी 2. आसादीवार 3. रहि�रास 4. सोहि�ला धम�दास ये बांधवगढ़ के र�नेवाले और जाहित के बहिनए े. बाल्यावस्था �ें �ी इनके हृदय �ें भथि� का अंकुर ा और ये साधुओं का सत्संग, दशBन, पूजा, तीाBkन आदिद हिकया करते े. �ुरा से लौkते स�य कबीरदास के सा इनका सा2ात्कार हुआ. उन दिदनों संत स�ाज �ें कबीर पूरी प्रथिसजिद्ध �ो चुकी ी. कबीर के �ुख से �ूर्षितंपूजा, तीाBkन, देवाचBन आदिद का खंडन सुनकर इनका झुकाव ‘हिनगुBण’ संत�त की ओर हुआ. अंत �ें ये कबीर से सत्य ना� की दी2ा लेकर उनके प्रधान थिशष्यों �ें �ो गए और सन् 1518 �ें कबीरदास के परलोकवास पर उनकी ग�ी इन्�ीं को मि�ली. कबीरदास के थिशष्य �ोने पर इन्�ोंने अपनी सारी सम्पक्षित्त, जो बहुत अमिधक ी, लुkा दी. ये कबीर की ग�ी पर बीस वषB के लगभग र�े और अत्यंत वृद्ध �ोकर इन्�ोंने शरीर छोड़ा. इनकी शब्दावली का भी संतों �ें बड़ा आदर �ै. इनकी रचना ोड़ी �ोने पर भी कबीर की

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अपे2ा अमिधक सरल भाव थिलए हुए �ै, उस�ें कठोरता और ककB शता न�ीं �ै. इन्�ोंने पूवg भाषा का �ी व्यव�ार हिकया �ै. इनकी अन्योथि�यों के वं्यजक थिचत्र अमिधक �ार्मि�कं �ैं क्योंहिक इन्�ोंने खंडन-�ंडन से हिवशेष प्रयोजन न रख पे्र�तत्व को लेकर अपनी वाणी का प्रसार हिकया �ै.उदा�रण के थिलए ये पद देखिखए मि�तऊ �डै़या सूनी करिर गैलो IIअपना बल� परदेश हिनकरिर गैलो, ��रा के हिकछुवौ न गुन दै गैलो Iजोहिगन �ोइके �ैं वन वन ढँूढ़ौ, ��रा के हिबर� बैराग दै गैलो IIसँग की सखी सब पार उतरिर गइलो, �� धहिन ठादिढ़ अकेली रहि� गैलो Iधर�दास य� अरजु करतु �ै, सार सबद सुमि�रन दै गैलो II रैदास या रवि�दास  रा�ानंद जी के बार� थिशष्यों �ें रैदास भी �ाने जाते �ैं. उन्�ोंने अपने एक पद �ें कबीर और सेन का उल्लेख हिकया �ै, जिजससे स्पQ �ो जाता �ै हिक वे कबीर से छोkे े. अनु�ानत: 15 वीं शती उनका स�य र�ा �ोगा. धन्ना और �ीराबाई ने रैदास का उल्लेख आदरपूवBक हिकया �ै. य� भी क�ा जाता �ै हिक �ीराबाई रैदास की थिशष्या ीं. रैदास ने अपने को एकामिधक स्थलों पर च�ार जाहित का क�ा �ै:

क� रैदास खलास च�ारा ऐसी �ेरी जाहित हिवख्यात च�ार

रैदास काशी के आसपास के े. रैदास के पद आदिद गुरूगं्र सा�ब �ें संकथिलत �ैं. कुछ फुkकल पद सतबानी �ें �ैं.रैदास की भथि� का ढाँचा हिनगुBणवादिदयों का �ी �ै, हिकन्तु उनका स्वर कबीर जैसा आक्रा�क न�ीं. रैदास की कहिवता की हिवशेषता उनकी हिनरी�ता �ै. वे अनन्यता पर बल देते �ैं. रैदास �ें हिनरी�ता के सा-सा कंुठा�ीनता का भाव द्रQव्य �ै. भथि�-भावना ने उन�ें व� बल भर दिदया ा जिजसके आधार पर वे डंके की चोk पर घोहिषत कर सकें हिक उनके कुkंुबी आज भी बनारस के आस-पास ढोर (�ूदाB पशु) ढोते �ैं और दासानुदास रैदास उन्�ीं का वंशज �ै:जाके कुkंुब सब ढोर ढोवंतहिफरहि�ं अजहुँ बानारसी आसपास Iआचार सहि�त हिबप्र करहि�ं डंडउहितहितन तनै रहिवदास दासानुदासा IIरैदास की भाषा सरल, प्रवा��यी और गेयता के गुणों से यु� �ै. सिसंर्गुाजी चार सौ अस्सी वषB पूवB की बात �ै। भा�गढ़ (�ध्य प्रदेश) के राजा के य�ां एक हिनर2र युवा सेवक का का� करता ा। एक दिदन व� डाकघर से आ र�ा ा। रास्ते �ें उसने पर�हिवरथि� के भाव �ें रंगी कुछ पंथि�यां सुनीं-‘स�जिझ लेओ रे �ना भारिर!अंत न �ोय कोई आपना।य�ी �ाया के फंद �े

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नर आज भुलाना॥’य� हिवल2ण सुरीली तान तीर की तर� उस युवक के हृदय �ें ग�रे पैठ गई। व� सोचने लगा इक जब ��ारा नाता इस दुहिनया से kूkना �ी �ै, य�ां अपना कोई न�ीं �ोगा, तो हिफ़र �� इस �ायाजाल के भ्र� �ें क्यों फंसें? इसके बाद व� संत �नरंग के पास पहुंचा, जो संत व्रह्महिगरिर के थिशष्य े। संत �नरंइगइर के स�ीप पहुंचते �ी उसने उनके चरण स्पशरर्ा इकए। य� प्रणा� उसके युवा जीवन का सम्पूणB स�पBण इसद्ध हुआ। इसके बाद उसने भा�गढ़ के राजा की नौकरी छोड़ दी। य� युवक े, ‘सिसंगा जी’, जो सेवक की नौकरी करने के प�ले �रसूद �ें र�ते हुए वन �ें गाय-भैंसें चराने का का� करते े। सिसंगा जी का जन्� संवत् १५७६ �ें ग्रा� पीपला के भी�ा जी गौली के य�ां हुआ ा। उनकी जन्�दायनी ीं �ाता गौराबाई। सिसंगा जी की बाल्यावस्था बड़वानी के खजूरी ग्रा� �ें व्यतीत हुई। तत्पशचात् हिनका परिरवार �रसूद �ें आकर बस गया। य�ीं सिसंगा जी बडे़ हुए। और कुछ दिदन बाद भा�गढ़ के राजा के य�ां इनको सेवक की नौकरी मि�ल गई, परन्तु अब वे हिवर� �ोकर ��ात्�ा �नरंग को स�र्षिपंत �ो गए। इस सेवा, स�पBण ता साधना ने सेवक और चरवा�ा र�े सिसंगा जी का जीवन स�ग्रत: बदल दिदया। आध्यात्मित्�क साधनारत र�ते-र�ते हिनर2र सिसंगा जी को अदृQ के अंतराल से वाणी आयी और अपढ़ सिसंगा जी की वाणी से एक के बाद एक भथि� पद और भजन �ुखरिरत �ोने लगे। वे स्वरथिचत पद गाया करते े। सिसंगा जी के त�ा� पद हिन�ाड़ी बोली �ें �ैं। यात्राओं �ें हिन�ाड़ी पथिकों के काहिफ़ले बैलगाड़यों पर बैठे-बैठे आज भी इन�ें गंुजाते र�ते �ैं। हिन�ाड़ �ें ग्रा�-ग्रा� और घर-घर �ें ये गाए जाते �ैं। परन्तु सिसंगा जी इतने भावुक ता हिवइचत्र �ानस के संत े इक हिनका जीवनान्त अभूतपूवB तरीके से हुआ। एक बार जब श्रीकृष्ण-जन्�ाQ�ी पड़ी तो श्रीकृष्ण जन्�ोत्सव के पूवB �ी इनके गुरुदेव को नींद आने लगी। अत: हिनसे उन्�ोंने क�ा ‘जब �ध्य रात्र (१२ बजे) आए तो ��ें जगा देना।’ और वे सो गए। सिसंगा जी बैठे-बैठे जागते र�े, पर जब १२ बजे तो सिसंगा जी ने सोचा गुरुदेव को क्यों जगाए?ं उन�ें सोने दें। �ैं �ी भगवान की आरती-अचBना आदिद सम्पन्न कर देता हूं। कुछ देर बाद जब �नरंग जागे, तो जन्�ोत्सव की बेला बीत चुकी ी। वे बडे़ कु्रद्ध हुए और क्रोध �ें �ी गुरु ने थिशष्य सिसंगा जी को दुत्कार कर हिनकाल दिदया, क�ा-‘य�ां से जा, इफर कभी जीवन �ें �ुं� �त दिदखाना।’ सिसंगा जी गुरु के आदेश का पालन कर चले तो गए परन्तु उन्�ोंने सोचा, अब इस शरीर को रखें क्यों? इसकी अब जरूरत क्या �ै? य�ी सोचकर सिसंगा जी पीपला चले गए, ज�ां वे जन्�े े। व�ीं ११ �ास व्यतीत हिकए। संवत् १६१६ की श्रावणी पूर्णिणं�ा आयी तो उन्�ोंने हिपपरा�k नदी-तk पर अपने थिलए एक स�ामिध तैयार की।  एक �ा �ें कपूर जलाकर दूसरे �ा �ें जप-�ाला लेकर उसी स�ाइध की खोखली जग� �ें जा बैठे और व�ां जीहिवत �ी स�ाइधस्थ �ो गए। तब वे केवल ४० वषB के े। जब य� स�ाचार उनके गुरु को मि�ला तो वे बहुत्रा पछताए, दु:खी हुए।आज भी हिन�ाड़ के चरवा�े और इकसान ढोलक-�ृदंग बजाते हुए गाया करते �ैं-‘सिसंगा बड़ा औइलया पीर,जिजसको सु�ेर राव अ�ीर।’हिन�ाड़ के �ुसल�ान उसे ‘औ्थिलया’ और पहुंचा हुआ ‘पीर’ �ी �ानते �ैं। व�ां के गूजर स�ाज की पंचायतें दंइडत अपराधी को य� क�कर छोड़ देती �ैं हिक, ‘जा सिसंगा जी ��ाराज के पांव लाग ले।’ और व� अपराधी सिसंगा जी की स�ामिध का स्पशB कर, उसे प्रणा� कर अपराध-�ु� और शुद्ध �ो जाता �ै। हि�न्दू-�ुसल�ान सभी बैल आदिद कुछ भी खो जाने पर सिसंगा जी की स�ा्मिध पर आकर �नौती �ानते �ैं। आज खंडवा-�रदा रेलवे �ागB पर ‘सिसंगा जी’ ना� का रेलवे स्kेशन भी �ै। हिन�ाड़ �ी न�ीं, दूरस्थ स्थानों से भी लाखों आस्थावान यात्री प्रहितवषB  सिसंगा जी की स�ामिध पर एकत्र �ोते �ैं। �ुसल�ान दुआ करते �ैं, तो हि�न्दू यात्री �नौइतयां �ानते-प्रसाद चढ़ाते �ैं।

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पे्रमाश्रयी काव्य के कवि�Posted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: September 17, 2008

In: 2 भथि� काल Comment!

विनर्गु��ण पे्रमाश्रयी शाखा के प्रम�ख कवि�यों का परिरचय�थिलक �ु�म्�द जायसी, कुतबन, �ंझन, उस�ान, शेख नवी, काथिस�शा�, नूर �ु�म्�द, �ुल्ला दाउद | मक्तिलक म�हम्मद जायसी  जायसी के जन्� और �ृत्यु की कोई प्रा�ाक्षिणक जानकारी उपलब्ध र�ीं �ै. ये हि�न्दी �ें सूफ़ी काव्य परंपरा के श्रेष्ठ कहिव �ाने जाते �ैं. ये अ�ेठी के हिनकk जायस के र�ने वाले े, इसथिलए इन्�ें जायसी क�ा जाता �ै. जायसी अपने स�य के थिसद्ध फ़कीरों �ें हिगने जाते े. अ�ेठी के राजघराने �ें इनका बहुत �ान ा. जीवन के अंहित� दिदनों �ें जायसी अ�ेठी से दो मि�ल दूर एक जंगल �ें र�ा करते े. व�ीं उनकी �ृत्यु हुई. काजी नसरू�ीन हुसैन जायसी ने, जिजन्�ें अवध �ें नवाब शुजाउ�ौला से सनद मि�ली ी, अपनी याददाश्त �ें जायसी का �ृत्युकाल 4 रजब 949 हि�जरी थिलखा �ै. य� काल क�ाँ तक ठीक �ै, न�ीं क�ा जा सकता.ये काने और देखने �ें कुरूप े. क�ते �ैं हिक शेरशा� इनके रूप को देखकर �ँसा ा. इस पर य� बोले ‘�ोहि�का �ँसेथिस हिक को�रहि� ?’ इनके स�य �ें भी इनके थिशष्य फ़कीर इनके बनाये भावपूणB दो�े, चौपाइयाँ गाते हिफरते े. इन्�ोंने तीन पुस्तकें थिलखी - एक तो प्रथिसद्ध ‘पद�ावत’, दूसरी ‘अख़रावk’, तीसरी ‘आखिख़री क़ला�’. क�ते �ैं हिक एक नवोपलब्ध काव्य ‘कन्�ावत’ भी इनकी रचना �ै, हिकन्तु कन्�ावत का पाठ प्रा�ाक्षिणक न�ीं लगता. अख़रावk �ें देवनागरी वणB�ाला के एक अ2र को लेकर थिसद्धांत संबंधी तत्वों से भरी चौपाइयाँ क�ी गई �ैं. इस छोkी सी पुस्तक �ें ईश्वर, सृमिQ, जीव, ईश्वर पे्र� आदिद हिवषयों पर हिवचार प्रकk हिकए गए �ैं. आखिख़री क़ला� �ें कया�त का वणBन �ै. जायसी की अ2त कीर्षितं का आधार �ै पद�ावत, जिजसके पढ़ने से य� प्रकk �ो जाता �ै हिक जायसी का हृदय कैसा को�ल और ‘पे्र� की पीर’ से भरा हुआ ा. क्या लोकप2 �ें, क्या अध्यात्�प2 �ें, दोनों ओर उसकी गूढ़ता, गंभीरता और सरसता हिवल2ण दिदखाई देती �ै.कृहितयाँ — 1. पद�ावत  2. अख़रावk  3. आखिख़री क़ला� क� तबन  ये थिचश्ती वंश के शेख बुर�ान के थिशष्य े और जौनपुर के बादशा� हुसैनशा� के आक्षिश्रत े. अत: इनका स�य हिवक्र� सोल�वीं शताब्दी का �ध्यभाग (सन् 1493) ा. इन्�ोंने ‘�ृगावती’ ना� की एक क�ानी चौपाई दो�े के क्र� से सन् 909 हि�जरी सन् 1500 ई. �ें थिलखी जिजस�ें चंद्रनगर के राजा गणपहितदेव के राजकु�ार और कंचनपुर के राजा रूप�ुरारिर की कन्या �ृगावती की पे्र� का का वणBन �ै. इस क�ानी के द्वारा कहिव ने पे्र��ागB के त्याग और कQ का हिनरूपण करके साधक के भगवत्पे्र� का स्वरूप दिदखाया �ै. बीच-बीच �ें सूहिफयों की शैली पर बडे़ संुदर र�स्य�य आध्यात्मित्�क आभास �ै.कृहितयाँ — 1. �ृगावती 

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मंझन  इनके संबंध �ें कुछ भी ज्ञात न�ीं �ै. केवल इनकी रची ‘�धु�ालती’ की एक खंहिडत प्रहित मि�ली �ै जिजस�ें इनकी को�ल कल्पना और त्मिस्नग्धसहृदयता का पता लगता �ै. �ंझन ने सन् 1545 ई. �ें �धु�ालती की रचना की. �ृगावती के स�ान �धु�ालती �ें भी पाँच चौपाइयों के उपरांत एक दो�े का क्र� रखा गया. पर �ृगावती की अपे2ा इसकी कल्पना भी हिवशद ् �ै और वणBन भी अमिधक हिवस्तृत और हृदयग्रा�ी �ै. आध्यात्मित्�क पे्र� भाव की वं्यजना के थिलए प्रकृहितयाँ के भी अमिधक दृश्यों का स�ावेश �ंझन ने हिकया �ै.ये जायसी के परवतg े. �धु�ालती �ें नायक को अप्सराए ँउड़ाकर �धु�ालती की थिचत्रसारी �ें पहुँचा देती �ैं और व�ीं नायक नामियका को देखता �ै. इस�ें �नो�र और �धु�ालती की पे्र�का के स�ानांतर पे्र�ा और ताराचंद की भी पे्र�का चलती �ै. इस�ें पे्र� का बहुत उच्च आदशB सा�ने रखा गया �ै. सूफ़ी काव्यों �ें नायक की प्राय: दो पत्मित्नयाँ �ोती �ैं, हिकन्तु इस�ें �नो�र अपने द्वारा उपकृत पे्र�ा से ब�न का संबंध स्थाहिपत करता �ै. इस�ें जन्�-जन्�ांतर के बीच पे्र� की अखंडता प्रकk की गई �ै. इस दृमिQ से इस�ें भारतीय पुनजBन्�वाद की बात क�ी गई �ै. इस्ला� पुनजBन्�वाद न�ीं �ानता. लोक के वणBन द्वारा अलौहिकक सत्ता का संकेत सभी सूफ़ी काव्यों के स�ान इस�ें भी पाया जाता �ै.जैन कहिव बनारसीदास ने अपने आत्�चरिरत �ें सन् 1603 के आसपास की अपनी इश्कबाजीवाली जीवनचयाB का उल्लेख करते हुए थिलखा �ै हिक उस स�य �ैं �ाk बाजार �ें जाना छोड़, घर �ें पडे़-पडे़ ‘�ृगावती’ और ‘�धु�ालती’ ना� की पोथियाँ पढ़ा करता ा:- तब घर �ें बैठे र�ैं, नाहि�ंन �ाk बाजार I�धु�ालती, �ृगावती पोी दोय उचार II कृहितयाँ — 1. �धु�ालती उसमान  ये ज�ाँगीर के स�य �ें वतB�ान े और गाजीपुर के र�नेवाले े. इनके हिपता का ना� शेख हुसैन ा और ये पाँच भाई े. ये शा� हिनजा�ु�ीन थिचश्ती की थिशष्य परंपरा �ें �ाजीबाबा के थिशष्य े. उस�ान ने सन् 1613 ई. �ें ‘थिचत्रावली’ ना� की पुस्तक थिलखी. पुस्तक के आरंभ �ें कहिव ने स्तुहित के उपरांत पैगंबर और चार खलीफों की बादशा� ज�ाँगीर की ता शा� हिनजा�ु�ीन और �ाजीबाबा की प्रशंसा थिलखी �ै.कहिव ने ‘योगी ढँूढन खंड’ �ें काबुल, बदख्शाँ, खुरासान, रूस, सा�, मि�श्र, इस्तबोल, गुजरात, सिसं�लद्वीप आदिद अनेक देशों का उल्लेख हिकया �ै. सबसे हिवल2ण बात �ै जोहिगयों का अँगरेजों के द्वीप �ें पहुँचना : वलंदप देखा अँगरेजा I त�ाँ जाइ जहेि� कदिठन करेजा IIऊँच नीच धन संपहित �ेरा I �द बरा� भोजन जिजन्� केरा IIकहिव ने इस रचना �ें जायसी का पूरा अनुकरण हिकया �ै. जो जो हिवषय जायसी ने अपनी पुस्तक �ें रखे �ैं उस हिवषयों पर उस�ान ने भी कुछ क�ा �ै. क�ीं-क�ीं तो शब्द और वाक्यहिवन्यास भी व�ी �ैं. पर हिवशेषता य� �ै हिक क�ानी हिबल्कुल कहिव की कस्थिल्पत �ै. कृहितयाँ  — 1. थिचत्रावली शेख न�ी

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 ये जौनपुर जिजले �ें दोसपुर के पास �ऊ ना�क स्थान के र�ने वाले े और सन् 1619 �ें ज�ाँगीर के स�य �ें वतB�ान े. इन्�ोंने ‘ज्ञानदीप’ ना�क एक आख्यान काव्य थिलखा, जिजस�ें राजा ज्ञानदीप और रानी देवजानी की का �ै.कृहितयाँ — 1. ज्ञानदीप काक्तिसमशाह  ये दरिरयाबाद (बाराबंकी) के र�ने वाले े और सन् 1731 के लगभग वतB�ान े. इन्�ोंने ‘�ंस जवाहि�र’ ना� की क�ानी थिलखी, जिजस�ें राजा �ंस और रानी जवाहि�र की का �ै.आचायB रा�चंद्र शुक्ल के अनुसार: इनकी रचना बहुत हिनम्न कोदिk की �ै. इन्�ोंने जग� जग� जायसी की पदावली तक ली �ै, पर प्रौढ़ता न�ीं �ै.कृहितयाँ — 1. �ंस जवाहि�र नूर म�हम्मद  ये दिदल्ली के बादशा� �ु�म्�दशा� के स�य �ें े और ‘सबर�द’ ना�क स्थान के र�नेवाले े जो जौनपुर जिजले �ें जौनपुर आज़�गढ़ की सर�द पर �ै. पीछे सबर�द से ये अपनी ससुराल भादो (अज�गढ़) चले गये. इनके श्वसुर श�सु�ीन को और कोई वारिरस न ा इससे वे ससुराल �ी �ें र�ने लगे.नूर �ु�म्�द फ़ारसी के अचे्छ आथिल� े और इनका हि�न्दी काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफ़ी कहिवयों से अमिधक ा. फ़ारसी �ें इन्�ोंने एक दीवान के अहितरिर� ‘रौजतुल �कायक’ इत्यादिद बहुत सी हिकताबें थिलखी ीं जो असावधानी के कारण नQ �ो गईं.इन्�ोंने सन् 1744 ई. �ें ‘इंद्रावती’ ना�क एक संुदर आख्यान काव्य थिलखा जिजस�ें कासिलंजर के राजकु�ार राजकँुवर और आग�पुर की राजकु�ारी इंद्रावती की पे्र�क�ानी �ै.इनका एक और गं्र फ़ारसी अ2रों �ें थिलखा मि�ला �ै, जिजसका ना� �ै ‘अनुराग बाँसुरी’. य� पुस्तक कई दृमिQयों से हिवल2ण �ै. प�ली बात तो इसकी भाषा सूफ़ी रचनाओं से बहुत अमिधक संस्कृतगर्णिभंत �ै. दूसरी बात �ै हि�ंदी भाषा के प्रहित �ुसल�ानों का भाव.| कृहितयाँ  — 1. इंद्रावती (सन् 1744 ई.)  2. अनुराग बाँसुरी (सन् 1764 ई.) इसके अहितरिर� पे्र�ाख्यान काव्य की प्र�ुख कॄहितयों �े म�ल्ला दाउद कॄत “चान्दायन” (१३७९) नायक लोर और चन्दा की पे्र� का प्र�ुख �ै।

रामभ� कवि�Posted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: September 17, 2008

In: 2 भथि� काल Comment!

रामभक्ति� पंथी शाखा के प्रम�ख कवि�

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रा�ानन्द, तुलसीदास, स्वा�ी अग्रदास, नाभादास, प्राणचंद चौ�ान, हृदयरा�, केशवदास, सेनापहित। स्�ामी रामानन्द स्वा�ी रा�ानन्द का जन्� 1299 ई. �ें �ाघकृष्णसप्त�ी को प्रयाग �ें हुआ ा। इनके हिपता का ना� पुण्यसदनऔर �ाता का ना� सुशीला देवी ा। इनका बाल्यकाल प्रयाग �ें बीता। यज्ञोपवीत संस्कार के उपरान्त वे प्रयाग से काशी चले आए और गंगा के हिकनारे पंचगंगाघाk पर स्थायी रूप से हिनवास करने लगे। इनके गुरु स्वा�ी राघवानन्द े जो रा�ानुज (अचारी) संप्रदाय के ख्याहितलब्ध संत े। स्वा�ी राघवानन्द हि�न्दी भाषा �ें भथि�परककाव्य रचना करते े। स्वा�ी रा�ानन्द को रा�भथि�गुरुपरंपरासे मि�ली। हि�ंदी भाषा �ें लेखन की पे्ररणा उन्�ें गुरुकृपासे प्राप्त हुई। पंचगंगाघाkपर र�ते हुए स्वा�ी रा�ानुज ने रा�भथि�की साधना के सा-सा उसका प्रचार और प्रसार भी हिकया। स्वा�ी रा�ानन्द ने जिजस भथि�-धारा का प्रवतBन हिकया, व� रा�ानुजीपरंपरा से कई दृमिQयोंसे क्षिभन्न ी। रा�ानुजी संप्रदाय �ें इQदेव के रूप �ें लक्ष्�ीनारायण की पूजा �ोती �ै। स्वा�ी रा�ानन्द ने लक्ष्�ीनारायण के स्थान पर सीता और रा� को इQदेव के आसन पर प्रहितमिष्ठत हिकया। नए इQदेव के सा �ी स्वा�ी रा�ानन्द ने रा�ानुजीसंप्रदाय से अलग एक षड2र�ंत्र की रचना की। य� �ंत्र �ै- रांरा�ायन�:। इQदेव और षड2र�ंत्र के अहितरिर� स्वा�ी रा�ानन्द ने इQोपासनापद्धहित�ें भी परिरवतBन हिकया। स्वा�ी रा�ानन्द ने रा�ानुजीहितलक से क्षिभन्न नए ऊ ध्वBपुण्डहितलक की अक्षिभरचनाकी। इन क्षिभन्नताओंके कारण स्वा�ी रा�ानन्द द्वारा प्रवर्षितंत भथि�धारा को रा�ानुजी संप्रदाय से क्षिभन्न �ान्यता मि�लने लगी। रा�ानुजीऔर रा�ानन्दी संप्रदाय क्र�श:अचारीऔर रा�ावत ना� से जाने जाने लगे। रा�ानुजीहितलक की भांहित रा�ानन्दी हितलक भी ललाk के अहितरिर� दे� के ग्यार� अन्य भागों पर लगाया जाता �ै। स्वा�ी रा�ानन्द ने जिजस हितलक की अक्षिभरचनाकी उसे र�श्रीक�ा जाता �ै। कालचक्र �ें र�श्रीके अहितरिर� इस संप्रदाय �ें तीन और हितलकोंकी अक्षिभरचनाहुई। इन हितलकोंके ना� �ैं, शे्वतश्री(लश्करी), गोलश्री(बेदीवाले) और लुप्तश्री(चतुभुBजी)। इQदेव, �ंत्र, पूजापद्धहितएवं हितलक इन चारों हिवंदुओंके अहितरिर� स्वा�ी रा�ानन्द ने स्वप्रवर्षितंतरा�ावत संप्रदाय �ें एक और नया तत्त् व जोडा। उन्�ोंने रा�भथि�के भवन का द्वार �ानव �ात्र के थिलए खोल दिदया। जिजस हिकसी भी व्यथि� की हिनष्ठा रा� �ें �ो, व� रा�भ� �ै, चा�े व� हिद्वज �ो अवा शूद्र, हि�ंदू �ो अवा हि�ंदूतर।वैष्णव भथि� भवन के उन्�ु� द्वार से रा�ावत संप्रदाय �ें बहुत से हिद्वजेतरऔर हि�ंदूतरभ�ों का प्रवेश हुआ। स्वा�ी रा�ानन्द की �ान्यता ी हिक रा�भथि�पर �ानव�ात्र का अमिधकार �ै, क्योंहिक भगवान् हिकसी एक के न�ीं, सबके �ैं-सव« प्रपक्षित्तरमिधकारिरणो�ता:।ज्ञातव्य �ै हिक रा�ानुजीसंप्रदाय �ें �ात्र हिद्वजाहित(ब्राह्मण, 2हित्रय, वैश्य) को �ी भगवद्भथि�का अमिधकार प्राप्त �ै। स्वा�ी रा�ानन्द ने रा�भथि�पर �ानव�ात्र का अमिधकार �ानकर एक बडा सा�सी और क्रान्तिन्तकारी कायB हिकया ा। इसके थिलए उनका बडा हिवरोध भी हुआ। स्वा�ी रा�ानन्द का व्यथि�त्व क्रान्तिन्तदशg,क्रान्तिन्तध�gऔर क्रान्तिन्तक�gा। उनकी क्रान्तिन्तहिप्रयता�ात्र रा�भथि�तक �ी सीमि�त न�ीं ी। भाषा के 2ेत्र �ें भी उन्�ोंने क्रान्तिन्त का बीजारोपण हिकया। अभी तक ध�ाBचायB लेखन-भाषण सारा कुछ देवभाषा संस्कृत �ें �ी करते े। �ातृभाषा �ोते हुए भी हि�ंदी उपे2त-सीी। ऐसे परिरवेश �ें स्वा�ी रा�ानन्द ने हि�ंदी को �ान्यता देकर अपनी क्रान्तिन्तहिप्रयताका परिरचय दिदया। आगे चलकर गोस्वा�ी तुलसीदास ने स्वा�ी रा�ानन्द की भाषा हिवषयक इसी क्रान्तिन्त हिप्रयताका अनुसरण करके रा�चरिरत�ानस जैसे अद्भतु गं्र का प्रणयन हि�ंदी भाषा �ें हिकया। ऐसा �ाना जाता �ै हिक स्वा�ी रा�ानन्द हिवक्षिभन्न परिरवेशों के बीच एक सेतु की भूमि�का का हिनवाB� करते े। वे नर और नारायण के बीच एक सेतु े; शूद्र और ब्राह्मण के बीच एक सेतु े; हि�न्दू और हि�ंदूतरके बीच एक सेतु े; देवभाषा (संस्कृत) और लोकभाषा(हि�न्दी) के बीच एक सेतु े। स्वा�ी रा�ानन्द ने कुल सात गं्रों की रचना की, दो संस्कृत �ें और पांच हि�ंदी �ें।उनके द्वारा रथिचत पुस्तकों की सूची इस प्रकार �ै:

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(1) वैष्णव�ताब्जभास्कर: (संस्कृत), (2) श्रीरा�ाचBनपद्धहित:(संस्कृत), (3) रा�र2ास्तोत्र(हि�ंदी), (4) थिसद्धान्तपkल(हि�ंदी), (5) ज्ञानलीला(हि�ंदी), (6) ज्ञानहितलक(हि�न्दी), (7) योगथिचन्ता�क्षिण(हि�ंदी)। ऐसा �ाना जाता �ै हिक लगभग एक सौ ग्यार� वषB की दीघाBयु �ें स्वा�ी रा�ानन्द ने भगवत्सायुज्यवरणहिकया। जीवन के अंहित� दिदनों �ें वे काशी से अयोध्या चले गए। व�ां वे एक गुफा�ें प्रवास करने लगे। एक दिदन प्रात:काल गुफासे शंख ध्वहिन सुनाई पडी। भ�ों ने गुफा�ें प्रवेश हिकया। व�ां न स्वा�ी जी का दे�शेषऔर न शंख। व�ां �ात्र पूजासा�ग्रीऔर उनकी चरणपादुका। भ�गण गुफासे चरणपादुका काशी ले आए और य�ां उसे पंचगंगाघाkपर स्थाहिपत कर दिदया। जिजस स्थान पर चरणपादुका की स्थापना हुई, उसे श्री�ठक�ा जाता �ै। श्री�ठपर एक नए भवन का हिन�ाBण सन् 1983 ई. �ें हिकया गया। स्वा�ी रा�ानन्द की गुरु थिशष्य परम्परा से �ी तुलसीदास, स्वा�ी अग्रदास, नाभादास जैसे रा�भ� कहिवयो का उदय हुआ।  र्गुोस्�ामी त�लसीदास  गोस्वा�ी तुलसीदास के जन्� काल के हिवषय �ें एकामिधक �त �ैं. बेनी�ाधव दास द्वारा रथिचत ‘गोसाईं चरिरत’ और ��ात्�ा रघुबरदास कृत ‘तुलसी चरिरत’ दोनों के अनुसार तुलसीदास का जन्� 1497 ई. �ें हुआ ा. थिशवसिसं� सरोज के अनुसार सन् 1526 ई. के लगभग हुआ ा. पं. रा�गुला� हिद्ववेदी इनका जन्� सन् 1532 ई. �ानते �ैं. य� हिनक्षिश्चत �ै हिक ये ��ाकहिव 16 वीं शताब्दी �ें हिवद्य�ान े.तुलसीदास �ध्यकाल के उन कहिवयों �ें से �ैं जिजन्�ोंने अपने बारे �ें जो ोड़ा-बहुत थिलखा �ै, व� बहुत का� का �ै.तुलसी का बचपन घोर दरिरद्रता एवं अस�ायवस्था �ें बीता ा. उन्�ोंने थिलखा �ै, �ाता-हिपता ने दुहिनया �ें पैदा करके �ुझे त्याग दिदया. हिवधाता ने भी �ेरे भाग्य �ें कोई भलाई न�ीं थिलखी. �ातु हिपता जग जाइ तज्यो, हिवमिध हू न थिलखी कछु भाल भलाई Iजैसे कुदिkल कीk को पैदा करके छोड़ देते �ैं वैसे की �ेरे �ाँ-बाप ने �ुझे त्याग दिदया: तनु जन्यो कुदिkल कीk ज्यों तज्यो �ाता हिपता हू I�नु�ानबाहुक �ें भी य� स्पQ �ै हिक अंहित� स�य �ें वे भयंकर बाहु-पीड़ा से ग्रस्त े. पाँव, पेk, सकल शरीर �ें पीड़ा �ोती ी, पूरी दे� �ें फोडे़ �ो गए े.य� �ान्य �ै हिक तुलसीदास की �ृत्यु सन् 1623 ई. �ें हुई.उनके जन्� स्थान के हिवषय �ें काफी हिववाद �ै. कोई उन्�ें सोरों का बताता �ै, कोई राजापुर का और कोई अयोध्या का. ज्यादातर लोगों का झुकाव राजापुर की �ी ओर �ै. उनकी रचनाओं �ें अयोध्या, काशी, थिचत्रकूk आदिद का वणBन बहुत आता �ै. इन स्थानों पर उनके जीवन का पयाBप्त स�य व्यतीत हुआ �ोगा.गोस्वा�ी तुलसीदास द्वारा रथिचत 12 गं्र प्रा�ाक्षिणक �ाने जाते �ैं.कृहितयां1. दो�ावली 2. कहिवतावली 3. गीतावली 4. रा�चरिरत�ानस 5. रा�ाज्ञाप्रश्न 6. हिवनयपहित्रका 7. रा�ललान�छू 8. पावBती�ंगल 9. जानकी�ंगल 10. बरवै रा�ायण 11. वैराग्य संदीहिपनी 12. श्रीकृष्णगीतावली नाभादास

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 नाभादास अग्रदासजी के थिशष्य बडे़ भ� और साधुसेवी े. सन् 1600 के लगभग वतB�ान े और तुलसीदासजी की �ृत्यु के बहुत पीछे तक जीहिवत र�े. इनका प्रथिसद्ध गं्र भ��ाल सन् 1585 ई. के पीछे बना और सन् 1712 �ें हिप्रयादासजी ने उसकी kीका थिलखी. इस गं्र �ें 200 भ�ों के च�त्कार पूणB चरिरत्र 316 छप्पयों �ें थिलखे गए �ैं. इन चरिरत्रों �ें पूणB जीवनवृत्त न�ीं �ै, केवल भथि� की �हि��ासूचक बातें थिलखी गई �ैं. इनका उ�ेश्य भ�ों के प्रहित जनता �ें पूज्यबुजिद्ध का प्रचार जान पड़ता �ै. व� उ�ेश्य बहुत अंशों �ें थिसद्ध भी हुआ.नाभाजी को कुछ लोग डो� बताते �ैं, कुछ 2हित्रय. ऐसा प्रथिसद्ध �ै हिक वे एकबार तुलसीदास से मि�लने काशी गए. पर उस स�य गोस्वा�ी ध्यान �ें े, इससे न मि�ल सके. नाभाजी उसी दिदन वृंदावन चले गए. ध्यान भंग �ोने पर गोस्वा�ीजी को बड़ा खेद हुआ और वे तुरंत नाभाजी से मि�लने वृंदावन चल दिदए. नाभाजी के य�ाँ वैष्णवों का भंडारा ा जिजस�ें गोस्वा�ीजी हिबना बुलाए जा पहुँचे. गोस्वा�ीजी य� स�झकर हिक नाभाजी ने �ुझे अक्षिभ�ानी न स�झा �ो, सबसे दूर एक हिकनारे बुरी जग� बैठ गए. नाभाजी ने जान बूझकर उनकी ओर ध्यान न दिदया. परसने के स�य कोई पात्र न मि�लता ा जिजस�ें गोस्वा�ीजी को खीर दी जाती. य� देखकर गोस्वा�ीजी एक साधु का जूता उठा थिलया और बोले, “इससे संुदर पात्र �ेरे थिलए और क्या �ोगा ?” इस पर नाभाजी ने उठकर उन्�ें गले लगा थिलया और गद-्गद ्�ो गए.अपने गुरू अग्रदास के स�ान इन्�ोंने भी रा�भथि� संबंधी कहिवता की �ै. ब्रजभाषा पर इनका अच्छा अमिधकार ा और पद्यरचना �ें अच्छी हिनपुणता ी.कृहित — 1. भ��ाल 2. अQया� स्�ामी अग्रदास  रा�ानंद के थिशष्य अनंतानंद और अनंतानंद के थिशष्य कृष्णदास पय�ारी े, कृष्णदास पय�ारी के थिशष्य अग्रदास जी े. सन् १५५६ के लगभग वतB�ान े. इनकी बनाई चार पुस्तकों का पता �ै. इनकी कहिवता उसी ढंग की �ै जिजस ढंग की कृष्णोपासक नंददासजी की.प्र�ुख कृहितयां �ै– 1. हि�तोपदेश उपखाणाँ बावनी 2. ध्यान�ंजरी 3. रा�ध्यान�ंजरी 4. रा�-अष्ट्या�अग्रदास जी का काव्य ब्रजभाषा �े �ै जिजस�े प्रवा� के सा परिरष्कार भी �ै। संुदर पद-रचना और अलंकारो के प्रयोग से य� प्र�ाक्षिणत �ोता �ै हिक इन्�ें शास्त्रीय साहि�त्य का अच्छा ज्ञान ा। चौपाई:-जीव �ात्र से दै्वस न राखै। सो थिसय रा� ना� रस चाखै।१।दीन भाव हिनज उर �ें लावै। थिसया रा� सन्�ुख छहिव छावै।२।तौन उपासक ठीक �ै भाई। वाकी स�ुझौ बनी बनाई।३।थिसयारा� हिनथिश वासर ध्यावै। अन्त त्याहिग तन गभB न आवै।४। दो�ा:-अग्रदास क� धन्य सो, जाहि� दिदयो गुरु ज्ञान।सो तन लीन्�ो सुफल कै, छूkा दुःख ��ान।१। ‘अग्रअली’ ना� से अग्रदास स्वयं को जानकी जी की सखी �ानकर काव्य-रचना हिकया करते े। रा�भथि� परम्परा �ें रथिसक-भावना के स�ावेश का श्रेय इन्�ीं को प्राप्त �ै। 

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हृदयराम  ये पंजाब के र�नेवाले और कृष्णदास के पुत्र े. इन्�ोंने सन् 1623 �ें संस्कृत के �नु�न्नाkक के आधार पर भाषा �नु�न्नाkक थिलखा जिजसकी कहिवता बड़ी संुदर और परिर�ार्जिजंत �ै. इस�ें अमिधकतर कहिवता और सवैये �ें बडे़ अचे्छ संवाद �ैं. प्राणचंद चौहान  इनके व्यथि�त्व पर पयाBप्त हिववरण न�ीं मि�लता �ै. पं. रा�चंद्र शुक्ल जी के अनुसार:संस्कृत �ें रा�चरिरत संबंधी कई नाkक �ैं जिजन�ें कुछ तो नाkक के साहि�न्तित्यक हिनय�ानुसार �ैं और कुछ केवल संवाद रूप �ें �ोने के कारण नाkक क�े गए �ैं. इसी हिपछली पद्धहित पर संवत 1667 (सन् 1610 ई.) �ें इन्�ोंने रा�ायण ��ानाkक थिलखा. कृहित — 1. रा�ायण ��ानाkक केश�दास केशव का जन्� हितथि सं० १६१८ हिव० �े वतB�ान �ध्यप्रदेश राज्य के अंतगBत ओरछा नगर �ें हुआ ा। ओरछा के व्यासपुर �ो�ल्ले �ें उनके अवशेष मि�लते �ैं। ओरछा के ��त्व और उसकी स्थिस्थहित के सम्बन्ध �ें केशव ने स्वयं अनेक भावनात्�क कन क�े �ैं। जिजनसे उनका स्वदेश पे्र� झलकता �ै। आचायB केशव की रा�भथि� से सम्बत्मिन्धत कॄहित “रा�चंदिद्रका” �ै।“रा�चजिन्द्रका’ संस्कृत के परवतg ��ाकाव्यों की वणBन-बहुल शैली का प्रहितहिनमिधत्व करती �ै। “रा�चजिन्द्रका’ के भाव-हिवधान �ें शान्त रस का भी ��त्वपूणB स्थान �ै। अहित्र-पत्नी अनसूया के थिचत्र से ऐसा प्रकk �ोता �ै जैसे स्वयं ‘हिनव«द’ �ी अवतरिरत �ो गया �ो। वृद्धा अनसूया के कांपते शरीर से �ी हिनव«द के संदेश की कल्पना कहिव कर लेता �ै: कांपहित शुभ ग्रीवा, सब अंग सींवां, देखत थिचत्त भुला�ीं ।जनु अपने �न पहित, य� उपदेशहित, या जग �ें कछु ना�ीं ।। अंगद-रावण �ें शान्त की सो�ेश्य योजना �ै। अंगद रावण को कुप से हिव�ुख करने के थिलए एक वैराग्यपूणB उथि� क�ता �ै। अन्त �ें व� क�ता �ै - “चेहित रे चेहित अजौं थिचत्त अन्तर अन्तक लोक अकेलोई ज ै�ै।” य� वैराग्य पूणB चेतावनी सुन्दर बन पड़ी �ै। सेनापवित हि�ंदी-साहि�त्य के इहित�ास �ें ऐसे अनेक कहिव हुए �ैं जिजनके कृहितत्त्व तो प्राप्त �ैं, परंतु व्यथि�त्त्व के हिवषय �ें कुछ भी ठीक से पता न�ीं �ै। भथि�काल की स�ान्तिप्त और रीहितकाल के प्रारंभ के संमिधकाल �े भी एक ��ाकहिव हुए �ैं जिजनके जीवन के हिवषय �ें जानकारी के ना� पर �ात्र उनका थिलखा एक कहिवत्त �ी �ै, ऐसे ��ाकहिव ‘सेनापहित’ के हिवषय �ें कहिवत्त �ै“दीक्षि2त परसरा�, दादौ �ै हिवदिदत ना�,जिजन कीने यज्ञ, जाकी जग �ें बढ़ाई �ै।

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गंगाधर हिपता, गंगाधार �ी स�ान जाकौ,गंगातीर बसहित अनूप जिजन पाई �ै।��ाजाहिन �हिन, हिवद्यादान हूँ कौ सिचंता�हिन,�ीरा�हिन दीक्षि2त पै तैं पाई पंहिडताई �ै।सेनापहित सोई, सीतापहित के प्रसाद जाकी,सब कहिव कान दै सुनत कहिवताई �ैं॥” य�ी कहिवत्त सेनापहित के जीवन परिरचय का आधार �ै। इसके आधार पर हिवद्वानों ने सेनापहित के हिपता�� का ना� परसरा� दीक्षि2त और हिपता का ना� गंगाधर �ाना �ैं। ‘गंगातीर बसहित अनूप जिजन पाई �ै’ के आधार पर उन्�ें उत्तर-प्रदेश के गंगा-हिकनारे बसे अनूपश�र क़स्बे का �ाना �ै। सेनापहित के हिवषय �ें हिवद्वानों ने �ाना �ै हिक उन्�ोंने ‘काव्य-कल्पद्रु�’ और ‘कहिवत्त-रत्नाकर’ ना�क दो गं्रों की रचना की ी। ‘काव्यकल्पद्रु�’ का कुछ पता न�ीं �ै। ‘कहिवत्तरत्नाकर’ उनकी एक �ात्र प्राप्त कृहित �ै। इस हिवषय �ें डॉ. चंद्रपाल श�ाB ने क�ीं थिलखा �ै-”सन १९२४ �ें जब प्रयाग हिवश्वहिवद्यालय �ें हि�ंदी का अध्ययन अध्यापन प्रारंभ हुआ, तब कहिववर सेनापहित के एक�ात्र उपलब्ध गं्र ‘कहिवत्त-रत्नाकर’ को ए�.ए. के पाठ्यक्र� �ें स्थान मि�ला ा। उस स�य इस गं्र की कोई प्रकाथिशत प्रहित उपलब्ध न�ीं ी। अतः केवल कुछ �स्तथिलखिखत पोथियाँ एकहित्रत करके पढ़ाई प्रारंभ की ी।कहिव की हिनम्नथिलखिखत पंथि�यों के आधार पर ‘कहिवत्त-रत्नाकर’ के हिवषय �ें �ाना जाता र�ा �ै हिक उन्�ोंने इसे सत्र�वीं शताब्दी के उतराधB �ें रचा �ोगा-“संवत सत्र� सै �ैं सेई थिसयापहित पांय,सेनापहित कहिवता सजी, सज्जन सजौ स�ाई।”सेनापहित कॄत ‘कहिवत्त-रत्नाकर’ की चतुB तरंग �ें ७६ कहिवत्त �ैं जिजन�ें रा�का �ु� रुप �ें थिलखी �ै।-“कुस लव रस करिर गाई सुर धुहिन कहि�,भाई �न संतन के हित्रभुवन जाहिन �ै।देबन उपाइ कीनौ य�ै भौ उतारन कौं,हिबसद बरन जाकी सुधार स� बानी �ै।भुवपहित रुप दे� धारी पुत्र सील �रिरआई सुरपुर तैं धरहिन थिसयाराहिन �ै।तीर सरब थिसरो�हिन सेनापहित जाहिन,रा� की क�नी गंगाधार सी बखानी �ै।”पाँचवी तरंग �ें ८६ कहिवत्त �ैं, जिजन�ें रा�-रसायन वणBन �ै। इन�ें रा�, कृष्ण, थिशव और गंगा की �हि��ा का गान �ै। ‘गंगा-�हि��ा’ दृQव्य �ै-“पावन अमिधक सब तीर तैं जाकी धार,ज�ाँ �रिर पापी �ोत सुरपुरपहित �ै।देखत �ी जाकौ भलौ घाk पहि�चाहिनयत,एक रुप बानी जाके पानी की र�हित �ै।बड़ी रज राखै जाकौ ��ा धीर तरसत,सेनापहित ठौर-ठौर नीकी यैं ब�हित �ै।पाप पतवारिर के कतल करिरबै कौं गंगा,पुन्य की असील तरवारिर सी लसहित �ै।”सेनापहित ने अपने काव्य �ें सभी रसों को अपनाया �ै। ब्रज भाषा �ें थिलखे पदों �ें फारसी और संस्कृत के

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शब्दों का भी प्रयोग हिकया �ै। अलंकारों की बात करें तो सेनापहित को शे्लष से तो हिवशेष �ो� ा।

कृष्णभ� कवि�Posted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: September 17, 2008

In: 2 भथि� काल Comment!

कृष्णभक्ति� शाखा के प्रम�ख कवि�यों का परिरचयसूरदास, नंददास, कृष्णदास, पर�ानंद, कंुभनदास, चतुभुBजदास, छीतस्वा�ी, गोहिवन्दस्वा�ी, हि�त�रिरवंश, गदाधर भट्ट, �ीराबाई, स्वा�ी �रिरदास, सूरदास-�दन�ो�न, श्रीभट्ट, व्यास जी, रसखान, ध्रुवदास, चैतन्य ��ाप्रभु । सूरदास हि�न्दी साहि�त्य के श्रेष्ठ कृष्णभ� कहिव सूरदास का जन्� 1483 ई. के आस-पास हुआ ा. इनकी �ृत्यु अनु�ानत: 1563 ई. के आस-पास हुई. इनके बारे �ें ‘भ��ाल’ और ‘चौरासी वैष्णवन की वाताB’ �ें ोड़ी-बहुत जानकारी मि�ल जाती �ै. ‘आईने अकबरी’ और ‘�ुंथिशयात अब्बुलफजल’ �ें भी हिकसी संत सूरदास का उल्लेख �ै, हिकन्तु वे बनारक के कोई और सूरदास प्रतीत �ोते �ैं. अनुश्रुहित य� अवश्य �ै हिक अकबर बादशा� सूरदास का यश सुनकर उनसे मि�लने आए े. ‘भ��ाल’ �ें इनकी भथि�, कहिवता एवं गुणों की प्रशंसा �ै ता इनकी अंधता का उल्लेख �ै. ‘चौरासी वैष्णवन की वाताB’ के अनुसार वे आगरा और �ुरा के बीच साधु या स्वा�ी के रूप �ें र�ते े. वे वल्लभाचायB के दशBन को गए और उनसे लीलागान का उपदेश पाकर कृष्ण-चरिरत हिवषयक पदों की रचना करने लगे. कालांतर �ें श्रीना जी के �ंदिदर का हिन�ाBण �ोने पर ��ाप्रभु वल्लभाचायB ने इन्�ें य�ाँ कीतBन का कायB सौंपा.सूरदास के हिवषय �ें क�ा जाता �ै हिक वे जन्�ांध े. उन्�ोंने अपने को ‘जन्� को आँधर’ क�ा भी �ै. हिकन्तु इसके शब्दाB पर अमिधक न�ीं जाना चाहि�ए. सूर के काव्य �ें प्रकृहितयाँ और जीवन का जो सूक्ष्� सौन्दयB थिचहित्रत �ै उससे य� न�ीं लगता हिक वे जन्�ांध े. उनके हिवषय �ें ऐसी क�ानी भी मि�लती �ै हिक तीव्र अंतद्वBन्द्व के हिकसी 2ण �ें उन्�ोंने अपनी आँखें फोड़ ली ीं. उथिचत य�ी �ालू� पड़ता �ै हिक वे जन्�ांध न�ीं े. कालांतर �ें अपनी आँखों की ज्योहित खो बैठे े. सूरदास अब अंधों को क�ते �ैं. य� परम्परा सूर के अंधे �ोने से चली �ै. सूर का आशय ‘शूर’ से �ै. शूर और सती �ध्यकालीन भ� साधकों के आदशB े.कृहितयाँ1. सूरसागर   2. सूरसारावली   3. साहि�त्य ल�री ध्र��दास ये श्री हि�त�रिरवंश के थिशष्य स्वप्न �ें हुए े. इसके अहितरिर� उनका कुछ जीवनवृत्त प्राप्त न�ीं हुआ. वे अमिधकतर वृंदावन �ें �ी र�ा करते े. उनकी रचना बहुत �ी हिवस्तृत �ै और इन्�ोंने पदों के अहितरिर� दो�, चौपाई, कहिवत्त, सवैये आदिद अनेक छंदों �ें भथि� और पे्र�तत्वों का वणBन हिकया �ै. कृहितयाँ- 1. वृंदावनसत 2. सिसंगारसत 3. रसरत्नावली 4. ने��ंजरी 5. र�स्य�ंजरी 6. सुख�ंजरी 7. रहित�ंजरी 8. वनहिव�ार 9. रंगहिव�ार 10. रसहिव�ार 11. आनंददसाहिवनोद 12. रंगहिवनोद 13. नृत्यहिवलास

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14. रंगहुलास 15. �ान रसलीला 16. र�सलता 17. पे्र�लता 18. पे्र�ावली 19. भजनकुडथिलया 20. भ�ना�ावली । रसखान  ये दिदल्ली के एक पठान सरदार े. ये लौहिकक पे्र� से कृष्ण पे्र� की ओर उन्�ुख हुए. ये गोस्वा�ी हिवट्ठलना के बडे़ कृपापात्र थिशष्य े. रसखान ने कृष्ण का लीलागान गेयपदों �ें न�ीं, सवैयों �ें हिकया �ै. रसखान को सवैया छंद थिसद्ध ा. जिजतने स�ज, सरस, प्रवा��य सवैये रसखान के �ैं, उतने शायद �ी हिकसी अन्य कहिव के �ों. रसखान का कोई ऐसा सवैया न�ीं मि�लता जो उच्च स्तर का न �ो. उनके सवैये की �ार्मि�कंता का बहुत बड़ा आधार दृश्यों और बाह्यांतर स्थिस्थहितयों की योजना �ें �ै. व�ी योजना रसखान के सवैयों के ध्वहिन-प्रवा� �ें �ै. ब्रजभाषा का ऐसा स�ज प्रवा� अन्यत्र बहुत क� मि�लता �ै.रसखान सूहिफ़यों का हृदय लेकर कृष्ण की लीला पर काव्य रचते �ैं. उन�ें उल्लास, �ादकता और उत्कkता तीनों का संयोग �ै. ब्रज भूमि� के प्रहित जो �ो� रसखान की कहिवताओं �ें दिदखाई पड़ता �ै, व� उनकी हिवशेषता �ै.कृहितयाँ1. पे्र�वादिkका2. सुजान रसखान व्यास जी  इनका पूरा ना� �रीरा� व्यास ा और वे ओरछा के र�नेवाले े. ओरछानरेश �धुकर शा� के ये राजगुरू े. प�ले ये गौड़ सम्प्रदाय के वैष्णव े पीछे हि�त�रिरवंशजी के थिशष्य �ोकर राधाबल्लभी �ो गए. इनका स�य सन् 1563 ई. के आसपास �ै.इनकी रचना परिर�ाण �ें भी बहुत हिवस्तृत �ै और हिवषय भेद के हिवचार से भी अमिधकांश कृष्णभ�ों की अपे2ा व्यापक �ै. ये श्रीकृष्ण की बाललीला और श्रृंगारलीला �ें लीन र�ने पर भी बीच �ें संसार पर दृमिQ डाला करते े. इन्�ोंने तुलसीदास के स�ान खलों, पाखंहिडयों आदिद का भी स्�रण हिकया और रसखान के अहितरिर� तत्वहिनरूपण �ें भी ये प्रवृत्त हुए �ैं.कृहितयाँ1. रासपंचाध्यायी स्�ामी हरिरदास ये ��ात्�ा वृंदावन �ें हिनंबाकB �तांतगBत kट्टी संप्रदाय, जिजसे सखी संप्रदाय भी क�ते �ै, के संस्थापक े और अकबर के स�य �ें एक थिसद्ध भ� और संगीत-कला-कोहिवद �ाने जाते े. कहिवताकाल सन् 1543 से 1560 ई. ठ�रता �ै. प्रथिसद्ध गायनाचायB तानसेन इनका गुरूवत् सम्�ान करते े. य� प्रथिसद्ध �ै हिक अकबर बादशा� साधु के वेश �ें तानसेन के सा इनका गाना सुनने के थिलए गया ा. क�ते �ैं हिक तानसेन इनके सा�ने गाने लगे और उन्�ोंने जानबूझकर गाने �ें कुछ भूल कर दी. इसपर स्वा�ी �रिरदास ने उसी गाना को शुद्ध करके गाया. इस युथि� से अकबर को इनका गाना सुनने का सौभाग्य प्राप्त �ो गया. पीछे अकबर ने बहुत कुछ पूजा चढ़ानी चा�ी पर इन्�ोंने स्वीकृन न की.इनका जन्� स�य कुछ ज्ञात न�ीं �ै.कृहितयाँ

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1. स्वा�ी �रिरदास जी के पद2. �रिरदास जी की बानी मीराबाई ये �ेड़हितया के राठौर रत्नसिसं� की पुत्री, राव दूदाजी की पौत्री और जोधपुर के बसानेवाले प्रथिसद्ध राव जोधाजी की प्रपौत्री ीं. इनका जन्� सन् 1516 ई. �ें चोकड़ी ना� के एक गाँव �ें हुआ ा और हिववा� उदयपुर के ��ाराणा कु�ार भोजराज जी के सा हुआ ा. ये आरंभ से �ी कृष्ण भथि� �ें लीन र�ा करती ी. हिववा� के उपरांत ोडे़ दिदनों �ें इनके पहित का परलोकवास �ो गया. ये प्राय: �ंदिदर �ें जाकर उपस्थिस्थत भ�ों और संतों के बीच श्रीकृष्ण भगवान् की �ूतg के सा�ने आनंद�ग्न �ोकर नाचती और गाती ी. क�ते �ैं हिक इनके इस राजकुलहिवरूद्ध आचरण से इनके स्वजन लोकहिनंदा के भय से रूQ र�ा करते े. य�ाँ तक क�ा जाता �ै हिक इन्�ें कई बार हिवष देने का प्रयत्न हिकया गया, पर हिवष का कोई प्रभाव इन पर न हुआ. घरवालों के व्यव�ार से खिखन्न �ोकर ये द्वारका और वृंदावन के �ंदिदरों �ें घू�-घू�कर भजन सुनाया करती ीं. ऐसा प्रथिसद्ध �ै हिक घरवालों से तंग आकर इन्�ोंने गोस्वा�ी तुलसीदासजी को य� पद थिलखकर भेजा ा: स्वस्तिस्त श्री तुलसी कुल भूषन दूषन �रन गोसाईं Iबारहि�ं बार प्रना� करहुँ, अब �रहु सोक स�ुदाई IIघर के स्वजन ��ारे जेते सबन्� उपामिध बढ़ाई IIसाधु संग अरू भजन करत �ोहि�ं देत कलेस ��ाई II�ेरे �ात हिपता के स� �ौ, �रिरभ�न्� सुखदाई II��को क�ा उथिचत करिरबो �ै, सो थिलखिखए स�झाई IIइस पर गोस्वा�ी जी ने ‘हिवनयपहित्रका’ का य� पद थिलखकर भेजा ा : जाके हिप्रय न रा� बैदे�ी Iसो नर तजिजय कोदिk बैरी स� जद्यहिप पर� सने�ी IIनाते सबै रा� के �हिनयत सुहृद सुसेव्य ज�ाँ लौं Iअंजन क�ा आँखिख जौ फूkै, बहुतक क�ौं क�ाँ लौं II�ीराबाई की �ृत्यु द्वारका �ें सन् 1546 ई. �ें �ो चुकी ी. अत: य� जनश्रुहित हिकसी की कल्पना के आधार पर �ी चल पड़ी.�ीराबाई का ना� प्रधान भ�ों �ें �ै और इनका गुणगान नाभाजी, ध्रुवदास, व्यास जी, �लूकदास आदिद सब भ�ों ने हिकया �ै.कृहितयाँ1. नरसी जी का �ायरा2. गीतगोहिवंद kीका3. राग गोहिवंद4. राग सोरठ के पद र्गुदाधर भट्ट ये दक्षि2णी ब्राह्मण े. इनके जन्� का स�य ठीक से पता न�ीं, पर य� बात प्रथिसद्ध �ै हिक ये श्री चैतन्य

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��ाप्रभु को भागवत सुनाया करते े. इनका स�Bन भ��ाल की इन पंथि�यों से भी �ोता �ै: भागवत सुधा बरखै बदन, काहू को नाहि�ंन दुखद Iगुणहिनकर गदाधर भट्ट अहित सबहि�न को लागै सुखद II संस्कृत के चूडांत पंहिडत �ोने के कारण शब्दों पर इनका बहुत हिवस्तृत अमिधकार ा. इनका पदहिवन्यास बहुत �ी संुदर �ै. विहतहरिर�ंश राधावल्लभी सम्प्रदाय के प्रवतBक गोसाईं हि�त�रिरवंश का जन्� सन् 1502 ई. �ें �ुरा से 4 �ील दक्षि2ण बादगाँव �ें हुआ ा. राधावल्लभी सम्प्रदाय के पंहिडत गोपालप्रसाद श�ाB ने इनका जन्� सन् 1473 ई. �ाना �ै.इनके हिपता को ना� केशवदास मि�श्र और �ाता का ना� तारावती ा.क�ते �ैं हिक हि�त�रिरवंश प�ले �ाध्वानुयायी गोपाल भट्ट के थिशष्य े. पीछे इन्�ें स्वप्न �ें रामिधकाजी ने �ंत्र दिदया और इन्�ोंने अपना एक अलग संप्रदाय चलाया. अत: हि�त सम्प्रदाय को �ाध्व संप्रदाय के अंतगBत �ान सकते �ैं. हि�त�रिरवंश के चार पुत्र और एक कन्या हुई. गोसाईं जी ने सन् 1525 ई. �ें श्री राधावल्लभ जी की �ूतg वृंदावन �ें स्थाहिपत की और व�ीं हिवर� भाव से र�ने लगे. ये संस्कृत के अचे्छ हिवद्वान और भाषा काव्य के अचे्छ ��Bज्ञ े. ब्रजभाषा की रचना इनकी यद्यहिप बहुत हिवस्तृत न�ीं �ै ताहिप बड़ी सरस और हृदयग्राहि�णी �ै.कृहितयाँ– 1. राधासुधाहिनमिध   2. हि�त चौरासी र्गुोवि�न्दस्�ामी ये अंतरी के र�नेवाले सनाढ्य ब्राह्मण े जो हिवर� की भाँहित आकर ��ावन �ें र�ने लगे े. पीछे गोस्वा�ी हिवट्ठलना जी के थिशष्य हुए जिजन्�ोंने इनके रचे पदों से प्रसन्न �ोकर इन्�ें अQछाप �ें थिलया. ये गोवधBन पवBत पर र�ते े और उसके पास �ी इन्�ोंने कदंबों का एक अच्छा उपवन लगाया ा जो अब तक ‘गोहिवन्दस्व�ी की कदंबखडी’ क�लाता �ै.इनका रचनाकाल सन् 1543 और 1568 ई. के भीतर �ी �ाना जा सकता �ै.वे कहिव �ोने के अहितरिर� बडे़ पक्के गवैये े. तानसेन कभी-कभी इनका गाना सुनने के थिलए आया करते े. छीतस्�ामी हिवट्ठलना जी के थिशष्य और अQछाप के अंतगBत े. प�ले ये �ुरा के सुसम्पन्न पंडा े और राजा बीरबल जैसे लोग इनके जज�ान े. पंडा �ोने के कारण ये प�ले बडे़ अक्खड़ और उ�ंड े, पीछे गोस्वा�ी हिवट्ठलना जी से दी2ा लेकर पर� शांत भ� �ो गए और श्रीकृष्ण का गुणानुवाद करने लगे.इनकी रचनाओं का स�य सन् 1555 ई. के इधर �ान सकते �ैं.इनके पदों �ें श्रृंगार के अहितरिर� ब्रजभूमि� के प्रहित पे्र�वं्यजना भी अच्छी पाई जाती �ै. ‘�े हिवधना तोसों अँचरा पसारिर �ाँगौ जन� जन� दीजो या�ी ब्रज बथिसबो’

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पद इन्�ीं का �ै. चत�भ��जदास ये कंुभनदास जी के पुत्र और गोसाईं हिवट्ठलना जी के थिशष्य े. ये भी अQछाप के कहिवयों �ें �ैं. इनकी भाषा चलती और सुव्यवस्थिस्थत �ै. इनके बनाए तीन गं्र मि�ले �ैं.कृहितयाँ1. द्वादशयश    2. भथि�प्रताप    3. हि�तजू को �ंगल क�ं भनदास ये भी अQछाप के एक कहिव े और पर�ानंद जी के �ी स�कालीन े. ये पूरे हिवर� और धन, �ान, �याBदा की इच्छा से कोसों दूर े. एक बार अकबर बादशा� के बुलाने पर इन्�ें फत�पुर सीकरी जाना पड़ा ज�ाँ इनका बड़ा सम्�ान हुआ. पर इसका इन्�ें बराबर खेद �ी र�ा, जैसा हिक इस पद से वं्यजिजत �ोता �ै: संतन को क�ा सीकरी सो का� ?आवत जात पनहि�याँ kूkी, हिबसरिर गयो �रिर ना�जिजनको �ुख देखे दुख उपजत, हितनको करिरबे परी सला�कंुभनदास लाल हिगरिरधर हिबनु और सबै बेका�.इनका कोई गं्र न तो प्रथिसद्ध �ै और न अब तक मि�ला �ै. परमानंद य� वल्लभाचायB जी के थिशष्य और अQछाप �ें े. सन् 1551 ई. के आसपास वतB�ान े. इनका हिनवास स्थान कन्नौज ा. इसी से ये कान्यकुब्ज अनु�ान हिकए जाते �ैं. अत्यंत तन्�यता के सा बड़ा �ी सरलकहिवता करते े. क�ते �ैं हिक इनके हिकसी एक पद को सुनकर आचायBजी कई दिदनों तक बदन की सुध भूले र�े. इनके फुkकल पद कृष्णभ�ों के �ुँ� से प्राय: सुनने को आते �ैं.कृहितयाँ  –  1. पर�ानंदसागर कृष्णदास जन्�ना शूद्र �ोते हुए भी वल्लभाचायB के कृपा-पात्र े और �ंदिदर के प्रधान �ो गए े. ‘चौरासी वैष्णवों की वाताB’ के अनुसार एक बार गोसाईं हिवट्ठलनाजी से हिकसी बात पर अप्रसन्न �ोकर इन्�ोंने उनकी ड्योढ़ी बंद कर दी. इस पर गोसाईं के कृपापात्र ��ाराज बीरबल ने इन्�ें कैद कर थिलया. पीछे गोसाईं जी इस बात से बडे़ दुखी हुए और उनको कारागार से �ु� कराके प्रधान के पद पर हिफर ज्यों का त्यों प्रहितमिष्ठत कर दिदया. इन्�ोंने भी और सब कृष्ण भ�ों के स�ान राधाकृष्ण के पे्र� को लेकर श्रृंगार रस के �ी पद गाए �ैं. ‘जुगल�ान चरिरत’ ना�क इनका एक छोkा सा गं्र मि�लता �ै. इसके अहितरिर� इनके बनाए दो गं्र और क�े जाते �ैं-भ्र�रगीत और पे्र�तत्व हिनरूपण.इनका कहिवताकाल सन् 1550 क आगे पीछे �ाना जाता �ै. कृहितयाँ  –  1. जुगल�ान चरिरत  2. भ्र�रगीत   3. पे्र�तत्व हिनरूपण

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 श्रीभट्ट ये हिनंबाकB सम्प्रदाय के प्रथिसद्ध हिवद्वान केशव काश्�ीरी के प्रधान थिशष्य े. इनका जन्� सन् 1538 ई. �ें अनु�ान हिकया जाता �ै. इनकी कहिवता सीधी-सादी और चलती भाषा �ें �ै. पद भी प्राय: छोkे-छोkे �ैं. ऐसा प्रथिसद्ध �ै हिक जब ये तन्�य �ोकर अपने पद गाने लगते े तब कभी-कभी उस पद के ध्यानानुरूप इन्�ें भगवान की झलक प्रत्य2 मि�ल जाती ी. कृहितयाँ-1. युगल शतक 2. आदिद बानी सूरदास मदनमोहन ये अकबर के स�य �ें संडीले के अ�ीन े. ये जो कुछ पास �ें आता प्राय: साधुओं की सेवा �ें लगा दिदया करते े. क�ते �ैं हिक एक बार संडीले त�सील की �ालगुजारी के कई लाख रूपये सरकारी खजाने �ें आए े. इन्�ोंने सब का सब साधुओं को खिखलाहिपला दिदया और शा�ी खजाने �ें कंकड़-पत्थरों से भरे संदूक भेज दिदए जिजनके भीतर कागज के थिचk य� थिलख कर रख दिदए:तेर� लाख सँडीले आए, सब साधुन मि�थिल गkके Iसूरदास �दन�ो�न आधी रातहि�ं सkके IIऔर आधी रात को उठकर क�ीं भाग गए. बादशा� ने इनका अपराध 2�ा करके इन्�ें हिफर बुलाया, पर ये हिवर� �ोकर वृंदावन �ें र�ने लगे. इनकी कहिवता इतनी सरस �ोती ी हिक इनके बनाए बहुत से पद सूरसागर �ें मि�ल गए. इनकी कोई पुस्तक प्रथिसद्ध न�ीं.इनका रचनाकाल सन् 1533 ई. और 1543 ई. के बीच अनु�ान हिकया जाता �ै.   नंददास नंददास 16 वीं शती के अंहित� चरण �ें हिवद्य�ान े. इनके हिवषय �ें ‘भ��ाल’ �ें थिलखा �ै: ‘चन्द्र�ास-अग्रज सुहृद पर� पे्र� �ें पगे’इससे इतना �ी सूथिचत �ोता �ै हिक इनके भाई का ना� चंद्र�ास ा. ‘दो सौ बावन वैष्णवन की वाताB’ के अनुसार ये तुलसीदास के भाई े, हिकन्तु अब य� बात प्रा�ाक्षिणक न�ीं �ानी जाती. उसी वाताB �ें य� भी थिलखा �ै हिक द्वारका जाते हुए नंददास सिसंधुनद ग्रा� �ें एक रूपवती खत्रानी पर आस� �ो गए. ये उस स्त्री के घर �ें चारो ओर चक्कर लगाया करते े. घरवाले �ैरान �ोकर कुछ दिदनों के थिलए गोकुल चले गए. व�ाँ भी वे जा पहुँचे. अंत �ें व�ीं पर गोसाईं हिवट्ठलना जी के सदुपदेश से इनका �ो� छूkा और ये अनन्य भ� �ो गए. इस का �ें ऐहित�ाथिसक तथ्य केवल इतना �ी �ै हिक इन्�ोंने गोसाईं हिवट्ठलना जी से दी2ा ली.इनके काव्य के हिवषय �ें य� उथि� प्रथिसद्ध �ै: ‘और कहिव गदिढ़या, नंददास जहिड़या’ इससे प्रकk �ोता �ै हिक इनके काव्य का कला-प2 ��त्त्वपूणB �ै. इनकी रचना बड़ी सरस और �धुर �ै. इनकी सबसे प्रथिसद्ध पुस्तक ‘रासपंचाध्यायी’ �ै जो रोला छंदों �ें थिलखी गई �ै. इस�ें जैसा हिक ना� से �ी

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प्रकk �ै, कृष्ण की रासलीला का अनुप्रासादिदयु� साहि�न्तित्यक भाषा �ें हिवस्तार के सा वणBन �ै. कृहितयाँ—पद्य रचना1. रासपंचाध्यायी 2. भागवत दश� स्कंध 3. रूस्थिक्�णी�ंगल 4. थिसद्धांत पंचाध्यायी 5. रूप�ंजरी 6. �ान�ंजरी 7. हिवर��ंजरी 8. ना�सिचंता�क्षिण�ाला 9. अनेकाBना��ाला 10. दानलीला 11. �ानलीला 12. अनेकाB�ंजरी 13. ज्ञान�ंजरी 14. श्या�सगाई 15. भ्र�रगीत 16. सुदा�ाचरिरत्र      *—गद्यरचना 1. हि�तोपदेश 2. नाथिसकेतपुराण  चैतन्य महाप्रभ� चैतन्य ��ाप्रभु भथि�काल के प्र�ुख कहिवयों �ें से एक �ैं। इन्�ोंने वैष्णवों के गौड़ीय संप्रदाय की आधारथिशला रखी। भजन गायकी की एक नयी शैली को जन्� दिदया ता राजनैहितक अस्थिस्थरता के दिदनों �ें हि�ंदू �ुस्थिस्ल� एकता की सद्भावना को बल दिदया, जाहित-पांत, ऊंच-नीच की भावना को दूर करने की थिश2ा दी ता हिवलुप्त वृंदावन को हिफर से बसाया और अपने जीवन का अंहित� भाग व�ीं व्यतीत हिकया। चैतन्य ��ाप्रभु का जन्� सन १४८६ की फाल्गुन शुक्ल पूर्णिणं�ा को पक्षिश्च� बंगाल के नवद्वीप (नादिदया) ना�क उस गांव �ें हुआ, जिजसे अब �ायापुर क�ा जाता �ै। यहिप बाल्यावस्था �ें इनका ना� हिवशं्वभर ा, परंतु सभी इन्�ें हिन�ाई क�कर पुकारते े। गौरवणB का �ोने के कारण लोग इन्�ें गौरांग, गौर �रिर, गौर संुदर आदिद भी क�ते े। चैतन्य ��ाप्रभु के द्वारा गौड़ीय वैष्णव संप्रदाय की आधारथिशला रखी गई। उनके द्वारा प्रारंभ हिकए गए ��ा�ंत्र ना� संकीतBन का अत्यंत व्यापक व सकारात्�क प्रभाव आज पक्षिश्च�ी जगत तक �ें �ै। इनके हिपता का ना� जगन्ना मि�श्र व �ां का ना� शथिच देवी ा। हिन�ाई बचपन से �ी हिवल2ण प्रहितभा संपन्न े। सा �ी, अत्यंत सरल, संुदर व भावुक भी े। इनके द्वारा की गई लीलाओं को देखकर �र कोई �तप्रभ �ो जाता ा। बहुत क� उम्र �ें �ी हिन�ाई न्याय व व्याकरण �ें पारंगत �ो गए े। इन्�ोंने कुछ स�य तक नादिदया �ें स्कूल स्थाहिपत करके अध्यापन कायB भी हिकया। हिन�ाई बाल्यावस्था से �ी भगवदस्िचंतन �ें लीन र�कर रा� व कृष्ण का स्तुहित गान करने लगे े। १५-१६ वषB की अवस्था �ें इनका हिववा� लक्ष्�ीहिप्रया के सा हुआ। सन १५०५ �ें सपB दंश से पत्नी की �ृत्यु �ो गई। वंश चलाने की हिववशता के कारण इनका दूसरा हिववा� नवद्वीप के राजपंहिडत सनातन की पुत्री हिवष्णुहिप्रया के सा हुआ। जब ये हिकशोरावस्था �ें े, तभी इनके हिपता का हिनधन �ो गया। सन १५०९ �ें जब ये अपने हिपता का श्राद्ध करने गया गए, तब व�ां इनकी �ुलाकात ईश्वरपुरी ना�क संत से हुई। उन्�ोंने हिन�ाई से कृष्ण-कृष्ण रkने को क�ा। तभी से इनका सारा जीवन बदल गया और ये �र स�य भगवान श्रीकृष्ण की भथि� �ें लीन र�ने लगे। भगवान श्रीकृष्ण के प्रहित इनकी अनन्य हिनष्ठा व हिवश्वास के कारण इनके असंख्य अनुयायी �ो गए। सवBप्र� हिनत्यानंद प्रभु व अदै्वताचायB ��ाराज इनके थिशष्य बने। इन दोनों ने हिन�ाई के भथि� आंदोलन को तीव्र गहित प्रदान की। हिन�ाई ने अपने इन दोनों थिशष्यों के स�योग से ढोलक, �ृदंग, झाँझ, �ंजीरे आदिद वाद्य यंत्र बजाकर व उच्च स्वर �ें नाच-गाकर �रिर ना� संकीतBन करना प्रारंभ हिकया। ‘�रे-कृष्ण, �रे-कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण, �रे-�रे। �रे-रा�, �रे-रा�, रा�-रा�, �रे-�रे` ना�क अठार� शब्दीय कीतBन ��ा�ंत्र हिन�ाई की �ी देन �ै। जब ये कीतBन करते े, तो लगता ा �ानो ईश्वर का आह्वान कर र�े �ैं। सन १५१० �ें संत प्रवर श्री पाद केशव भारती से संन्यास की दी2ा लेने के बाद हिन�ाई का ना� कृष्ण चैतन्य देव �ो गया। बाद �ें ये चैतन्य ��ाप्रभु के ना� से प्रख्यात हुए।

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 चैतन्य ��ाप्रभु संन्यास लेने के बाद नीलांचल चले गए। इसके बाद दक्षि2ण भारत के श्री रंग 2ेत्र व सेतु बंध आदिद स्थानों पर भी र�े। इन्�ोंने देश के कोने-कोने �ें जाकर �रिरना� की ��त्ता का प्रचार हिकया। सन १५१५ �ें वृंदावन आए। य�ां इन्�ोंने इ�ली तला और अकूर घाk पर हिनवास हिकया। वृंदावन �ें र�कर इन्�ोंने प्राचीन श्रीधा� वृंदावन की ��त्ता प्रहितपादिदत कर लोगों की सुप्त भथि� भावना को जागृत हिकया। य�ां से हिफर ये प्रयाग चले गए। इन्�ोंने काशी, �रिरद्वार, शंृगेरी (कनाBkक), का�कोदिk पीठ (तमि�लनाडु), द्वारिरका, �ुरा आदिद स्थानों पर र�कर भगवदन्ा� संकीतBन का प्रचार-प्रसार हिकया। चैतन्य ��ाप्रभु ने अपने जीवन के अंहित� वषB जगन्ना पुरी �ें र�कर हिबताए। य�ीं पर सन १५३३ �ें ४७ वषB की अल्पायु �ें रयात्रा के दिदन उनका दे�ांत �ो गया। चैतन्य ��ाप्रभु ने लोगों की असी� लोकहिप्रयता और स्ने� प्राप्त हिकया क�ते �ैं हिक उनकी अद्भतु भगवद्भथि� देखकर जगन्ना पुरी के राजा तक उनके श्रीचरणों �ें नत �ो जाते े। बंगाल के एक शासक के �ंत्री रूपगोस्वा�ी तो �ंत्री पद त्यागकर चैतन्य ��ाप्रभु के शरणागत �ो गए े। उन्�ोंने कुष्ठ रोहिगयों व दथिलतों आदिद को अपने गले लगाकर उनकी अनन्य सेवा की। वे सदैव हि�ंदू-�ुस्थिस्ल� एकता का संदेश देते र�े। सा �ी, उन्�ोंने लोगों को पारस्परिरक सद्भावना जागृत करने की पे्ररणा दी। वस्तुत: उन्�ोंने जाहितगत भेदभाव से ऊपर उठकर स�ाज को �ानवता के सूत्र �ें हिपरोया और भथि� का अ�ृत हिपलाया। वे गौडीय संप्रदाय के प्र� आचायB �ाने जाते �ैं। उनके द्वारा कई गं्र भी रचे गए। उन्�ोंने संस्कृत भाषा �ें भी त�ा� रचनाए ंकी। उनका �ागB पे्र� व भथि� का ा। वे नारद जी की भथि� से अत्यंत प्रभाहिवत े, क्योंहिक नारद जी सदैव ‘नारायण-नारायण` जपते र�ते े। उन्�ोंने हिवश्व �ानव को एक सूत्र �ें हिपरोते हुए य� स�झाया हिक ईश्वर एक �ै। उन्�ोंने लोगों को य� �ुथि� सूत्र भी दिदया-’कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, कृष्ण केशव, पाहि�या�। रा� राघव, रा� राघव, रा� राघव, र2या�।` हि�ंदू ध�B �ें ना� जप को �ी वैष्णव ध�B �ाना गया �ै और भगवान श्रीकृष्ण को प्रधानता दी गई �ै। चैतन्य ने इन्�ीं की उपासना की और नवद्वीप से अपने छ� प्र�ुख अनुयामिययों (षड गोस्वामि�यों), गोपाल भट्ट गोस्वा�ी, रघुना भट्ट गोस्वा�ी, सनातन गोस्वा�ी, रूप गोस्वा�ी, जीव गोस्वा�ी, रघुना दास गोस्वा�ी को वृंदावन भेजकर व�ां गोहिवंददेव �ंदिदर, गोपीना �ंदिदर, �दन �ो�न �ंदिदर, राधा र�ण �ंदिदर, राधा दा�ोदर �ंदिदर, राधा श्या�संुदर �ंदिदर और गोकुलानंद �ंदिदर ना�क सप्त देवालयों की आधारथिशला रखवाई। लोग चैतन्य को भगवान श्रीकृष्ण का अवतार �ानते �ैं।

सर्गु�ण का अथ�Posted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 6, 2008

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पर� सत्ता ज�ां प्रकृहित के बन्धन से �ु� �ै, उसे हिनगुBण और ज�ां बन्धनयु� �ै, उसे सगुण क�ते �ैं। सगुण �ें भी दो हिवभाग �ैं। एक �ै उनका रूप और दूसरा अ-रूप। �नुष्य �ें जो बुजिद्ध, बोमिध ता �ैं-पन आदिद �ैं, वे सब अ-रूप �ैं। इन्�ें देखा न�ीं जा सकता। लेहिकन �नुष्य को तो देखा जा सकता �ै। उसी तर� सगुण ब्रह्मा की भी बुजिद्ध, बोमिध ता ‘�ैं-पन’ अ-रूप �ैं। इसी कारण �� उसे देख न�ीं सकते �ैं।

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दूसरा �ै रूपयु�। जैसे व्यथि� अपने �न या थिचत्त को न�ीं देख सकता �ै। परन्तु जैसे, �ाी के बारे �ें सोचते स�य उसके थिचत्त �ें �ाी का रूप साकार �ो उठता �ै -इतना स्पQ हिक �न उसे देख लेता �ै। इसथिलए थिचत्त भी कभी अ-रूप �ै और कभी रूपयु�। वैसे �ी पर�ात्�ा का थिचत्त भी रूपयु� �ै -य� दृश्य�ान जगत जिजसे �� हिवश्व क�ते �ैं, उनके थिचत्त �ें उभरने वाली आकृहित �ै। य� हिवश्व �ी रूप का स�ुद्र �ै और जब य� हिवषय �ोगा तब �न सगुण ब्रह्मा �ो जाएगा।

ज�ां सी�ा का बन्धन �ै, व�ीं रूप �ै। ज�ां सी�ा न�ीं �ै, असी� �ै, व�ी अ-रूप �ै। य�ां गुण र� भी सकता �ै और न�ीं भी। ज�ां गुण �ै उसे सगुण और ज�ां गुण न�ीं �ै, उसे हिनगुBण क�ते �ैं।

पर�ात्�ा का थिचत्त �ै हिवश्व। य� उनकी चैक्षित्तक सृमिQ �ै। य� रूपवान �ै, इसथिलए इस�ें सी�ा �ै।सगुण रूप �ें ईश्वर के साकार स्वरूप का ना� �ी अवतार �ै । र्षिनगंुण हिनराकार का ध्यान तो सम्भव न�ीं �ै, पर सगुण रूप �ें आकर व� इस संसार के काय? �ें हिफर क्र� और व्यवस्था उत्पन्न करते �ैं । ��ारा प्रत्येक अवतार सवB व्यापक चेततना सत्ता का �ूतB रूप �ै । श्री सुदशBनसिसं� ने थिलखा �ै-”अवतार शरीर प्रभु का हिनत्य-हिवग्र� �ै । व� न �ामियक �ै और न पाँच भौहितक । उस�ें सू्थल, सूक्ष्�, कारण शरीरों का भेद भी न�ीं �ोता । जैसे दीपक की ज्योहित �ें हिवशुद्ध अखिग्न �ै, दीपक की बत्ती की �ोkाई केवल उस अखिग्न क आकार का तkस्थ उपादान कारण �ै, ऐसे �ी भगवान का श्री हिवग्र� शुद्ध सथिचदानंदघन �ैं । भ� का भाव, भाव स्तर से उद्भतू �ै और भाव-हिबस्तर हिनत्य धा� से । भगवान का हिनत्य-हिवग्र� क�Bजन्य न�ीं �ै । जीवन की भाँहित हिकसी क�B का परिरणा� न�ीं �ै । व� स्वेच्छा�य �ै, इसी प्रकार भगवानवतार क�B भी आसथि� की का�ना या वासना के अवतार पे्ररिरत न�ीं �ै, दिदव्य लीला के रुप �ै । भगवान के अवतार के स�य उनके शरीर का बाल्य-कौ�ारादिद रूपों �ें परिरवतBन दीखता �ै, व� रूपों के आहिवभाBव ता हितरोभाव के कारण ।”जिजस पर�ात्�ा की वेदों �ें कहिवरूप �ें प्रशंसा की गई �ै अवा जिजसे क्रान्तदशg क�ा गया �ै, हिवद्वान् लोग जिजसके सम्बन्ध �ें य� क�ते �ैं हिक व� पर�ात्�ा दो रूपोंवाला �ै-सगुण और हिनगुBण �ै-दयालु आदिद गुणों के कारण व� सगुण �ै और हिनराकार, अकाय आदिद गुणों के कारण हिनगुBण �ै-ऐसे पर�ेश्वर को �नुष्यों �ें हिवद्वान् लोग अपने जीवन �ें धारण करते �ैं-प्रकk करते �ैं।

�नुष्य अपने थिचत्त �ें इस हिवश्व के जिजतने व्यापक रूप को धारण करेगा, उसका चैक्षित्तक हिवषय जिजतना बड़ा �ोगा, उसी के अनुसार उसकी श्रेष्ठता हिनधाBरिरत �ोगी। अत: साधना �ै �न के हिवषय को बड़ा बनाना।

स�ाज �ें �नुष्य यदिद एक हिवशेष जिजला, प्रान्त, देश आदिद को लेकर व्यस्त र�े तो उनका चैक्षित्तक हिवषय छोkा �ी र� जाएगा। उन�ें ब्रह्मा साधना कभी भी न�ीं �ो सकती। इसके थिलए उसे पूरे हिवश्व को अपने थिचत्त �ें धारण करना �ोगा। पर�ात्�ा के थिलए हि�न्दू-�ुसल�ान-थिसख-ईसाई आदिद कुछ न�ीं �ै। साधक का देश �ै हिवश्व-ब्रह्माण्ड और जाहित �ै जीव �ात्र।

धामि�कB साधना के थिलए संपूणB जगत को अपना आलम्बन (हिवषय) बनाना चाहि�ए। जो हिवश्व-एकतावाद का प्रचार करते �ैं, परन्तु �न �ें जिजलावाद, जाहितवाद ता देशवाद आदिद को प्रश्रय देते �ैं, वे कपkी �ैं। साधक को य� स�झना चाहि�ए हिक य� संपूणB हिवश्व �ेरा �ै और �� इस पूरे हिवश्व के �ैं।

स�ाज �ै �नुष्य की सा�ूहि�क संस्था। इस�ें एक सा�ूहि�क संगहित र�ती �ै। जब तक �नुष्य इस हिवश्व-एकतावाद को न�ीं अपनाएगा, तब तक स�ाज एक न�ीं बन सकता �ै। आदशB की क्षिभन्नता के अनुसार सबका क्षिभन्न-क्षिभन्न स�ाज बनता र�ेगा।

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हिवश्व शान्तिन्त के थिलए इसी थिसद्धांत को लेकर चलना �ोगा। इसी से ध�B की प्रहितष्ठा �ोगी। संप्रदायवाद और पंवाद के द्वारा य� कभी संभव न�ीं �ै। �ज�ब (रिरथिलजन) से जीवों की �ुथि� �ोने वाली न�ीं �ै। सवB-ध�B स�न्वय भी एक कपkाचरण �ै। हिवश्व स�भाव के थिलए हिनगुBण ब्रह्मा को �ी �ानना �ी पडे़गा ता पूरे हिवश्व को अपने थिचत्त �ें रखना �ोगा। इस हिवश्व-एकतावाद को छोड़कर और बाकी जिजतने भी �ागB �ैं, वे �ैं �ृत्यु के �ागB। �नुष्य को जीवन की साधना करनी चाहि�ए, न हिक �ौत की।

जगत �ें शान्तिन्त की प्रहितष्ठा के थिलए हिवश्व-एकतावाद को �ानना पडे़गा, हिकन्तु शान्तिन्त भी आपेक्षि2क सत्य �ै। पापी जब साधुओं के डर से थिसर झुकाकर चलता �ै, तब उसे सान्तित्वक शान्तिन्त क�ते �ैं और जब थिसर उठाकर चलता �ै, तब ता�थिसक शान्तिन्त क�ते �ैं। हिवश्व-एकतावाद जिजनका ध्येय �ै, वे अवश्य �ी सान्तित्वक प्रकृहित के व्यथि� �ोंगे। आत्�हिवभाजनी शथि� को जड़ से नQ करना �ोगा। इसके थिलए अपनी �ानथिसक ता आध्यात्मित्�क साधना के द्वारा हिनरंतर अपना चैक्षित्तक हिवकास करते र�ना �ोगा।

भगवान का अवतार नीहित और ध�B की स्थापना के थिलए �ोता र�ा �ै । जब स�ाज �ें पापों, मि�थ्याचारों, दूहिषतवृक्षित्तयों, अन्याय का बाहुल्य को जाता �ै, तब हिकसी न हिकसी रूप �ें पाप-हिनवृक्षित्त के थिलए भगवान का स्वरूप प्रकk �ोता �ै । व� एक असा�ान्य प्रहितभाली व्यथि� के रूप �ें �ोता �ै । उस�ें �र प्रकार की शथि� भरी र�ती ी । व� स्वाB, थिलप्सा के �द को, पाप के पुञ्ज को अपने आत्�-बल से दूर कर देता �ै । दुराचार, छल कपk, धोखा, भय, अन्याय के वातावरण को दूर कर �नुष्य के हृदय �ें हिवराज�ान देवत्व की स्थापना करता �ै ।

विनर्गु��ण काव्यधाराPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 6, 2008

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हि�न्दी साहि�त्य �ें संत कहिव जिजस हिवचारधारा को लेकर अपनी वाणी की रचना �ें प्रवृत्त हुये �ैं उनका �ूल थिसद्ध ता ना साहि�त्य �ें �ै। कई संत कहिवयों ने अपनी भाव-हिवभोर वाणी द्वारा आध्यात्मित्�क साधना ता भथि� अभ्युत्थान का कायB हिकया।संतों ने �ानव जीवन पर जोर देते हुये उसको साBक करने �ेतु सत्संग, ना�स्�रण, भजन-कीतBन, पूजन-अचBन, गुरू ��त्व, साधना ��त्व, योग �हि��ा, सद्वचन, �ाया हिनरूपण, संसार की असारता को दशाBया �ै। ये बातें उन्�ोंने सरल भाषा �ें स�ज रूप �ें क�ी �ैं।�ानव स�ुदाय �ें आस्था स्थाहिपत करने और उसे अपनाने के थिलए कई संतों ने हिनगुणB-सगुण साधना को अपनाया। इस�ें अवतारवाद को स्वीकार कर लेने के फलस्वरूप सगुण साधना को एक साकार आलम्बन मि�ल जाता �ै, जिजसके कारण उसे सा�ान्य अथिशक्षि2त व्यथि� भी स�ज �ी स्वीकार कर सकता �ै। हिनगुBण साधना का आलम्बन हिनराकार �ै, फलस्वरूप व� जन साधारण के थिलए ग्राह्य न�ीं �ो सकती। सा�ाजिजक उपयोहिगता की दृमिQ से सगुण साधना-हिनगुBण साधना की अपे2ा क�ीं अमिधक ��त्वपूणB �ै। हिकन्तु इस आधार पर हिनगुBण साधना की सत्ता या ��त्व के हिवषय �ें संदे� न�ीं हिकया जा सकता। �ालांहिक य� सत्य �ै हिक सगुण साधना �ें आस्था रखने वाले साधकों ने हिनगुBण साधना को लेकर तर�-तर� की शंकाएं उठायी �ैं। उनका �ूल तकB �ै हिक हिनगुBण ब्रह्मज्ञान का हिवषय तो �ो सकता �ै हिकंतु भथि� साधना का न�ीं, क्योंहिक

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साधना तो हिकसी साकार �ूतB और हिवथिशQ के प्रहित �ी उन्�ुख �ो सकती �ै। सा�ान्य जनता का हिवश्वास और आचरण भी इसी तकB की पुमिQ करता दिदखाई देता �ै। साधना के व्यथि�त्व स्वरूप के संबंध �ें क�ें तो ‘स्ने� पूवBक ध्यान �ी साधना �ै’ तो दूसरी ओर यदिद स्ने� पूवBक ध्यान �ी साधना �ै तो हिफर हिनगुBण की साधना �ें स्ने� पूवBक ध्यान क्यों न�ीं हिकया जा सकता?सा�ान्य रूप से य� �ाना जाता �ै हिक हिनगुBण साधना का संबंध ज्ञान �ागB के सा �ै और सगुण साधना का भथि� के सा। इसथिलए जब कोई हिनगुBण साधना की बात करता �ै तो जन स�ुदाय का ध्यान नैसर्षिगंक रूप से ज्ञान-�ागB की ओर जाता �ै, भथि� �ागB की ओर न�ीं, और इस प्रकार सगुण ब्रह्म का उल्लेख करते �ी भथि� �ागB अपनी स�ग्र पूजा-हिवमिध के सा उपस्थिस्थत �ो जाता �ै। इसका एक परिरणा� य� भी हुआ हिक भथि� और पूजा-अचBना अभेद �ाने जाने लगे। �ंदिदरों �ें जाना, भगवान पर दीप, अध्यB आदिद चढ़ाना, �ूर्षितं की सेवा करना औैर उसकी आरती आदिद उतारना साधना के अक्षिभन्न अंग �ाने जाने लगे।वस्तुत: हिनगुBण-सगुण साधना �ें उसकी अनुभूहित �ें बुहिनयादी स�ानता पाई जाती �ै। यदिद ब्रह्म के साकार और हिनराकार रूपों �ें गुणों की स�ानता �ै और साधना-पद्धहित �ें इन स�ान गुणों की स्वीकृहित भी �ो जाती �ै, तो हिनगुBण की साधना को स्वीकार करने �ें कोई आपक्षित्त न�ीं �ो सकती। जिजस प्रकार सगुण साधना के थिलए हिनगुBण की स्वीकृहित आवश्यक �ै, उसी प्रकार हिनगुBण साधना के थिलए सगुण की स्वीकृहित अहिनवायB �ै। ब्रह्म के दो रूप हिवद्य�ान �ैं सगुण और हिनगुBण। सगुण रूप की अपे2ा हिनगुBण रूप दुलBभ �ै, सगुण भगवान सुग� �ै-सगुण रूप सुलभ अहित,हिनगुBण जाहिन न�ीं कोई,सुग� अग� नाना चरिरत,सुहिन-सुहिन �न भ्र� �ोई।प्राचीनत� काल से �ी पर�ात्�ा-ब्रह्म के अस्तिस्तत्व के हिवषय �ें भारतीय दशBन �ें वाद-हिववाद चर्चिचंत �ै। ऋग्वेद �ें पुरूष सू� के अंतगBत हिवराk पुरूष को सृमिQ का हिनयंता �ाना गया �ै। व� हित्रगुणातीत �ोने के कारण संसार से हिनर्चिलंप्त र�ता �ै। अवBवेद �ें व्रत, तपस्या एवं ज्ञान�ागg व्रात्यों का आलेखन �ै। व्रात्यों को ��ादेव की संज्ञा भी प्राप्त �ै। उपहिनषद ्युग �ें सिचंतन की शैली �ें पयाBप्त हिवकास हुआ �ै, और पुरुष को सत् और असत् से परे बताया ता सूक्ष्� ब्रह्म के थिलए हिनगुBण हिवशेषण का प्रयोग थिलया गया। उसे अत्यंत सूक्ष्� और इंदिद्रयातीत �ाना गया �ै। छांदोग्योपहिनषद �ें हिवश्व पुरुष के रूप �ें ब्रह्म को आत्�ा �ें व्याप्त �ाना �ै। उसकी सूक्ष्� स्थिस्थहित का प्रयोग करने के थिलए वेदों �ें ‘नेहित-नेहित’ क�ा गया �ै। कठोपहिनषद �ें ब्रह्म को अस्पृश्य, अरूप, अरस, हिनत्य, अनादिद, अनंत, ��ान, अशब्द आदिद की संज्ञा दी गयी �ै। कुछ उपहिनषदों �ें ब्रह्म के पयाBय के रूप �ें ‘हिनरंजन’ शब्द का प्रयोग हिकया गया �ै। ‘गीता’ �ें श्रीकृष्ण ने स्वयं को हिनगुBण रूप, अहिवनाशी, सवBव्यापी, हिनर्षिवंकार और इंदिद्रयातीत क�ा �ै। इससे स्पQ �ै हिक जिजस हिनगुBण �ागB का संतों ने आश्रय थिलया व� भारतीय ध�B साहि�त्य-सिचंतन और दशBन के थिलए कोई नूतन वस्तु न�ीं �ै। संत �त उसकी श्रृंखला की कड़ी के रूप �ें हिवद्य�ान �ै। वस्तुत: संत वे �ैं जो हिवषयों के प्रहित हिनषेध र�े, सत्क�B करे, हिकसी से वैर प्रदर्चिशंत न करें, हिनसंग, हिनष्का�, पुरुष संत �ैं। कालांतर �ें संत शब्द गूढ़ �ो गया और उसका प्रयोग हिवथिशQ प्रकार के भ�ों के थिलए �ोने लगा। 10 वीं सदी तक इस्ला� ध�B थिसया-सुन्नी, जैन ध�B शे्वताम्बर-दिदगम्बर, सनातन हि�ंदू ध�B शैव-वैष्णव-शा�, और बौद्ध ध�B वज्रयान-�ीनयान की तंत्र-�ंत्र साधना �ें परिरक्षिणत �ो गया। संतों ने दुराचार को फैलाने वाले थिसद्धांतों का हिवरोध हिकया और एकेश्वरवाद ता �ठयोग की स्थापना की। अध्ययन�ीनता के कारण धीरे-धीरे नापं का भी पदापBण हुआ। उसी स�य स्वा�ी रा�ानंद का प्रभाव बढ़ा। उनके थिशष्य सगुण और हिनगुBण दोनों प्रकार के भ� े।संत �त के अनुसार संत कबीर भी रा�ानंद के बार� थिशष्यों �ें से एक प्र�ुख थिशष्य े। संत �त �ें हिवशेषकर कबीर का काव्य प्र�ुख हिवषय �ै। ज्ञानपूणB भथि� और व� भी हिनगुBण सत्ता के प्रहित �ै, जिजन्�ें

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कबीर रा�, सत्यपुरुष, अलख हिनरंजन, स्वा�ी और शून्य आदिद से पुकारते �ैं। आलंबन के हिनगुBण-हिनराकार �ोने के कारण कबीर की भथि� �ें र�स्य का पुk आ गया �ै। आत्�ा-पर�ात्�ा का अंश �ै, इस संसार �ें व� आत्�ा के हिवरहि�णी के रूप �ें वतB�ान �ै पर सांसारिरकता ने इसे संकुथिचत कर दिदया �ै।भथि� हिबना दिदखे नहि�ं, इत नयनन �रिर रूप,साधुन को पागk भयो, हिबना भथि� �रिर रूप।संतों �ें गतानुगहितकता की यात्रा बढ़ने से संतकाव्यों की हिवशेषताओं का नाश �ो गया। अपने हिनहि�त स्वाB वाले �ठों के स�ान अपने �ी बनाये बंधनों �ें जकड़ता गया। हिनगBण की उपासना, मि�थ्याडंबर का हिवरोध, गुरु की ��त्ता, जाहित-पांहित के भेदभाव का हिवरोध, वैयथि�क साधना पर जोर, र�स्यवादी प्रवृक्षित्त, साधारण ध�B का प्रहितपादन, हिवर� की �ार्मि�कंता, नारी के प्रहित दो�रा दृमिQकोण, भजन, ना�स्�रण, संतप्त, उपेक्षि2त, उत्पीहिड़त �ानव को परिरज्ञान प्रदान करना आदिद संत काव्य के �ुख्य प्रयोजन �ैं। हिनगुBण आचरण की पहिवत्रता का संदेश लेकर जनता के सा�ने उपस्थिस्थत हुआ। वैष्णव नैहितक थिसद्धांत, भथि� की भावना, औपहिनषदिदक हिनगुBणवाद, बौद्ध साधकों एवं नापंथियों के पारिरभाहिषत शब्द, सूफी साधकों की साधना का अपूवB संमि�श्रण �ै। सगुण का प्रयोग करने वाले रा�नुजाचायB, �ाधवाचायB, हिवष्णुस्वा�ी और हिनम्बाकाचायB े, जिजन्�ोंने क्र�श: हिवथिशQादैत, दै्वताभाव, शुद्धादै्वत, दै्वतादै्वत का स्थापन हिकया। सगुण भथि� का उपलब्ध गं्र ‘श्री�द्भागवत पुराण’ ता वास्थिल्�की रा�ायण �ै। इसके अनुसार भगवान आभावान, सखागत वत्सल, करूणायतन तीन प्रकार के रूप �ें हिनवास करते �ैं।सं2ेप �ें क�ें तो हिनगुBण-सगुण दोनों �ें गुरु को अत्यंत ��त्व दिदया गया �ै। गुरु �ी साधक को ईश्वर तक पहुंचाने का साधन �ै। शैतान अवा �ाया के व्या�घातों से गुरु की कृपा से �ी बचाव �ोता �ै। गुरु �ी �ुथि� प्रान्तिप्त का स�वायी कारक �ै।‘गुरु हिबन �ोई न ग्यान’ और ग्यान के हिबना �ुथि� असंभव �ै। दोनों �ें ‘पे्र�’ का उच्चस्थान प्रहितपादिदत हिकया गया �ै। संतों के य�ां पे्र� व्यथि�गत साधना �ें व्यवहृत �ै जबहिक सूहिफयों �ें लौहिकक पे्र� के द्वारा अलौहिकक पे्र� की अक्षिभव्यंजना �ै। हिनगुBण �ेें पे्र� �ुख्य �ै और सगुण �ें गौण। दोनों साधक �ै। दोनों पर प्रयोग, भारतीय अदै्वतवाद, वैष्णवी-अहि�ंसा का स�ान रूप से प्रभाव �ै। दोनों �ी हिनराकार ईश्वर को �ानते �ैं। जाहित-पांहित, उंच-नीच का कोई भेदभाव न�ीं �ानते। �ाया या शैतान दोनों �ी के साधना प �ें बाधक �ैं। सगुणों ने �ाया को कनक-कामि�नी क�ा �ै, ��ाठहिगनी �ाना �ै। पे्र� की दृढ़ता के थिलए हिनगुBणों ने शैतान की आवश्यकता को स्वीकार हिकया �ै। दोनों अव्य� सत्ता की प्रान्तिप्त का संकेत करते �ैं। दोनों �ी र�स्यवादी �ैं। दोनों के �त �ें र�स्यवाद से मि�लन पे्र� द्वारा संभव �ै। आचायB शुक्ल के अनुसार हिनगुBणवादी का र�स्यवाद शुद्ध भावात्�क कोदिk �ें आता �ै, जबहिक सगुणवादी का र�स्यवाद साधनात्�क कोदिk �ें क्योंहिक उस�ें हिवहिवध यौहिगक प्रहिक्रयाओं का उल्लेख �ै। दोनों ने हिवर� का उन्�ु� गान गाया �ै, दोनों �ें एक तीव्र कसक एवं वेदना �ै। हिनगुBण का हिवर� तो हिवश्वव्यापी �ै। उन्�ोंने संपूणB जगत को मि�थ्या �ाना �ै। हिवर�-वणBन �ें प्रकृहित की भी उपे2ा की �ै, हिफर भी उनका हिवर� व्यथि�गत बनकर र� गया �ै।

 

कृष्ण भक्ति� काव्यधारा की प्रम�ख वि�शेषतायेंPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: September 23, 2008

In: 2 भथि� काल Comment!

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भारतीय ध�B और संस्कृहित के इहित�ास �ें कृष्ण सदैव एक अद्भतु व हिवल2ण व्यथि�त्व �ाने जाते र�ें �ै| ��ारी प्राचीन गं्रों �ें यत्र - तत्र कृष्ण का उल्लेख मि�लता �ै जिजससे उनके जीवन के हिवक्षिभन्न रूपों का पता चलता �ै|यदिद वैदिदक व संस्कृत साहि�त्य के आधार पर देखा जाए तो कृष्ण के तीन रूप सा�ने आते �ै -१. बाल व हिकशोर रूप, २. 2हित्रय नरेश, ३. ऋहिष व ध�oपदेशक |श्रीकृष्ण हिवक्षिभन्न रूपों �ें लौहिकक और अलौहिकक लीलाए ंदिदखाने वाले अवतारी पुरूष �ैं | गीता, ��ाभारत व हिवहिवध पुराणों �ें उन्�ी के इन हिवहिवध रूपों के दशBन �ोतें �ैं |कृष्ण ��ाभारत काल �ें �ी अपने स�ाज �ें पूजनीय �ाने जाते े | वे स�य स�य पर सला� देकर ध�B और राजनीहित का स�ान रूप से संचालन करते े | लोगों �ें उनके प्रहित श्रद्या और आस्था का भाव ा | कृष्ण भथि� काव्य धारा के कहिवयों ने अपनी कहिवताओं �ें राधा - कृष्णा की लीलाओं को प्र�ुख हिवषय बनाकर वॄ�द काव्य सॄजन हिकया। इस काव्यधारा की प्र�ुख हिवशेशतायें इस प्रकार �ै–

१. राम और कृष्ण की उपासना

स�ाज �ें अवतारवाद की भावना के फलस्वरूप रा� और कृष्ण दोनों के �ी रूपों का पूजन हिकया गया |दोनों के �ी पूणB ब्रह्म का प्रतीक �ानकर, आदशB �ानव के रूप �ें प्रस्तुत हिकया गया |हिकंतु ज�ाँ रा� �याBदा पुरषोत्त� के रूप �ें सा�ने आते �ैं, ब�ी कृष्ण एक सा�ान्य परिरवार �ें जन्� लेकर सा�ंतीअत्याचारों का हिवरोध करते �ैं | वे जीवन �ें अमिधकार और कतBव्य के संुदर �ेल का उदा�रण प्रस्तुत करते �ैं |

वे जिजस तन्�यता से गोहिपयों के सा रास रचाते �ैं , उसी तत्परता से राजनीहित का संचालन करते �ैं या हिफ़र ��ाभारत के युद्ध भूमि� �ें गीता उपदेश देते �ैं |इस प्रकार से रा� व कृष्ण ने अपनी अपनी चारिरहित्रक हिवशेषताओं द्वारा भ�ों के �ानस को आंदोथिलत हिकया |

२. राधा-कृष्ण की लीलाए ं

कृष्णा - भथि� काव्य धारा के कहिवयों ने अपनी कहिवताओं �ें राधा - कृष्णा की लीलाओं को प्र�ुख हिवषय बनाया |श्री�दभागवत �ें कृष्ण के लोकरंजक रूप को प्रस्तुत हिकया गया ा |भागवत के कृष्ण स्वंय गोहिपयों से हिनर्चिलंप्त र�ते �ैं |गोहिपयाँ बार - बार प्राBना करती �ै , तभी वे प्रकk �ोतें �ैं जबहिक हि�न्दी कहिवयों के कान्�ा एक रथिसक छैला बनकर गोहिपयों का दिदल जीत लेते �ै |

सूरदास जी ने राधा - कृष्ण के अनेक प्रसंगों का थिचत्रण ककर उन्�ें एक सजीव व्यथि�त्व प्रदान हिकया �ै |हि�न्दी कहिवयों ने कृष्ण ले चरिरत्र को नाना रूप रंग प्रदान हिकये �ैं , जो काफी लीला�यी व �धुर जान पड़ते �ैं |

३. �ात्सल्य रस का क्तिचत्रण

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पुमिQ�ागB प्रारंभ हुया तो बाल कृष्ण की उपासना का �ी चलन ा | अत : कहिवयों ने कृष्ण के बाल रूप को प�ले प�ले थिचहित्रत हिकया |यदिद वात्सल्य रस का ना� लें तो सबसे प�ले सूरदास का ना� आता �ै, जिजन्�ें आप इस हिवषय का हिवशेषज्ञ क� सकते �ैं | उन्�ोंने कान्�ा के बचपन की सूक्ष्� से सूक्ष्� गहितहिवमिधयाँ भी ऐसी थिचहित्रत की �ै, �ानो वे स्वयं व�ाँ उपस्थिस्थत �ों |

�ैया कबहँू बढेगी चोदिk ?हिकनी बार �ोहि�ं ढूध हिपयत भई , य� अजहूँ �ै छोkी |

सूर का वात्सल्य केवल वणBन �ात्र न�ीं �ै | जिजन जिजन स्थानों पर वात्सल्य भाव प्रकk �ो सकता ा , उन सब घkनाओं को आधार बनाकर काव्य रचना की गयी �ै | �ाँ यशोदा अपने थिशशु को पालने �ें सुला र�ी �ैं और हिनंदिदया से हिवनती करती �ै की व� जल्दी से उनके लाल की अंखिखयों �ें आ जाए |

जसोदा �री पालनै झुलावै |�लरावै दुलराय �ल्�रावै जोई सोई कछु गावै |�ेरे लाल कौ आउ हिनंदरिरया, का�ै �ात्र आहिन सुलावै |तू का�े न बेगहि� आवे, तो का कान्� बुलावें |

कृष्णा का शैशव रूप घkने लगता �ै तो �ाँ की अक्षिभलाषाए ंभी बढ़ने लगती �ैं | उसे लगता �ै की कब उसका थिशशु उसका थिशशु उसका आँचल पकड़कर डोलेगा | कब, उसे �ाँ और अपने हिपता को हिपता क�के पुकारेगा , व� थिलखते �ै -

जसु�हित �न अक्षिभलाष करै,कब �ेरो लाल घुतरुवनी रेंगै, कब घरनी पग दै्वक भरे,कब वन्दहि�ं बाबा बोलौ, कब जननी का�ी �ोहि� ररै ,रब घौं तनक-तनक कछु खै�े, अपने कर सों �ुखहि�ं भरेकब �थिस बात क�ेगौ �ौ सौं, जा छहिव तै दुख दूरिर �रै|

सूरदास ने वात्सल्य �ें संयोग प2 के सा - सा हिवयोग का भी संुदर वणBन हिकया �ै | जब कंस का बुलावा लेकर अकू्रर आते �ैं तो कृष्ण व बलरा� को �ुरा जाना पङता �ै | इस अवसर पर सूरदास ने हिवयोग का �म्स्पBसgथिचत्र प्रस्तुत हिकया �ै | यशोदा बार बार हिवनती करती �ैं हिक कोई उनके गोपाल को जाने से रोक ले |

जसोदा बार बार यों भारवै�ै ब्रज �ें हि�तू ��ारौ, चलत गोपालहि�ं राखै

जब उधौ कान्�ा का संदेश लेकर आते �ैं, तो �ाँ यशोदा का हृदय अपने पुत्र के हिवयोग �ें रो देता �ै, व� देवकी को संदेश क्षिभजवाती �ैं |

संदेस देवकी सों कहि�यो।�ों तो धाय हित�ारे सुत की कृपा करत �ी रहि�यो||

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उबkन तेल तातो जल देखत �ी भजिज जानेजोई-चोर �ांगत सोइ-सोइ देती कर�-कर� कर न्�ाते |तु� तो kेक जानहित�ी धै �ै ताऊ �ोहि� कहि� आवै |प्रात: उठत �ेरे लाड लडैतहि� �ाखन रोkी भावै |

४. श्रृंर्गुार का �ण�न

कृष्ण भ� कहिवयों ने कृष्ण व गोहिपयों के पे्र� वणBन के रूप �ें पूरी स्वछंदता से श्रृंगार रस का वणBन हिकया �ै | कृष्ण व गोहिपयों का पे्र� धीरे - धीरे हिवकथिसत �ोता �ै | कृष्ण , राधा व गोहिपयों के बीच अक्सर छेड़छाड़ चलती र�ती �ै -

तु� पै कौन दु�ावै गैयाइत थिचतवन उन धार चलावत, य�ै थिसखायो �ैया |सूर क�ा ए ��को जातै छाछहि� बेचन�ारिर |

कहिव हिवद्यापहित ने कृष्ण के भ�-वत्सल रूप को छोड़ कर शंृगारिरक नायक वाला रूप �ी थिचहित्रत हिकया �ै |हिवद्यापहित की राधा भी एक प्रवीण नामियका की तर� क�ीं �ुग्धा बनाती �ै , तो कभी क�ीं अक्षिभसारिरका | हिवद्यापहितके राधा - कृष्ण यौवनावस्था �ें �ी मि�लते �ै और उन�े प्यार पनपने लगता �ै |पे्र�ी नायक , पे्रमि�का को प�ली बार देखता �ै तो र�नी की रूप पर �ुग्ध �ो जाता �ै |

सजनी भलकाए पेखन न �ेल�ेघ-�ाल सयं तहिड़त लता जहिनहि�रदय से2 दई गेल |

�े सखी ! �ैं तो अच्छी तर� उस सुन्दरी को देख न�ी सका क्योंहिक जिजस प्रकार बादलों की पंथि� �ें एका एअकहिबजली च�क कर थिचप जाती �ै उसी प्रकार हिप्रया के संुदर शरीर की च�क �ेरे ह्रदय �ें भाले की तर� उतर गयीऔर �ै उसकी पीडा झेल र�ा हूँ |

हिवद्यापहित की राधा अक्षिभसार के थिलए हिनकलती �ै तो सौंप पाँव �ें थिलप्त जाता �ै | व� इस�े भी अपना भला�ानती �ै , क� से क� पाँव �ें पडे़ नूपुरों की आवाज़ तो बंद �ो गयी |

इसी प्राकार हिवद्यापहित हिवयोग �ें भी वणBन करते �ैं | कृष्ण के हिवर� �ें राधा की आकुलता , हिववशता ,दैन्य व हिनराशा आदिद का �ार्मि�कं थिचत्रण हुया �ै |

सजनी, के क�क आओव �धाई |हिवर�-पयोथिच पार हिकए पाऊव, �झु� नहि�ं पहित आई |एखत तखन करिर दिदवस ग�ाओल, दिदवस दिदवस करिर �ासा |�ास-�ास करिर बरस ग�ाओल, छोड़ लँू जीवन आसा |

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बरस-बरस कर स�य ग�ाओल, खोल लंू कानुक आसे |हि��कर-हिकरन नथिलनी जदिद जारन, हिक कणB �ाधव �ासे |

इस प्रकार कृष्ण भ� कहिवयों ने पे्र� की सभी अवस्थाओं व भाव-दशाओं का सफलतापूवBक थिचत्रण हिकया �ै |

५. भक्ति� भा�ना

यदिद भ� - भावना के हिवषय �ें बात करें तो कृष्ण भ� कहिवयों �ें सूरदास , कंु�ंदास व �ीरा का ना� उल्लेखनीय �ै |

सूरदासजी ने वल्लभाचायB जी से दी2ा ग्र�ण कर लेने के पूवB प्र� रूप �ें भथि� - भावना की वं्यजना की �ै |

ना ज ूअब कै �ोहि� उबारोपहितत �ें हिवख्यात पहितत �ौं पावन ना� हिव�ारो||

सूर के भथि� काव्य �ें अलौहिककता और लौहिकतता , रागात्�कता और बौजिद्धकता , �ाधुयB और वात्सल्य सब मि�लकर एकाकार �ो गए �ैं |

भगवान् कृष्ण के अनन्य भथि� �ोने के नाते उनके �न से से सच्चे भाव हिनकलते �ैं | उन्�ोंने �ी भ्र�रनी परम्परा को नए रूप �ें प्रस्तुत हिकया | भ� - शोरो�क्षिण सूर ने इस�े सगुणोपासना का थिचत्रण , ह्रदय की अनुभूहित के आधार पर हिकया �ै |

अंत �ें गोहिपयों अपनी आस्था के बल पर हिनगुBण की उपासना का खंडन कर देती �ैं |

उधौ �न नाहि�ं भए दस-बीसएक हुतो सो गयो श्या� संगको आराधै ईश |

�ीराबाई कृष्ण को अपने पे्र�ी �ी न�ी , अहिपतु पहित के रूप �ें भी स्�रण करती �ै | वे �ानती�ै हिक वे जन्� - जन्� से �ी कृष्ण की पे्रयसी व पत्नी र�ी �ैं | वे हिप्रय के प्रहित आत्� - हिनवेदन व उपालंभ के रूप�ें प्रणय - वेदना की अक्षिभव्यथि� करती �ै |

देखो सईयां �रिर �न काठ हिकयोआवन क� गयो अजहूं न आयो, करिर करिर गयोखान-पान सुध-बुध सब हिबसरी कैसे करिर �ैं जिजयोवचन तुम्�ार तु��ीं हिबसरै, �न �ेरों �र थिलयो�ीरां क�े प्रभु हिगरधर नागर, तु� हिबन फारत हि�यो |

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भथि� काव्य के 2ेत्र �ें �ीरा सगुण - हिनगुBण श्रद्धा व पे्र� , भथि� व र�स्यवाद के अन्तर को भरते हुए , �ाधुयBभाव को अपनाती �ै | उन्�ें तो अपने सांवरिरयां का ध्यान कराने �ें , उनको ह्रदय की राहिगनी सुनाने व उनके सम्�ुख नृत्य करने �ें �ी आनंद आता �ै |

आली रे �ेरे नैणां बाण पड़ीं |थिचत चढ़ी �ेरे �ाधुरी �ुरल उर हिबच आन अड़ी |कब की ठाढ़ी पंछ हिन�ारंू अपने भवन खड़ी |

६. ब्रज भाषा � अन्य भाषाओं का प्रयोर्गु

अनेक कहिवयों ने हिनःसंकोच कृष्ण की जन्�भूमि� �ें प्रचथिलत ब्रज भाषा को �ी अपने काव्य �ें प्रयु� हिकया। सूरदास व नंददास जैसे कहिवयों ने भाषा के रूप को इतना हिनखार दिदया हिक कुछ स�य बाद य� स�स्त उत्तरी भारत की साहि�न्तित्यक भाषा बन गई।

यद्यहिप ब्रज भाषा के अहितरिर� कहिवयों ने अपनी-अपनी �ातृ भाषाओं �ें कृष्ण काव्य की रचना की। हिवद्यापहित ने �ैथिली भाषा �ें अनेक भाव प्रकk हिकए।

सन्तिप्त �े कतहु न देखिख �धाईकांप शरीर धीन नहि� �ानस, अवमिध हिनअर �ेल आई�ाधव �ास हितथि भयो �ाधव अवमिध क�ए हिपआ गेल।

�ीरा ने राजस्थानी भाषा �ें अपने भाव प्रकk हिकए।

र�ैया हिबन नींद न आवैनींद न आवै हिवर� सतावै, पे्र� की आंच हुलावै।

प्रम�ख कवि���ाकहिव सूरदास को कृष्ण भ� कहिवयों �ें सबसे ऊँचा स्थान दिदया जाता �ै। इनके द्वारा रथिचत गं्रों �ें “सूर-सागर”, “साहि�त्य-ल�री” व “सूर-सारावली” उल्लेखनीय �ै। कहिव कंुभनदास अQछाप कहिवयों �ें सबसे बडे़ े, इनके सौ के करीब पद संग्रहि�त �ैं, जिजन�ें इनकी भथि� भावना का स्पQ परिरचय मि�लता �ै।

संतन को क�ा सींकरी सो का�।कंुभनदास लाल हिगरधर हिबनु और सवै वे का�।

इसके अहितरिर� पर�ानंद दास, कृष्णदास गोहिवंद स्वा�ी, छीतस्वा�ी व चतुभुBज दास आदिद भी अQछाप कहिवयों �ें आते �ैं हिकंतु कहिवत्व की दृमिQ से सूरदास सबसे ऊपर �ैं।राधावल्लभ संप्रादय के कहिवयों �ें “हि�त-चौरासी” बहुत प्रथिसद �ै, जिजसे श्री हि�त �रिरवंश जी ने थिलखा �ै। हि�ंदी के कृष्ण भ� कहिवयों �ें �ीरा के अलावा बेथिलहिकशन रुस्थिक्�नी के रचमियता पृथ्वीराज राठौर का ना� भी उल्लेखनीय �ै।

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कृष्ण भथि� धारा के कहिवयों ने अपने काव्य �ें भावात्�कता को �ी प्रधानता दी। संगीत के �ाधुयB से �ानो उनका काव्य और हिनखर आया। इनके काव्य का भाव व कला प2 दोनों �ी प्रौढ़ े व तत्कालीन जन ने उनका भरपूर रसास्वादन हिकया। कृष्ण भथि� साहि�त्य ने सैकड़ो वषo तक भ�जनो का हॄदय �ुग्ध हिकया । हि�न्दी साहि�त्य के इहित�ास �े कृष्ण की लीलाओ के गान, कृष्ण के प्रहित सख्य भावना आदिद की दमॄिQ से �ी कृष्ण काव्य का ��त्व न�ी �ै, वरन आगे चलकर राधा कृष्ण को लेकर नायक नामियका भेद , नख थिशख वणBन आदिद की जो परम्परा रीहितकाल �ें चली , उस के बीज इसी काव्य �े समिन्नहि�त �ै।रीहितकालीन काव्य �े ब्रजभाषा को जो अंलकॄत और कलात्�क रूप मि�ला , व� कृष्ण काव्य के कहिवयों द्वारा भाषा को प्रौढ़ता प्रदान करने के कारण �ी संभव �ो सका।

भक्ति� आंदोलनPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 6, 2008

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उत्तरी भारत �ें चौद�वीं से सत्र�वीं शताब्दी तक फैली भथि� की ल�र स�ाज के वणB, जाहित, कुल और ध�B की सी�ाए ंलांघ कर सारे जन�ानस की चेतना �ें परिरव्याप्त �ो गई ी, जिजसने एक जन-आंदोलन का रूप ग्र�ण कर थिलया ा। भथि� आंदोलन का एक प2 ा साधन या भ� के द्वारा �ो2 की प्रान्तिप्त अवा भगवान के सा मि�लन, चा�े भगवान का स्वरूप सगुण ा या हिनगुBण। दूसरा प2 ा स�ाज �ें स्थिस्थत अस�ानता का। ऊंच-नीच की भावना अवा एक वणB, जाहित या ध�B के लोगों का दूसरे वणB व जाहित या ध�B के लोगों के प्रहित हिकए गए अत्याचार, अन्याय और शोषण का हिवरोध। इस प्रकार संतो ने अस��हित और हिवरोध का नारा बुलंद हिकया। सा �ी हिनगुBण संतों ने भथि� के �ाध्य� से सा�ाजिजक भेदभाव, आर्चिंक शोषण, धार्मि�ंक अंधहिवश्वासों और क�Bकांडों के खोखलेपन का पदाBफाश हिकया और स�ाज �ें एकात्��ा और भाईचारे की भावना को फैलाने का पुरजोर प्रयत्न हिकया। स�ानतावादी व्यवस्था �ें आस्था रखने वालों �ें कबीर, दाऊद, रज्जबदास, रैदास, सूरदास आदिद आते �ी �ैं तो सा �ी थिसख संप्रदाय के जन्�दाता नानक और उनके संप्रदाय को बढ़ाने वाले थिसख गुरु भी शामि�ल �ैं। सूफी ध�B �त से प्रभाहिवत संत और �ुल्ला दाऊद, कुतुबन, जायसी और �ंझन इत्यादिद को भी हिवस्तृत भथि� आंदोलन �ें शामि�ल रचना उथिचत �ै। उनके हिवचार से पे्र� की पीर के द्वारा अपनी �ाशूका अाBत् हिप्रयत�ा के सा मि�लन अाBत फना �ो जाना भगवद ्भथि� का �ी दूसरा स्वरूप ा। �ध्यकालीन भारत �ें हि�ंदू-�ुस्थिस्ल� एकता और धार्मि�ंक सहि�ष्णुता का झंडा ल�राने वालों �ें सबसे प�ले कबीर का ना� थिलया जाता �ै। लेहिकन इससे प�ले ��ाराष्ट्र के प्रथिसद्ध संत ना�देव जिजनका जन्� और प्रभ्र�ण 1260-1350 का �ाना जाता �ै। और जिजनके अभंग �राठी और हि�ंदी दोनों �ें उपलब्ध �ैं-धार्मि�ंक सहि�ष्णुता की उद्घोषणा करते हुए क�ते �ैं- हि�ंदू पूज ैदेहुरा, �ुस्सल�ान �सीत।ना�े कोई सेहिवया, ज�ं देहुरा न �सीत।।

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 हि�ंदु �ंदिदर �ें पूजा करते �ैं, �ुल�ान �स्थिस्जद �ें, जो (भगवान का) ना� स्�रण करता �ै व�ां न �ंदिदर �ै न �स्थिस्जद। ना�देव गोहिवंद या हिवट्ठलदेव के भ� े हिकंतु वे भगवान के थिलए रा�, हिवट्ठल, �ुरारी, र�ी�, करी� आदिद ना�ों से पुकारते �ैं।चौद�वीं सदी �ें धार्मि�ंक सहि�ष्णुता का नारा उठाने वालों �ें अ�ीर खुसरो का ना� अग्रणी �ै। य� बात उनके एक �ी शेर से स्पQ की जा सकती �ै- �ा ब इश्क-ए यार अगर दर हिकब्ला गर दर बुतकदाअथिशकान-ए-दोस्त रा अज कुफ्र ओ इ�ान कार नीस्त। �ैं यार (भगवान) क इश्क �ें काबा �ें रहूं या �ंदिदर �ें। यार (भगवान) के आथिशक को (एक को) कुफ्र या (दूसरे को) ई�ान क�ने का का� न�ीं।दिदलचस्प बात य� �ै हिक ज�ां खुसरो ने ब्रह्मणों की हिवद्वता, हिनष्ठा और सादगी की प्रशंसा की �ै व�ीं उन्�ोंने उल्�ाओं (�ुल्ला का बहुवचन) को लालची, दगाबाज और पाखंडी बताया �ै। खुसरो की धार्मि�ंक सहि�ष्णुता की परंपरा �ुल्ला दाऊद की कृहित चंदायन �ें परिरलक्षि2त �ोती �ै। चंदायन की रचना 14 वीं सदी के उत्तराद्धB �ें की गई। अपने संर2क जौनाशा� जो सुल्तान हिफ़रोजशा� तुगलक के वजीर े, के न्याय की प्रशंसा करते हुए �ुल्ला दाऊद क�ते �ैं हिक हि�ंदू तुरक दुहू स� राखई हि�ंदुओं और तुक? अवा �ुसल�ानों को स�ान �ानता ा। उसके य�ां सिसं� और शेर अाBत् �ुसल�ान और हि�ंदू एक घाk पर पानी पीते े। य�ी न�ीं �ुल्ला दाऊद ने पुराण को कुरान के स�क2 �ाना �ै और पहि�ले चार ख़लीफ़ाओं को पंहिडत की उपामिध दी �ै। इस प्रकार कबीर धार्मि�ंक सहि�ष्णुता और हि�ंदू-�ुस्थिस्ल� भाईचारे की भावना के जन्�दाता न�ीं े, लेहिकन उन्�ोंने इस प्रवृक्षित्त को जन-आंदोलन का रूप प्रदान हिकया। सा �ी उन्�ोंने ब्राह्मणों को अंधहिवश्वास फैलाने, जात-पांत और ऊंच-नीच का स�Bन करने और ोा ज्ञान वाले ढोंगी की संज्ञा दी �ै। उन्�ोंने सा�ाजिजक अन्याय और शोषण के हिवरुद्ध अस��हित और हिवरोध की भावना को अपनी वं्यग्य भरी वाणी के द्वारा जनता-जनादBन तक पहुंचाया। हि�ंदू-�ुस्थिस्ल� भावात्�क एकता की बात इतनी बलवती �ो गई ी हिक कुतबन, �ंझन और जायसी ता उनके परिरवतg सूफी कहिवयों ने एक नई प्रकार की रचनाए ं थिलखनी शुरू कर दीं। इन रचनाओं �ें जिजन्�ें पे्र�ाख्यान क�ा गया �ै और जो �सनवी परंपरा पर आधारिरत ीं, न केवल भथि� और सूफी भावनाओं और हिवचारों को मि�ले-जुले रूप �ें प्रस्तुत हिकया गया �ै हिकंतु सा �ी हि�ंदू आचार-हिवचार, �ान्यताओं देवी-देवताओं, संस्कार, उत्सव इत्यादिद जिजनको कठ�ुल्ला कुफ्र �ानते े, उदारतापूणB ता संवेदनात्�क रूप �ें रेखांहिकत हिकया गया �ै। सूफी कहिव इस्ला� �ें दृढ़ हिवश्वास रखते े, हिकंतु उनके ईश्वर जिजसको वे सृजन�ार क�ते �ैं और ब्रह्म के स्वरूप के बारे �ें कोई हिवशेष �तभेद न�ीं े। य�ी न�ीं व� पे्र� द्वारा ईश्वर और जीव, आत्�ा और पर�ात्�ा के मि�लने के आदशB को भी रोचक रूप �ें भी प्रस्तुत करते �ैं। व� कुरान के सा वेद पुरान को भी पहिवत्र गं्र �ानते �ैं, और प�ले चार खलीफाओं को पंहिडत की उपामिध देते �ैं। इस प्रकार सूफी कहिव हि�ंदू-�ुस्थिस्ल�

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सा�ंजस्य और भाईचारे के दृढ़ स�Bक दिदखाई देते �ैं।ये रचनाए ं हि�ंदू और �ुस्थिस्ल� जनता �ें लोकहिप्रय ीं इसका एक उदा�रण य� �ै हिक जुम्�े की न�ाज़ �ें �ीनार से चंदायन के कुछ अंश पढ़ जाते े। सत्र�वीं सदी के जैन लेखक बनारसीदास ने अधBका �ें सूफी गं्र �धु�ालती और �ृगावती पढ़ने का उल्लेख हिकया �ै। हिनगुBण और सगुण भथि� का भेद अस्वीकार करते हुए भी उन्�ें अलग-अलग दिदखाने की प्राचीन परिरपाkी र�ी �ै। य�ां तक हिक नागरी प्रचारिरणी सभा के प्रहितमिष्ठत हि�ंदी साहि�त्य के वृ�त इहित�ास �ें हिनगुBण और सगुण भथि� साहि�त्य की स�ी2ा अलग-अलग जिजल्दों �ें की गई �ै। ��ने हिनगुBण और सगुण भथि� को स�ानांतर धाराओं के रूप �ें देखने का प्रयास हिकया �ै। 16 वीं सदी �ें भारत �ें संक्र�ण का काल �ै। इस काल �ें हिनगुBण और सगुण भथि� दोनों अबाध धाराओं के रूप �ें हिवकथिसत �ोती र�ी �ैं। सा �ी सूफी पे्र�ाख्यानक काव्य भी थिलखे जाते र�े। इसी काल �ें नानक ने थिसख संप्रदाय की नींव डाली और कबीर, रैदास इत्यादिद के हिवचारों को एक नया स्वरूप दिदया। नानक के सहि�ष्णुतावादी और �नुष्य �ें भाईचारे और स�ानता की भावना, और अ�ंभाव को त्याग कर हिनराकार ब्रह्म का ना� लेने के ��त्त्व को इसी परिरपे्रक्ष्य से प्रस्तुत हिकया गया �ै। 16 वीं शती की उपयुB� धाराओं �ें कोई kकराव न�ीं ा। हिकंतु उन्�ोंने एक-दूसरे को हिकस �द तक प्रभाहिवत हिकया, य� क�ना कदिठन �ै। न �ी य� ��ारी सोच का हिवषय �ै।प्रस्तुत पुस्तक �ें �ीरा, सूर, नानक, दादू और तुलसी के सा�ाजिजक सहि�ष्णुतावादी और �ानवतावादी तत्त्वों का हिववेचन हिकया गया �ै। सोल�वीं सदी �ें चैतन्य ने पूवg भारत �ें, और उत्तर भारत �ें �ीरा, सूर और तुलसी ने कृष्ण और रा� की रास-लीलाओं और अनन्य भथि� को ऐसे धरातल पर पहुंचा दिदया हिक उनकी वाणी आज भी जन�ानस को प्रभाहिवत करती �ै। �ीरा को आ�तौर से दो रूपों �ें देखा जा सकता �ै-एक हिपतृसत्तात्�क परिरवार के हिवरुद्ध हिवद्रो� करने वाली नारी, और दूसरा कृष्ण के पे्र� �ें हिवह्वल नृत्य करने वाली पे्र��ागB को प्रश्रय देने वाली साध्वी नारी। �ीरा पर राजा द्वारा प�रा हिबठा देना, ताला जड़ देना ताहिक �ीरा बा�र न जाए। सास-ननद का लड़ना और ताना देना �ीरा का अपना अनुभव ा और सा �ी वे स्त्री-जाहित की अस�ाय स्थिस्थहित की ओर संकेत करती �ैं। �ीरा का हिवद्रो� नारी स्वतंत्रता का प्रतीक ा। सा�ंती कोदिkबद्ध स�ाज की �ान्यताओं पर जो जात-पांत के हिवभाजन पर आधारिरत ी एक प्रकार की चुनौती ी। �ीरा की भथि� के द्वार चा�े व� हिकसी भी जाहित या ध�B का क्यों न �ो खुले हुए े। उनके गीतों �ें धार्मि�ंक गं्रों और क�Bकांडों की चचाB की गई �ै। �ीरा का पे्र� स�ज-पे्र� �ै जिजस�ें सांप्रदामियकता या संकीणBता का क�ीं स्थान न�ीं �ै। कृष्ण से हिबछुड़ने की तड़पन सूफी काव्य �ें आत्�ा रूप या राजा का पर�ात्�ा रूपी परी या राजकु�ारी के हिवर� �ें तड़पने के स�ान �ै। सूरदास के थिलए पे्र� या श्रीकृष्ण की �ाधुयB भथि� जिजस�ें उनकी लीलाओं का वणBन �ै ध�B का सार �ै। व� सब प्रकार की सा�ाजिजक और नैहितक सी�ाओं का अहितक्र�ण कर सकता �ै। एक सच्चे भ� के थिलए वे वणB, जाहित, या कुल-भेद को ��त्त्व न�ीं देते। हिफर भी सूरदास स�ाज �ें वणB-व्यवस्था को स्वीकार करते �ैं और उच्च-वणB या ब्रह्मणों का शूद्रों या हिनम्नवणB के लोगों के सा बैठकर भोजन करना, �ंस और कौए या ल�सुन और कपूर के योग के स�ान �ैं।सूर ने ब्रज �ें र�ने वाले पशु पालक अ�ीरों के सादे और हिनश्छल जीवन ता उसी 2ेत्र �ें र�ने वाले

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हिकसानों के कदिठन और अभावग्रस्त जीवन को थिचहित्रत हिकया �ै। हिफर भी सूरदास ब्रज को पे्र� और आनंद के काल्पहिनक लोक के रूप �ें प्रस्तुत करते �ैं। सूरदास नारी को का� या वासना का प्रतीक न�ीं �ानते। व� �ुख्यतः को�लता, पे्र�, भथि� और संवेदनाओं की �ूर्षितं �ै। सूरदास नारी के थिलए भथि� का �ागB खोलते �ैं जिजस�ें सा�ाजिजक बंधन ढीले पड़ जाते �ैं। हिकंतु �ुख्य रूप से सूरदास नारी के थिलए पहित-सेवा को �ी ��त्त्व देते �ैं। स�ाज �ें एकता और हि�ंदू-�ुसल�ानों �ें स�ता और भाईचारे के हिवषय पर नानक और दादू के हिवचार बहुत कुछ मि�लते-जुलते �ैं। दादू और तुलसी दोनों का अकबर का स�कालीन �ोना ��त्त्वपूणB �ै। जिजस तर� अकबर ने सुल�-कुल की नीहित प्रहितपादिदत की, उसी तर� धार्मि�ंक 2ेत्र �ें दादू ने हिनपBख-साधना को प्रस्तुत हिकया।उन्�ोंने हि�न्दू और �ुसल�ानों को दोनों कान, �ा और आंख बताते हुए उन्�े पखा-पखी छोड़कर एक ब्रह्म की भथि� �ें लाने की �ंत्रणा दी। आपसी हिवरोध का कारण उन्�ोंने दोनों ध�? के ठेकेदार �ुल्लाओं और ब्रह्मणों को बताया। रूदिढ़वादी धार्मि�ंक परम्पराओं और बाह्यचारों को छोड़ने के थिलए उन्�ोंने य�ां तक क�ा हिक व� न हि�ंद �ै, न �ुसल�ान, व� तो एक ब्रह्म या र��ान �ें �ी र�ते �ैं। तुलसीदास ने स�सा�मियक सा�ाजिजक परिरवेश, जीवन-�ूल्य एवं �ानदंडों की वास्तहिवकता पर अपनी रचनाओं से प्रकाश डाला �ै। उनके अनुसार दुजBनों और खलों की बहुसंख्या �ोने के कारण और उन पर हिनयंत्रण रखने के थिलए एक श्रेष्ठ राजा की आवाश्यकता �ोती �ी �ै। सा �ी तुलसी की �ान्यता ी हिक स�ाज �ें अलग-अलग श्रेक्षिणयों और जाहितयों के लोगों �ें अपने-अपने कायB ध�? �ें लगे र�ने और दूसरों के कायB 2ेत्रों �ें �स्त2ेप न करने से �ी स�ाज �ें संतुलन स्थाहिपत �ै। इसथिलए वे वणB-व्यवस्था को स्वीकार करते �ैं अहिपतु इसको वे जन्� पर न�ीं गुणों के ऊपर आधारिरत करते �ैं। इस कायB �ें राजा के सा संत का भी स�योग आवश्यक �ै। संत स�ाज �ें नैहितक गुण �ी न�ीं फैलाते अहिपतु उनके संसगB एवं सदप्रभाव से स�ाज �ें सज्जनों का स�ू� बनता �ै जो उस�ें संतुलन स्थाहिपत करने का एक ��त कायB करता �ै।तुलसी की भथि� पार�ार्चिंक या पारलौहिकक या भौहितक दो स्पQ रूपों �ें अक्षिभव्य� हुई �ै। भथि� के पार�ार्चिंक या पारलोहिकक रूप को भथि� का आध्यात्�हिक प2 भी क�ा जा सकता �ै। भथि� का लौहिकक रूप भ� पर संत को स�ाज के अभ्युत्थान के सा-सा अचे्छ �ानव बनने का �ागB दिदखाता �ै। य�ी तुलसी का �ानवतावाद �ै। तुलसी की भथि� भावना और उनके धार्मि�ंक हिवश्वासों के आधार पर क�ा जा सकता �ै हिक एक सच्चे संत का �ुख्य ध�B लोगों की सेवा और उनके दुखो का हिनवारण �ी ा। रा� के दयालु चरिरत्र और दीन-�ीनों के प्रहित उनकी ग�री संवेदना के कारण �ी अनेक स्थानो पर रा� को गरीब-हिनवाज या बंदी-छोर क�ा गया �ै। जिजन वांछनीय गुणों को तुलसी ने श्रेष्ठ-जनों के थिलए आवश्यक �ाना �ै, वे �ैं ध�Bहिनप«2ता और �ानवतावाद। तुलसी का स�ाज और स�ाज �ें संतुलन रखने के प्रयास ने उनकी नारी संबंधी अवधारणा को भी प्रभाहिवत हिकया। पुरुषों की तर� स�ाज �ें अध� और खल नारिरयों की संख्या बहुत अमिधक ी और उन पर हिनयंत्रण रखना बहुत आवश्यक ा। य� हिनयंत्रण �ुख्य रूप से �याBदा पर आक्षिश्रत �ै, जिजसके अनुसार उनको सा�ाजिजक, धार्मि�ंक और पारिरवारिरक हिनय�ों का अहितक्र�ण करना अनुथिचत ा। सत्र�वीं शती से सगुण और हिनगुBण भथि� और सूफी पे्र��ागg हिवचारधारा बराबर चलती र�ी। सगुण भथि�

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�ें तुलसीदास जैसा कोई �ूधBन्य हिवचारक और कहिव तो ��ें न�ीं मि�लता। ताहिप वैष्णव भथि� इतनी उदार ी हिक रसखान और अब्दुरB�ी� खानेखाना को कृष्ण भथि� �ें सराबोर �ोकर भथि� रस �ें ब�कर अपने उदगार व्य� करने �ें कोई कदिठनाई न�ीं हुई। इस काल का सगुण भथि� आंदोलन हिकतना उदार ा ��ें इस बात से पता चलता �ै हिक वैष्णव भथि� की रचना करने वालों से �ुसल�ानों के सा यादवेंद्र दास कुम्�ार की वाताB, हिवष्णुदास छीपी ी वाताB, सूतार कारीगर की वाताB, इत्यादिद अवणB व्यथि�यों के ना� आते �ैं। हिनगुBण भथि� की सहि�ष्णुतावादी धारा 17 वीं शताब्दी के अंत तक गरीबदास, संुदरदास, धरणीदास, रैदास आदिद की रचनाओं �ें हिनरंतर अक्षिभव्यथि� पाती र�ी। इन संतों की रचनाओं �ें सहि�ष्णुतावादी हिवचारधारा के त�त हि�ंदू-�ुस्थिस्ल� एकता पर �ी न�ीं, वरन �ानवतावादी दृमिQकोण के अनुसार सभी-�ानवों �ें एक �ी ब्रह्मांश के �ोने के कारण स�ता, स�ानता और बराबरी का �ोने का भी प्रचार हिकया।

भक्ति� आंदोलन : रामचँद्र श�क्लPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 6, 2008

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आचायB पं.  रा�चन्द शुक्ल हि�न्दी स�ी2ा के प्र� व्यवस्थिस्थत आचायB �ैं ।उन्�ोंने अपनी स�ी2ा के जिजतने भी प्रहित�ान गढे़ �ैं, वेभारतीय काव्य-शास्त्र, पाश्चात्य काव्य-शास्त्र आदिद से सम्पॄ� �ोने केसा-सा भारतीय भथि�-शास्त्र से सबसे ज्यादा अनुप्राक्षिणत �ैं । सह्रदयताका �ानदंड, या लोक�ंगल का �ानदंड, भथि� साहि�त्य से (हिवशेषत: �याBदावादीरा�-भथि� से और उसके अग्रदूत तुलसी से) हिन:सॄत �ैं । शुक्ल जी के बाद,उनके �ध्यकालीन काव्य के हिवशे्लषण को लेकर बहुत स�ी2ाए ंथिलखी गयी �ैं। क�ीं इहित�ास का आधार लेकर,काल वगgकरण के औथिचत्य का प्रश्न उठाया गया�ै तो क�ीं कबीर, हिब�ारी और घनानंद को लेकर उनके द्वारा प्रदर्चिशंत उपे2ाता हिकये अधूरे �ूल्यांकन की थिशकायतें की गयी �ै । आज तक की जा र�ी इन सारीकोथिशशों के बावजूद,आज भी हि�न्दी-स�ी2ा शुक्ल जी द्वारा स्थाहिपत प्रहित�ानोंके इदB-हिगदB �ंडरा र�ी �ैं । इसका कारण शुक्ल जी की स�ी2ा की पूणBता �ै। हि�न्दी-हिनरगुण काव्य �ें कबीर से आगे जाकर, कॄष्ण-काव्य �ंसूर से आगे जाकरऔर रा�काव्य �ें तुलसी से आगे जाकर, कुछ खास हिवशेषता प्रदर्चिशंत करना संभव न�ींा, इसथिलए नवीनता के आकांक्षि2यों ने बाद �े हिनगुBण काव्य की भास्वरता कोसगुण रीहितयों से ग्रस्त कर दिदया ा । राधाकॄष्ण के हिवहिपनहिव�ारी उन्�ु�राग को ��ल हिव�ारी नायक-नामियकाओं �ें परिरणत कर दिदया ा �याBदाशील रा� को सरयू के कंुजों �ें का� के थिल�ग्न थिचहित्रत कर दिदया ा, उसी तर� से शुक्ल जी नेहिवषय पर जिजतना कुछ थिलखा �ै, उससे आगे जाकर उससे ज्यादा कारगर प्रहित�ानोंके हिन�ाBण �ें अ2� �ोने के कारण, कभी हिकसी अना�ाक्षिभन्न परंपरा की खोज

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के ना� पर, कभी भारतीय सिचंता धारा के स्वभाहिवक हिवकास-क्र� से शुक्ल जीके अपरिरचय के ना� पर, तो कभी काव्य-शास्त्रीय कला वाद के ना� पर, बहुत कुछखींचतान का का� �ो र�ा �ै । शुक्ल जी के अनुसार, “भथि� ध�B का प्राण �ै। व� ध�B की रसात्�क अभी-व्यथि� �ैं ।” `भथि� के हिवकास’ शीषBक अपने हिनबंध�ें (सूरदास,पॄ.  1-46) शुक्ल जी ने भारतीय सिचंताधारा के स्वाभाहिवक हिवकासका अत्यंत सूक्ष्� हिवशे्लषण हिकया ा । वैदिदक बहुदेवोपासना के बीच एकत्व कीप्रहितष्ठा, यज्ञों के हिवधान के सा- सा ह्रदय की रागात्�कता से यु� त�ा�औपहिनषदिदक और त�ा� वैदिदक चचाBओं का हिवशे्लषण करते हुए शुक्ल जी ने भथि� केसंदभB �े भारतीय सिचंता धारा के स्वाभाहिवक हिवकास की हिवस्तॄत छानबीन की �ै ।हिवस्तॄत हिवशे्लषण के बाद उन्�ोंने हिनष्कषB दिदया �ैं, “ध�B का प्रवा� क�B,ज्ञान और भथि� इन तीन धाराओं �ें चलता �ै । xxx । भथि� ध�B का प्राण �ै। व� उसकी रसात्�क अभी-व्यथि� �ै । भथि� के 2ेत्र �ें ध�B प्यार सेपुकारने वाला हिपता �ै । उसके सा�ने भ� भोले-भाले बच्चों के स�ान जाता �ै।कभी उसके ऊपर लोkता �ै, कभी थिसर पर चढता �ै और ïपकड़ लेता �ैं ।”1. हि�ंन्दी-साहि�त्य के आदिद काव्य की सा�ग्री के हिवशे्लषण �ेंशुक्ल जी ने वीर, नीहित और श्रॄंगार परक रचनाओं की सा�ग्री की प्रान्तिप्त केसा-सा ध�B के साहि�त्य की प्रान्तिप्त को भी स्वीकार हिकया �ैं। लेहिकनभथि�-काव्य की उत्पक्षित्त जन्य परिरस्थिस्थहितयों का हिवशे्लषण करते हुए उन्�ोंने क�ा,“देश �ें �ुसल�ानों का राज्य प्रहितमिष्ठत �ो जाने पर हि�ंदू जनता के ह्रदय �ेंगौरव, गवB और उत्सा� के थिलए व� अवकाश न�ी र� गया । xxx । इतने भारी राजनीहितकउलkफेर के पीछे हि�ंदू जन स�ुदाय पर बहुत दिदनों तक उदासी छायी र�ी । अपने पौरुषसे �ताश जाहित के थिलए भगवान की शथि� और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अहितरिर�दूसरा �ागB �ी क्या ा ?”2. आचायB शुक्ल की इस स्थापना का अत्यंत तीक्ष्णखंडन, आचायB �जारीप्रसाद हिद्ववेदी ने हिकया ा । हिद्ववेदी जी के अनुसार,“इस्ला� जैसे सुगदिठत, धार्मि�ंक और सा�ाजिजक �तवाद से इस देश का पाला न�ींपड़ा ा, इसीथिलए नवगत स�ाज की राजनीहितक, धार्मि�ंक और सा�ाजिजक गहितहिवमिध,इसदेश के ऐहित�ाथिसक का सारा ध्यान खींच लेती �ैं । य� बात स्वाभाहिवक तौर परउथिचत न�ीं �ै। दुभाBग्यवश हि�ंदी साहि�त्य के अध्ययन और लोक च2ुगोचर करने काभार जिजन हिवद्वानों ने अपने ऊपर थिलया �ै, वे भी हि�ंन्दी साहि�त्य का संबंध,हि�ंदू जाहित के सा �ी अमिधक बतलाते �ैं और इस प्रकार अनजान आद�ी को दो ढंगसे सोचने का �ौका देते �ैं । एक य� हिक हि�ंदी साहि�त्य,एक �तदपB पराजिजतजाहित की संपक्षित्त �ैं । xxx । व� एक हिनरंतर पतन-शील जाहित की सिचंताओं का �ूलप्रतीक �ैं । xxx । �ैं इस्ला� के ��त्त्व को भूल न�ीं पा र� हूँ लेहिकन जोरदेकर क�ना चा�ता हूं हिक अगर इस्ला� न�ीं आया �ोता तो भी इस साहि�त्य का बा�रआना वैसा �ी �ोता जैसा आज �ैं ।3. xxx। य� बात अत्यंत उप �ासास्पद �ै हिक जब�ुसल�ान लोग उत्तर भारत के �ंदिदर तोड़ र�े े तो उसी स�य अपे2ाकॄत हिनरापददक्षि2ण �ें भ� लोगों ने भगवान की शरणागहित की प्राBना की । �ुसल�ानों केअत्याचार के कारण यदिद भथि� की भावधारा को उ�ड़ना ा तो प�ले उसे सिसंध �ेंहिफर उत्तर-भारत �ें प्रकk �ोना चाहि�ए ा, पर व� प्रकk हुई दक्षि2ण �ें ।”4.आदिद काल की साहि�न्तित्यक सा�ग्री के हिवशे्लषण �ें, धार्मि�ंक साहि�त्य की प्रान्तिप्त

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के बावजुद, भथि� काव्य के हिवशे्लषण �ें यदिद शुक्लजी इस्ला� के आग�न को एक��त्त्वपूणB उपादान �ानते �ैं तो इसका अB य� न�ीं हिक वे इस्ला� के आक्र�णको “भथि� की भावधारा के उ�ड़ने का” �ूल कारण �ानते �ैं । वस्तुत: शुक्ल जीभारतीय जन-जीवन की हिवशं्रखलता देख र�े े । योहिगयों ने, तांहित्रकों ने, उसे नाना भांती नचाया  और फंसाया ा । तीB, व्रत, गं्र, उपवास आदिद का खंडनकरके हिकसी ने उसे हिपंड �ें �ी ब्राह्मांड और ब्रह्म को खोजने की सला� दी ी तोहिकसी ने �ंत्रों के च�त्कार का गान हिकया ा । जनता ने सबको सुना ा, सबकापालन हिकया ा, लेहिकन उसने देखा हिक पुरा -का- पुरा स�ाज जंजीरों �ें जकड़ता चला गया,�ंदिदर kूk र�े �ैं, �ठ ढ�ाये जा र�े �ैं, योगी खदेडे़ जा र�े �ैं और सारे साधनका� न�ीं आ र�े �ैं, स�ूचे स�ाज को संचाथिलत करने वाला कोई �ूल तत्त्व न�ीं र�गया �ैं, जब उसका ध्यान भथि� की ओर केजिन्द्रत �ोना एक स्वाभाहिवक प्रहिक्रया �ै। इस �ताश �ें और इस हिनराशा �ें कोई नीलोत्पन श्या� �ोना चाहि�ए, जिजस पर ��ारीका�ना की गोहिपयां न्योछावर �ो सकें । कोई रणरंगधीर, वनवास का वरण करने वाला रा� �ोना चाहि�ए जो अत्याचार, अनाचार,पापाचार के हिवरुद्ध खड़ा �ोकर घोषणा करसके-`हिनथिशचर �ीन करौ ��ी’-जो गीध को, शबरी को, केवk को, थिशलाबनी अ�ल्या को,स�ाज के �र पीहिड़त, दथिलत और उपेक्षि2त वगB को अपनी करुणा से सराबोर कर सके,जो ऋहिषयों को अपने धनुष की छाया दे सके और आश्वस्त करते हुए क�े, “हिनभBययज्ञ करहु तुम्�रे साईं” । तत्कालीन स�ाज की अपे2ा का दबाव �ी व� �ूल कारण �ैजिजससे पे्ररिरत �ोकर शुक्लजी भथि� की सा�ाजिजक भूमि�का को हिवशेष आदर देते �ैं। भथि� की दो धारणाए ं�ैं एक धारणा के अनुसार व� ईश्वर से पर� अनुरिर��ै । इस धारणा के बलवान �ोने पर, भथि� एकान्तिन्तक राग अमिधष्ठान बन जाती�ै । दूसरी धारणा के अनुसार भथि� का अB �ै ईश्वर के कायo �ें हि�स्सालेना (kू पाkÍथिसपेk इन द वकB आफ गाड-आनंद कु�ार स्वा�ी)। इसी धारणा केअनुसार हिवभथि� शब्द �ें भथि� कायB करती �ै । काव्य-शास्त्रीय गं्रों �ें`हि�स्सा लेने’ के गुण के कारण �ी `ल2णा’ को भथि� क�ा गया �ै । आचायB शुक्ल ने इसी हिद्वतीय धारणा को भथि� का वास्तहिवक 2ेत्र घोहिषत हिकया �ै। उन्�ोंने भ�ों के स�2, एक �ूर्षितं हिवशेष को स्थान देने के सा-सा,ईश्वर के पर� हिवराk (लेहिकन पर� याB)रुप की प्रहितष्ठा की �ै । तुलसी, शुक्ल जी को अकारण �ी हिप्रय न�ी �ै । दशरनंदन श्रीरा� को व्रह्म �ानने काअहितशय आग्र� करने वाले तुलसीदास का व�व्य �ै हिक भगवान का अनन्य सेवक व��ै, जो य� �ानता �ै हिक य� चराचर, जड़चेतन�य जगत, ईश्वर का रुप �ै और �ैंइस ईश्वर-रुपी जगत का सेवक हूँ :सो अनन्य जाके अथिस �हित न kरिरअ �नु�ंत ।�ैंसेवक सचराचर रुप स्वामि� भगवंत ।। इतना सब �ोने के बाबजूद (भारतीय सिचंताधाराके स्वाभाहिवक हिवकास से पूणBत: परिरथिचत �ोने के बावजूद) शुक्ल जी जब इस्ला�के आग�न को ��त्त्वपूणB �ानते �ैं तो इसका कुछ अB �ोना चाहि�ए । �ेरी स�झसे इसका अB य� �ै हिक शुक्ल जी इस्ला� के आग�न को, भथि� के प्रवा� के

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उजड़ने का `त्वराकारककरण’ �ानते �ैं । भारतीय सिचंताधारा का शास्त्रीय एवंलोकोन्�ुखी प्रवा� जिजधर जा र�ा ा, उसकी स्वाभाहिवक परिरणहित भथि� �ें �ी ी, लेहिकन इस्ला� जैसे सुसंगदिठत धार्मि�ंक �तवाद के आक्र�ण ने उस�े उसी त्वरा का का�ा,जिजस त्वरा का का� हिद्वतीय हिवश्व-युद्ध ने भारतीय स्वतंत्रता की प्रान्तिप्त �ेंहिकया ा । धार्मि�ंक साहि�त्य आदिदकाव्य �ें ा �ीं । इस्ला� ने जब परिरस्थिस्थहितयोंको बदल दिदया तो हिफर वीर-काव्य से प्रवॄक्षित्त �k गयी । �न धार्मि�ंक साहि�त्यपर जाकर दिkक गया । आदिदकाव्य �ें धार्मि�ंक साहि�त्य की धारा प्र�ुख न�ीं ी,इधर उसी की प्र�ुखता �ो गयी । वीर-गााओं के सॄजन के �ूल �ें, इस्ला�द्वारा उत्पन्न नवीन परिरस्थिस्थहित �ी ी। युद्धरत राजाओं के दरबारी कहिव उनकीवीरता का बढ़ा-चढ़ा कर गान कर र�े े । जब परिरस्थिस्थहित पराजय �ें परिरणत�ो गयी तो वीरगााए ंक� �ोते-�ोते लुप्त �ो गयी और आदिदकाव्य की धार्मि�ंककाव्य धारा, भथि� काव्य के रुप �ें फूk पड़ी । शुक्ल जी का य�ी क�ना �ैहिक ईश्वर के अलावा और क�ीं आश्रय-प्रान्तिप्त की संभावना न�ीं ी । शुक्ल जी एकब्रह्म त्वराकारककरण’ के रुप �ें इस्ला� को प�चान र�े �ैं । उनका व�व्यन तो उप�ासास्पद �ै और न भारतीय सिचंताधारा के स्वाभाहिवक हिवकास से अपरिरथिचत�ोने के कारण �ी �ै । शुक्ल जी ने भथि� काव्य की स�स्त काव्यधाराओंका पूणB आकलन एवं �ूल्यांकन हिकया �ै । हिनगुBण काव्यधारा ने जाहित�ीन,वगB�ीन,क�Bकांड�ीन, आडंबर-�ीन भथि�-पद्धहित का प्रचार करके, स�ाज केहिपछडे़ वगB के एक बहुत बडे़ हि�स्से को संभाल थिलया ा, शुक्ल जी ने इसकेथिलए कबीर की बड़ी सरा�ना की �ै । कॄष्ण-भथि� काव्य के उच्छल राग कीग�राई (श्रॄंगार और वात्सल्य के कुरु2ेत्र �ें हिवशेष रुप से) का उन्�ोंनेपूणBरुपेण ��त्त्वांकन हिकया �ै । सूफी काव्य-धाराके अवदान को उन्�ोंने पूणBरूपेण स्वीकारा । �ाँ शुक्ल जी, रा�-भथि� की �याBदावादी धारा केप्रहित हिवशेष अक्षिभरूथिच रखने के कारण, रा�-भथि� �ें प्रवाहि�त रथिसक संप्रदायको स्वीकार न�ीं कर सके । इस पर उन्�ोनें अपना आक्रोश व्य� हिकया �ै ।इसे वे कॄष्ण भथि� का अनुकरण �ानतेे । रथिसक संप्रदाय द्वारा उस्थिल्लखिखतप्राचीन गं्रो को वे जाली �ानते े । अयोध्या के कुछ खास लोगों द्वाराअचानक हिकसी प्राचीन पांडु-थिलहिप की अन्वेषण को वे संदे� की दमॄिQ सेदेखते े । शुक्ल जी को इसके थिलएयदिद कोई दोषी क�ना चा�े तो क� सकता �ै। लेहिकन शुक्ल जी के आदशB रा�राज्य के हिन�ाBता श्रीरा� की बांकी अदा,हितरछी थिचतवन, उनके द्वारा सीता की नीबी खोलने की बरजोरी, उनकी रस लंपkता,झाऊ के झुर�ुk �ें उनके द्वारा स्वचं्छद परकीया-हिव�ार आदिद का थिचत्रण उनके�याBदाशील �ानस को भला न�ीं लगता ा । इन बातों को वे लीला पुरूषोत्त� केसा स्वीकार करते े लेहिकन �याBदा पुरूषोत्त� के सा न�ीं । कुछ लोगों की�ान्यता �ैं हिक भथि� के थिलए तन्�यता आवश्यक �ै । इस तन्�यता का�, क्रोध,वैर, भय आदिद भावों के द्वारा भी प्राप्त की जा सकती �ैं। भागवत् �ें एकस्थान पर स्वीकार हिकया गया �ै—का�, क्रोध, भय आदिद के द्वारा ईश्वर से जिजतनीतन्�यता प्राप्त की जा सकती �ै, उतनी भथि� द्वारा भी न�ीं । का� से गोहिपयों

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ने, क्रोध से कंस ने और वैर से थिशशुपाल ने तन्�यता क्या तदरूपता प्राप्त कीी ।5.इस आधार पर रा�-भथि� �ें भी गोपी भाव का प्रवेश की दमॄिQ से उथिचत�ीं �ै । य� �ात्र व्यथि�क साधन की हिवमिध �ो सकती �ै । इस�ें स�ुचे स�ाजकी �ुथि�-का�ना न�ीं �ै । शुक्ल जी का �याBदावादी �न ऐसी भथि�-पद्धहितऔर काव्य-पद्धहित का पोषक �ै, जिजस�ें “सुरसरिर स� कर हि�त” की का�ना भरी हुई�ो । शुक्लजी पूरे स�ाज की �ुथि� चा�ते े । शुक्ल जी का स�य भारतीय जनताकी �ुथि�-का�ना का स�य ा । गांधी पूरे भारतीय जीवन की स्वतंत्रता के थिलएलड़ाई कर र�े े । गांधी को भी आदशB राज्य-व्यवस्था के रुप �ें रा�राज्य �ीदिदखायी पड़ र�ा ा । शुक्ल जी ने अपना इहित�ास प्रस्तुत करते हुए क�ा ा हिकइस�ें जो भी अशु-जिद्धयाँ हुई �ो, उनके थिलए 2�ा और जो कमि�यां र� गयी �ोंउनकी पूर्षितं-का�ना के सा �ी �ैं अपना श्र� साBक स�झ सकता हूँ । शुक्ल जीके सिचंतन की कमि�यों (?) को दूर करने के थिलए अमिधक श्र� की आवश्यकता �ै । चालू�ू�ावरों से य� का� पूरा न�ीं �ोगा । चालू �ू�ावरों �ें सिचंतन का परिरणा��ै हिक लोगों को भथि�-धारा �ें भी उच्च वगB और हिनम्न वगB का संघषB दिदखायीपड़ता �ैं । “�ुथि� बोध की �ुख्य स्थापना य� �ै हिक हिनचली जाहितयों के बीचसे पैदा�ोने वाले संतो के द्वारा हिनगुBण भथि� के रुप �ें भथि� आंदोलन एकक्रांहितकारी आंदोलन के रुप �ें पैदा हुआ हिकंतु आगे चलकर ऊंची-जाहित वालों नेइसकी शथि� को प�चान कर इसे अपनाया और उसे हिवचारों के अनुरुप ढालकर कॄष्णऔर रा� की सगुण भथि� का रुप दे डाला जिजससे उसके क्रांहितकारी दांत उखाड़ थिलएगये । इस प्रहिक्रया �ें कॄष्ण-भथि� �ें तो कुछ क्रांहितकारी तत्त्व बचे र�गये लेहिकन रा�भथि� �ें जाकर तो र�े-स�े तत्त्व भी गायब �ो गये । इस हिवशे्लषण�ें य� न�ीं दिदया गया हिक हिनगुBण भथि� धारा, सगुण धारासे पूवBवतg न�ीं�ै । दक्षि2ण के आलवार भ� सगुण आराधक े, हिनगुBण न�ीं । उत्तर भारत �ें(हि�न्दी �ें) हिनगुBण भथि� काव्य का प्रवा� ना�देव से प्रारंभ हुआ ा ।ना�-देव प�ले सगुणोपासक े, हिबठोवा के भ� । उन्�ें यत्नपूवBक हिनगुBणसाधनों की ओर �ोड़ा गया ा । आलवार भ� अमिधकतर हिनम्न वगB के औरसगुणोपासक �ैं । ना�देव भी हिनम्नवगB के �ैं (दरजी �ैं) लेहिकन प्रारंभ �ेंवे हिबठोवा के भ� े उस भथि� से उन्�ें हिव�ुख करने के थिलए उनके गुरुको लंबा नाkक करना पड़ा ा। अत: हिनम्न वगB के लोगों द्वारा क्रांहितकारीहिनगुBण भथि� के प्रवा� की बात ऐहित�ाथिसक और तास्तित्त्वक दोनों दमॄिQयों सेअशुद्ध और अपूणB �ैं । शुक्ल जी �याBदावादी रा�भथि� के स�Bक �ैं इसथिलएन�ीं हिक व� उच्च-वणgय तुलसीदास द्वारा प्रचारिरत �ैं बस्तिल्क इसथिलए हिक उसभथि�-पद्धहित �ें स�स्त स�ाज के �ुथि� की का�ना �ै । स�ाज के प्रत्येक वगBका कल्याण भरा हुआ �ै । शुक्ल जी के स�स्त प्रहित�ान इसी से संपॄ� �ैं।

म�क्ति�बोध का भक्ति� आंदोलनPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 6, 2008

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सुप्रथिसद्ध हि�न्दी कहिव गजानन �ाधव �ुथि�बोध गंभीर सिचंतक भी े। भथि� आंदोलन पर उनका य� आलेख कई दृमिQयों से आज भी प्रासंहिगक �ै। प�ली दफा य� ‘नयी दिदशा` पहित्रका �ें �ई १९५५ �ें प्रकाथिशत हुआ ा।                               -संपादक �ेरे �न �ें बार-बार य� प्रश्न उठता �ै हिक कबीर और हिनगुBण पन्थ के अन्य कहिव ता दक्षि2ण के कुछ ��ाराष्ट्रीय सन्त तुलसीदास जी की अपे2ा अमिधक आधुहिनक क्यों लगते �ैं? क्या कारण �ै हिक हि�न्दी-2ेत्र �ें जो सबसे अमिधक धार्मि�ंक रूप से कट्टर वगB �ै, उन�ें भी तुलसीदासजी इतने लोकहिप्रय �ैं हिक उनकी भावनाओं और वैचारिरक अस् त्रों द्वारा, व� वगB आज भी आधुहिनक दृमिQ और भावनाओं से संघषB करता र�ता �ै? स�ाज के पारिरवारिरक 2ेत्र �ें इस कट्टरपन को अब नये पंख भी फूkने लगे �ैं। खैर, लेहिकन य� इहित�ास दूसरा �ै। �ूल प्रश्न जो �ैंने उठाया �ै उसका कुछ-न-कुछ �ूल उत्तर तो �ै �ी। �ैं य� स�झता हूं हिक हिकसी भी साहि�त्य का ठीक-ठीक हिवशे्लषण तब तक न�ीं �ो सकता जब तक �� उस युग की �ूल गहित�ान सा�ाजिजक शथि�यों से बनने वाले सांस्कृहितक इहित�ास को ठीक-ठीक न जान लें। कबीर ��ें आपेक्षि2क रूप से आधुहिनक क्यों लगते �ैं, इस �ूल प्रश्न का �ूल उत्तर भी उसी सांस्कृहितक इहित�ास �ें क�ीं थिछपा हुआ �ै। ज�ां तक ��ाराष्ट्र की सन्त-परम्परा का प्रश्न �ै, य� हिनर्षिवंवाद �ै हिक �राठी सन्त-कहिव, प्र�ुखत:, दो वग? से आये �ैं, एक ब्राह्मण और दूसरे ब्राह्मणेतर। इन दो प्रकार के सन्त-कहिवयों के �ानव-ध�B �ें बहुत कुछ स�ानता �ोते हुए भी, दृमिQ और रुझान का भेद भी ा। ब्राह्मणेतर सन्त-कहिव की काव्य-भावना अमिधक जनतन्त्रात्�क, सवा�गीण आर �ानवीय ी। हिनचली जाहितयों की आत्�-प्रस्थापना के उस युग �ें, कट्टर पुराणपत्मिन्थयों ने जो-जो तकलीफें रÏ इन सन्तों को दी �ैं उनसे ज्ञानेश्वर-जैसे प्रचण्ड प्रहितभावन सन्त का जीवन अत्यन्त करुण कQ�य और भयंकर दृढ़ �ो गया। उनका प्रथिसद्ध ग्रन्थ ज्ञानेवश्वरी तीन सौ वष? तक थिछपा र�ा। उ� ग्रन्थ की कीर्षितं का इहित�ास तो तब से शुरू �ोता �ै जब व� पुन: प्राप्त हुआ। य� स्पQ �ी �ै हिक स�ाज के कट्टरपत्मिन्थयों ने इन सन्तों को अत्यन्त कQ दिदया। इन कQों का क्या कारण ा? और ऐसी क्या बात हुई हिक जिजस कारण हिनम्न जाहितयां अपने सन्तों को लेकर राजनैहितक, सा�ाजिजक, सांस्कृहितक 2ेत्र �ें कूद पड़ीं? �ुस्तिश्कल य� �ै हिक भारत के सा�ाजिजक-आर्चिकं हिवकास के सुसम्बद्ध इहित�ास के थिलए आवश्यक सा�ग्री का बड़ा अभाव �ै। हि�न्दू इहित�ास थिलखते न�ीं े, �ुस्थिस्ल� लेखक घkनाओं का �ी वणBन करते े। इहित�ास-लेखन पयाBप्त आधुहिनक �ै। शान्तिन्तहिनकेतन के ता अन्य पस्थिण्डतों ने भारत के सांस्कृहितक इहित�ास के 2ेत्र �ें बहुत अन्वेषण हिकये �ैं। हिकन्तु सा�ाजिजक-आर्चिकं हिवकास के इहित�ास के 2ेत्र �ें अभी तक कोई ��त्वपूणB का� न�ीं हुआ �ै।ऐसी स्थिस्थहित �ें �� कुछ सवBसम्�त तथ्यों को �ी आपके सा�ने प्रस्तुत करेंगे। (१) भथि�-आन्दोलन दक्षि2ण भारत से आया। स�ाज की ध�Bशाव़ादी वेद-उपहिनषद्वादी शथि�यों ने उसे प्रस्तुत न�ीं हिकया, वरन् आलवार सन्तों ने और उनके प्रभाव �ें र�नेवाले जनसाधारण ने उसका प्रसार हिकया। (२) ग्यार�वीं सदी से ��ाराष्ट्र की गरीब जनता �ें भथि� आन्दोलन का प्रभाव अत्यमिधक हुआ। राजनैहितक दृमिQ से, य� जनता हि�न्दू-�ुस्थिस्ल� दोनों प्रकार के सा�न्ती उच्चवगgयों से पीहिड़त र�ी। सन्तों की व्यापक �ानवतावादी वाणी ने उन्�ें बल दिदया। कीतBन-गायन ने उनके जीवन �ें रस-संचार हिकया। ज्ञानेश्वर, तुकारा�

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आदिद सन्तों ने गरीब हिकसान और अन्य जनता का �ागB प्रशस्त हिकया। इस सांस्कृहितक आत्�-प्रस्थापना के उपरान्त थिसफB एक और कद� की आवश्यकता ी। व� स�य भी शीघ्र �ी आया। गरीब उद्धत हिकसान ता अन्य जनता को अपना एक और सन्त, रा�दास, मि�ला और एक नेता प्राप्त हुआ, थिशवाजी। इस युग �ें राजनैहितक रूप से ��ाराष्ट्र का जन्� और हिवकास हुआ। थिशवाजी के स�स्त छापे�ार युद्धों के सेनापहित और सैहिनक, स�ाज के शोहिषत तबकों से आये। आगे का इहित�ास आपको �ालू� �ी �ै-हिकस प्रकार सा�न्तवाद kूkा न�ीं, हिकसानों की पीड़ाए ं वैसी �ी र�ीं, थिशवाजी के उपरान्त राजसत्ता उच्च वंशोत्पन्न ब्राह्मणों के �ा पहुंची, पेशवाओं (जिजन्�ें �राठे भी जाना जाता र�ा) ने हिकस प्रकार के युद्ध हिकये और वे अंगेजों के हिवरूद्ध क्यों असफल र�े, इत्यादिद। (३) उच्चवगgयों और हिनम्नवगgयों का संघषB बहुत पुराना �ै। य� संघषB हिन:सन्दे� धार्मि�ंक, सांस्कृहितक, सा�ाजिजक 2ेत्र �ें अनेकों रूपों �ें प्रकk हुआ। थिसद्धों और ना-सम्प्रदाय के लोगों ने जनसाधारण �ें अपना पयाBप्त प्रभाव रखा, हिकन्तु भथि�-आन्दोलन का जनसाधारण पर जिजतना व्यापक प्रभाव हुआ उतना हिकसी अन्य आन्दोलन का न�ीं। प�ली बार शूद्रों ने अपने सन्त पैदा हिकये, अपना साहि�त्य और अपने गीत सृजिजत हिकए। कबीर, रैदास, नाभा सिसंपी, सेना नाई, आदिद-आदिद ��ापुरुषों ने ईश्वर के ना� पर जाहितवाद के हिवरुद्ध आवाज बुलंद की। स�ाज के न्यस्त स्वाBवादी वगB के हिवरुद्ध नया हिवचारवाद अवश्यंभावी ा। व� हुआ, तकलीफें हुई। लेहिकन एक बात �ो गयी।थिशवाजी स्वयं �राठा 2हित्रय ा, हिकन्तु भथि�-आंदोलन से, जाग्रत जनता के कQों से, खूब परिरथिचत ा, और स्वयं एक कुशल संगठक और वीर सेनाध्य2 ा। सन्त रा�दास, जिजसका उसे आशीवाBद प्राप्त ा, स्वयं सनातनी ब्राह्मणवादी ा, हिकन्तु नवीन जाग्रत जनता की शथि� से खूब परिरथिचत भी ा। सन्त से अमिधक व� स्वयं एक सा�न्ती राष्ट्रवादी नेता ा। तब तक कट्टरपंी शोषक तत्वों �ें य� भावना पैदा �ो गयी ी हिक हिनम्नजातीय सन्तों से भेदभाव अच्छा न�ीं �ै। अब ब्राह्मण-शथि�यां स्वयं उन्�ीं सन्तों का कीतBन-गायन करने लगीं। हिकन्तु इस कीतBन-गायन के द्वारा वे उस स�ाज की रचना को, जो जाहितवाद पर आधारिरत ी, �जबूत करती जा र�ी ीं। एक प्रकार से उन्�ोंने अपनी परिरस्थिस्थहित से स�झौता कर थिलया ा। दूसरे, भथि� आन्दोलन के प्रधान सन्देश से पे्ररणा प्राप्त करनेवाले लोग ब्राह्मणों �ें भी �ोने लगे े। रा�दास, एक प्रकार से, ब्राह्मणों �ें से आये हुए अन्तिन्त� सन्त �ैं, इसके प�ले एकना �ो चुके े। क�ने का सारांश य� हिक नवीन परिरस्थिस्थहित �ें यद्यहिप युद्ध-सत्ता (राजसत्ता) शोहिषत और गरीब तबकों से आये सेनाध्य2ों के पास ी, हिकन्तु सा�ाजिजक 2ेत्र �ें पुराने सा�न्तवादिदयों और नये सा�न्तवादिदयों �ें स�झौता �ो गया ा। नये सा�न्तवादी कुनहिवयों, धनगरों, �राठों और अन्य गरीब जाहितयों से आये हुए सेनाध्य2 े। इस स�झौते का फल य� हुआ हिक पेशवा ब्राह्मण हुए, हिकन्तु युद्ध-सत्ता नवीन सा�न्तवादिदयों के �ा �ें र�ी। उधर सा�ाजिजक-सांस्कृहितक 2ेत्र �ें हिनम्नवगgय भथि��ाBग के जनवादी संदेश के दांत उखाड़ थिलये गये। उन सन्तों को सवBवगgय �ान्यता प्राप्त हुई, हिकन्तु उनके सन्देश के �ूल स्वरूप पर कुठारघात हिकया गया, और जाहितवादी पुराणध�B पुन: हिन:शंक भाव से प्रहितमिष्ठत हुआ। (४) उत्तर भारत �ें हिनगुBणवादी भथि�-आन्दोलन �ें शोहिषत जनता का सबसे बड़ा �ा ा। कबीर, रैदास, आदिद सन्तों की बाहिनयों का सन्देश, तत्कालीन �ानों के अनुसार, बहुत अमिधक क्रांन्तिन्तकारी ा। य� आकस्तिस्�कता न ी हिक चण्डीदास क� उठता �ै :  शुन� �ानुष भाई

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शबार ऊपरे �ानुष शतोता�ार उपरे नाई।  इस �नुष्य-सत्य की घोषणा के क्रांहितकारी अक्षिभप्राय कबीर �ें प्रकk हुए। कुरीहितयों, धार्मि�ंक अन्धहिवश्वासों और जाहितवाद के हिवरुद्ध कबीर ने आवाज उठायी। व� फैली। हिनम्न जाहितयों �ें आत्�हिवश्वास पैदा हुआ। उन�ें आत्�-गौरव का भाव हुआ। स�ाज की शासक-सत्ता को य� कब अच्छा लगता? हिनगुBण �त के हिवरुद्ध सगुण �त का प्रारस्तिम्भक प्रसार और हिवकास उच्चवंथिशयों �ें हुआ। हिनगुBण �त के हिवरुद्ध सगुण�त का संघषB हिनम्न वग? के हिवरुद्ध उच्चवंशी संस्कारशील अक्षिभरूथिचवालों का संघषB ा। सगुण �त हिवजयी हुआ। उसका प्रारस्तिम्भक हिवकास कृष्णभथि� के रूप �ें हुआ। य� कृष्णभथि� कई अ? �ें हिनम्नवगgय भथि�-आन्दोलन से प्रभाहिवत ी। उच्चवगgयों का एक भावुक तबका भथि�-आन्दोलन से ��ेशा प्रभाहिवत �ोता र�ा, चा�े व� दक्षि2ण भारत �ें �ो या उत्तर भारत �ें। इस कृष्णभथि� �ें जाहितवाद के हिवरुद्ध कई बातें ीं। व� एक प्रकार से भावावेशी व्यथि�वाद ा। इसी कारण, ��ाराष्ट्र �ें, हिनगुBण �त के बजाय हिनम्न-वगB �ें, सगुण �त �ी अमिधक फैला। सन्त तुकारा� का हिबठोबा एक सावBजहिनक कृष्ण ा। कृष्णभथि�वाली �ीरा ‘लोकलाज` छोड़ चुकी ी। सूर कृष्ण-पे्र� �ें हिवभोर े। हिनम्नवगgयों �ें कृष्णभथि� के प्रचार के थिलए पयाBप्त अवकाश ा, जैसा ��ाराष्ट्र की सन्त परम्परा का इहित�ास बतलाता �ै। उत्तर भारत �ें कृष्णभथि�-शाखा का हिनगुBण �त के हिवरुद्ध जैसा संघषB हुआ वैसा ��ाराष्ट्र �ें न�ीं र�ा। ��ाराष्ट्र �ें कृष्ण की श्रृंगार-भथि� न�ीं ी, न भ्र�रगीतों का जोर ा। कृष्ण एक तारणकताB देवता ा, जो अपने भ�ों का उद्धार करता ा, चा�े व� हिकसी भी जाहित का क्यों न �ो। ��ाराष्ट्रीय सगुण कृष्णभथि� �ें श्रृंगारभावना, और हिनगुBण भथि�, इन दो के बीच कोई संघषB न�ीं ा। उधर उत्तर भारत �ें, नन्ददास वगैर� कृष्णभथि�वादी सन्तों की हिनगुBण �त-हिवरोधी भावना स्पQ �ी �ै। और ये सब लोग उच्चकुलोद्भव े। यद्यहिप उत्तर भारतीय कृष्णभथि� वाले कहिव उच्चवंशीय े, और हिनगुBण �त से उनका सीधा संघषB भी ा, हिकन्तु हि�न्दू स�ाज के �ूलाधार यानी वणाBश्र�-ध�B के हिवरोमिधयों ने जाहितवाद-हिवरोधी हिवचारों पर सीधी चोk न�ीं की ी। हिकन्तु उत्तर भारतीय भथि� आन्दोलन पर उनका प्रभाव हिनणाBयक र�ा। एक बार भथि�-आन्दोलन �ें ब्राह्मणों का प्रभाव ज� जाने पर वणाBश्र� ध�B की पुनर्षिवजंय की घोषणा �ें कोई देर न�ीं ी। ये घोषणा तुलसीदासजी ने की ी। हिनगुBण �त �ें हिनम्नजातीय धार्मि�ंक जनवाद का पूरा जोर ा, उसका क्रान्तिन्तकारी सन्देश ा। कृष्णभथि� �ें व� हिबल्कुल क� �ो गया हिकन्तु हिफर भी हिनम्नजातीय प्रभाव अभी भी पयाBप्त ा। तुलसीदास ने भी हिनम्नजातीय भथि� स्वीकार की, हिकन्तु उसको अपना सा�ाजिजक दायरा बतला दिदया। हिनगुBण �तवाद के जनोन्�ुख रूप और उसकी क्रान्तिन्तकारी जाहितवाद-हिवरोधी भूमि�का के हिवरुद्ध तुलसीदासजी ने पुराण-�तवादी स्वरूप प्रस्तुत हिकया। हिनगुBण-�तवादिदयों का ईश्वर एक ा, हिकन्तु अब तुलसीदासजी ने �नोजगत् �ें परब्रह्म के हिनगुBण-स्वरूप के बावजूद सगुण ईश्वर ने सारा स�ाज और उसकी व्यवस्था-जो जाहितवाद, वणाBश्र� ध�B पर आधारिरत ी-उत्पन्न की। रा� हिनषाद और गु� का आसिलंगन कर सकते े, हिकन्तु हिनषाद और गु� ब्राह्मण का अप�ान कैसे कर सकते े। दाशBहिनक 2ेत्र का हिनगुBण �त जब व्याव�ारिरक रूप से ज्ञान�ागg भथि��ागB बना, तो उस�ें पुराण-�तवाद को स्थान न�ीं ा। कृष्णभथि� के द्वारा पौराक्षिणक काए ंघुसीं, पुराणों ने रा�भथि� के रूप �ें आगे चलकर वणाBश्र� ध�B की पुनर्षिवजंय की घोषणा की। साधारण जनों के थिलए कबीर का सदाचारवाद तुलसी के सन्देश से अमिधक क्रान्तिन्तकारी ा। तुलसी को भथि� का य� �ूल तत्व तो स्वीकार करना �ी पड़ा हिक रा� के सा�ने सब बराबर �ैं, हिकन्तु चंूहिक रा� �ी ने

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सारा स�ाज उत्पन्न हिकया �ै, इसथिलए वणाBश्र� ध�B और जाहितवाद को तो �ानना �ी �ोगा। पं. रा�चन्द्र शुक्ल जो हिनगुBण �त को कोसते �ैं, व� यों �ी न�ीं। इसके पीछे उनकी सारी पुराण-�तवादी चेतना बोलती �ै। क्या य� एक ��त्वपूणB तथ्य न�ीं �ै हिक रा�भथि�-शाखा के अन्तगBत, एक भी प्रभावशाली और ��त्पूणB कहिव हिनम्नजातीय शूद्र वग? से न�ीं आया? क्या य� एक ��त्वपूणB तथ्य न�ीं �ै हिक कृष्णभथि�-शाखा के अन्तगBत रसखान और र�ी�-जैसे हृदयवान �ुसल�ान कहिव बराबर र�े आये, हिकन्तु रा�भथि�-शाखा के अन्तगBत एक भी �ुसल�ान और शूद्र कहिव प्रभावशाली और ��त्वपूणB रूप से अपनी काव्यात्�क प्रहितभा हिवशद न�ीं कर सका? जब हिक य� एक स्वत: थिसद्ध बात �ै हिक हिनगुBण-शाखा के अन्तगBत ऐसे लोगों को अच्छा स्थान प्राप्त ा।हिनष्कषB य� हिक जो भथि�-आंदोलन जनसाधारण से शुरू हुआ और जिजस�ें सा�ाजिजक कट्टरपन के हिवरुद्ध जनसाधारण की सांस्कृहितक आशा-आकां2ाए ंबोलती ीं, उसका ‘�नुष्य-सत्य` बोलता ा, उसी भथि�-आन्दोलन को उच्चवगgयों ने आगे चलकर अपनी तर� बना थिलया, और उससे स�झौता करके, हिफर उस पर अपना प्रभाव काय� करके, और अनन्तर जनता के अपने तत्वों को उन�ें से हिनकालकर, उन्�ोंने उसपर अपना पूरा प्रभुत्व स्थाहिपत कर थिलया। और इस प्रकार, उच्चवंशी उच्चजातीय वग? का-स�ाज के संचालक शासक वग? का-धार्मि�ंक-सांस्कृहितक 2ेत्र �ें पूणB प्रभुत्व स्थाहिपत �ो जाने पर, साहि�न्तित्यक 2ेत्र �ें उन वग? के प्रधान भाव-श्रृंगार-हिवलास-का प्रभावशाली हिवकास हुआ, और भथि�-काव्य की प्रधानता जाती र�ी। क्या कारण �ै हिक तुलसीदास भथि�-आन्दोलन के प्रधान (हि�न्दी 2ेत्र �ें) अन्तिन्त� कहिव े? सांस्कृहितक-साहि�न्तित्यक 2ेत्र �ें य� परिरवतBन भथि�-आन्देालन की थिशथिलता को द्योहितत करता �ै। हिकन्तु य� आन्दोलन इस 2ेत्र �ें थिशथिल क्यों हुआ? ईसाई �त का भी य�ी �ाल हुआ। ईसा का �त जनसाधारण �ें फैला तो यहूदी धहिनक वग? ने उसका हिवरोध हिकया, रो�न शासकों ने उसका हिवरोध हिकया। हिकन्तु जब व� जनता का अपना ध�B बनने लगा, तो धहिनक यहूदी और रो�न लोग भी उसको स्वीकार करने लगे। रो� शासक ईसाई हुए और सेंk पॉल ने उसी भावुक पे्र��ूलक ध�B को कानूनी थिशकंजों �ें जकड़ थिलया, पोप जनता से फीस लेकर पापों और अपराधों के थिलए 2�ापत्र हिवतरिरत करने लगा। यदिद �� ध�? के इहित�ास को देखें, तो य� जरूर पायेंगे हिक तत्कालीन जनता की दुरवस्था के हिवरुद्ध उसने घोषणा की, जनता को एकता और स�ानता के सूत्र �ें बांधने की कोथिशश की। हिकन्तु ज्यों-ज्यों उस ध�B �ें पुराने शासकों की प्रवृक्षित्त वाले लोग घुसते गये और उनका प्रभाव ज�ता गया, उतना-उतना गरीब जनता का प2 न केवल क�जोर �ोता गया, वरन् उसको अन्त �ें उच्चवग? की दासता-धार्मि�ंक दासता-भी हिफर से ग्र�ण करनी पड़ी।क्या कारण �ै हिक हिनगुBण-भथि��ागg जाहितवाद-हिवरोधी आन्दोलन सफल न�ीं �ो सका? उसका �ूल कारण य� �ै हिक भारत �ें पुरानी स�ाज-रचना को स�ाप्त करनेवाली पंूजीवादी क्रांहितकारी शथि�यां उन दिदनों हिवकथिसत न�ीं हुई ीं। भारतीय स्वदेशी पंूजीवाद की प्रधान भौहितक-वास्तहिवक भूमि�का हिवदेशी पंूजीवादी साम्राज्यवाद ने बनायी। स्वदेशी पंूजीवाद के हिवकास के सा �ी भारतीय राष्ट्रवाद का अभ्युदय और सुधारवाद का जन्� हुआ, और उसने सा�न्ती स�ाज-रचना के �ूल आर्चिंक आधार, यानी पेशेवर जाहितयों द्वारा सा�ाजिजक उत्पादन की प्रणाली स�ाप्त कर दी। गांवों की पंचायती व्यवस्था kूk गयी। ग्रा�ों की आर्चिकं आत्�हिनभBरता स�ाप्त �ो गयी। 

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भथि�-काल की �ूल भावना साधारण जनता के कQ और पीड़ा से उत्पन्न �ै। यद्यहिप पस्थिण्डत �जारीप्रसाद हिद्ववेदी का य� क�ना ठीक �ै हिक भथि� की धारा बहुत प�ले से उद्गत �ोती र�ी, और उसकी पूवBभूमि�का बहुत पूवB से तैयार �ोती र�ी। हिकन्तु उनके द्वारा हिनकाला गया य� तकB ठीक न�ीं �ालू� �ोता �ै हिक भथि�-आन्दोलन का एक �ूल कारण जनता का कQ �ै। हिकन्तु पस्थिण्डत शुक्ल ने इन कQों के �ुस्थिस्ल�-हिवरोध और हि�न्दू-राज सत्ता के प2पाती जो अक्षिभप्राय हिनकाले �ैं, वे उथिचत न�ीं �ालू� �ोते। असल बात य� �ै हिक �ुसल�ान सन्त-�त भी उसी तर� कट्टरपत्मिन्थयों के हिवरुद्ध ा, जिजतना हिक भथि�-�ागB। दोनों एक-दूसरे से प्रभाहिवत भी े। हिकन्तु इस बात से इनकार न�ीं हिकया जा सकता हिक भथि�-भावना की तीव्र आद्रBता और सारे दु:खों और कQों के परिर�ार के थिलए ईश्वर की पुकार के पीछे जनता की भयानक दु:स्थिस्थहित थिछपी हुई ी। य�ां य� ��ेशा ध्यान �ें रखना चाहि�ए हिक य� बात साधारण जनता और उस�ें से हिनकले हुए सन्तों की �ै, चा�े वे ब्राह्मण वगB से हिनकले �ों या ब्राह्मणेतर वगB से। सा �ी, य� भी स्�रण रखना �ोगा हिक श्रृंगार-भथि� का रूप उसी वगB �ें सवाBमिधक प्रचथिलत हुआ ज�ां ऐसी श्रृंगार-भावना के परिरपोष के थिलए पयाBप्त अवकाश और स�य ा, फुसBत का स�य। भथि�-आन्दोलन का आहिवभाBव, एक ऐहित�ाथिसक-सा�ाजिजक शथि� के रूप �ें, जनता के दु:खों और कQों से हुआ, य� हिनर्षिवंवाद �ै।हिकसी भी साहि�त्य को ��ें तीन दृमिQयों से देखना चाहि�ए। एक तो य� हिक व� हिकन सा�ाजिजक और �नोवैज्ञाहिनक शथि�यों से उत्पन्न �ै, अाBत् व� हिकन शथि�यों के काय? का परिरणा� �ै, हिकन सा�ाजिजक-सांस्कृहितक प्रहिक्रयायों का अंग �ै? दूसरे य� हिक उसका अन्त:स्वरूप क्या �ै, हिकन पे्ररणाओं और भावनाओं ने उसके आन्तरिरक तत्व रूपामियत हिकये �ैं? तीसरे, उसके प्रभाव क्या �ैं, हिकन सा�ाजिजक शथि�यों ने उसका उपयोग या दुरूपयोग हिकया �ै और क्यों? साधारण जन के हिकन �ानथिसक तत्वों को उसने हिवकथिसत या नQ हिकया �ै? तुलसीदासजी ने सम्बन्ध �ें इस प्रकार के प्रश्न अत्यन्त आवश्यक भी �ैं। रा�चरिरत�ानसकार एक सच्चे सन्त े, इस�ें हिकसी को भी कोई सन्दे� न�ीं �ो सकता। रा�चरिरत�ानस साधारण जनता �ें भी उतना �ी हिप्रय र�ा जिजतना हिक उच्चवगgय लोगों �ें। कट्टरपत्मिन्थयों ने अपने उ�ेश्यों के अनुसार तुलसीदासजी का उपयोग हिकया, जिजस प्रकार आज जनसंघ और हि�न्दू ��ासभा ने थिशवाजी और रा�दास का उपयोग हिकया। सुधारवादिदयों की ता आज की भी एक पीढ़ी को तुलसीदासजी के वैचारिरक प्रभाव से संघषB करना पड़ा, य� भी एक बड़ा सत्य �ै। हिकन्तु सा �ी य� भी ध्यान रखना �ोगा हिक साधारण जनता ने रा� को अपना त्राणकताB भी पाया, गु� और हिनषाद को अपनी छाती से लगानेवाला भी पाया। एक तर� से जनसाधारण की भथि�-भावना के भीतर स�ाये हुए स�ान पे्र� का आग्र� भी पूरा हुआ, हिकन्तु व� सा�ाजिजक ऊंच-नीच को स्वीकार करके �ी। रा� के चरिरत्र द्वारा और तुलसीदासजी के आदेशों द्वारा सदाचार का रास्ता भी मि�ला। हिकन्तु व� �ागB कबीर के और अन्य हिनगुBणवादिदयों के सदाचार का जनवादी रास्ता न�ीं ा। सच्चाई और ई�ानदारी, पे्र� और स�ानुभूहित से ज्यादा बड़ा तकाजा ा सा�ाजिजक रीहितयों का पालन। (देखिखए रा�ायण �ें अनुसूया द्वारा सीता को उपदेश)। उन रीहितयों और आदेशों का पालन करते हुए, और उसकी सी�ा �ें र�कर �ी, �नुष्य के उद्धार का रास्ता ा। यद्यहिप य� क�ना कदिठन �ै हिक हिकस �द तक तुलसीदासजी इन आदेशों का पालन करवाना चा�ते े और हिकस �द तक न�ीं। य� तो स्पQ �ी �ै हिक उनका सुझाव हिकस ओर ा। तुलसीदासजी द्वारा इस वणाBश्र� ध�B की पुन:स्थाBपना के अनन्तर हि�न्दी साहि�त्य �ें हिफर से कोई ��ान भ�-कहिव न�ीं हुआ तो इस�ें आश्चयB न�ीं। आश्चयB की बात य� �ै हिक आजकल प्रगहितवादी 2ेत्रों �ें तुलसीदासजी के सम्बंध �ें जो कुछ थिलखा गया �ै,

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उस�ें जिजस सा�ाजिजक-ऐहित�ाथिसक प्रहिक्रया के तुलसीदासजी अंग े, उसको जान-बूझकर भुलाया गया �ै। पस्थिण्डत रा�चन्द्र शुक्ल की वणाBश्र�ध�g जाहितवादग्रस्त सा�ाजिजकता और सच्चे जनवाद को एक दूसरे से ऐसे मि�ला दिदया गया �ै �ानो शुक्लजी (जिजनके प्रहित ��ारे �न �ें अत्यन्त आदर �ै) सच्ची जनवादी सा�ाजिजकता के प2पाती �ों। तुलसीदासजी को पुरातनवादी क�ा जायेगा कबीर की तुलना �ें, जिजनके हिवरुद्ध शुक्लजी ने चोkें की �ैं। दूसरे, जो लोग शोहिषत हिनम्नवगgय जाहितयों के साहि�न्तित्यक और सांस्कृहितक संदेश �ें दिदलचस्पी रखते �ैं, और उस सन्देश के प्रगहितशील तत्वों के प्रहित आदर रखते �ैं, वे लोग तो य� जरूर देखेंगे हिक जनता की सा�ाजिजक �ुथि� को हिकस �द तक हिकसने स�ारा दिदया और तुलसीदासजी का उस�ें हिकतना योग र�ा। चा�े श्री रा�हिवलास श�ाB-जैसे ‘�ाक्सBवादी` आलोचक ��ें ‘वल्गर �ाक्सBवादी` या बूज्वाB क�ें, य� बात हिनस्सन्दे� �ै हिक स�ाजशाीÏय दृमिQ से �ध्ययुगीन भारत की सा�ाजिजक, सांस्कृहितक, ऐहित�ाथिसक शथि�यों के हिवशे्लषण के हिबना, तुलसीदासजी के साहि�त्य के अन्त:स्वरूप क सा2ात्कार न�ीं हिकया जा सकता। ज�ां तक रा�चरिरत�ानस की काव्यगत सफलताओं का प्रश्न �ै, �� उनके सम्�ुख केवल इसथिलए नत�स्तक न�ीं �ैं हिक उस�ें श्रेष्ठ कला के दशBन �ोते �ैं, बस्तिल्क इसथिलए हिक उस�ें उ� �ानव-चरिरत्र के, भव्य और �नो�र व्यथि�त्व-सत्ता के, भी दशBन �ोते �ैं।तुलसीदासजी की रा�ायण पढ़ते हुए, �� एक अत्यन्त ��ान् व्यथि�त्व की छाया �ें र�कर अपने �न और हृदय का आप-�ी-आप हिवस्तार करने लगते �ैं और जब �� कबीर आदिद ��ान् जनोन्�ुख कहिवयों का सन्देश देखते �ैं, तो �� उनके र�स्यवाद से भी �ुं� �ोड़ना चा�ते �ें। �� उस र�स्यवाद के स�ाजशाीÏय अध्ययन �ें दिदलचस्पी रखते �ैं, और य� क�ना चा�ते �ैं हिक हिनगुBण �त की सी�ाएं तत्कालीन हिवचारधारा की सी�ाए ंीं, जनता का प2 लेकर ज�ां तक जाया जा सकता ा, व�ां तक जाना हुआ। हिनम्नजातीय वग? के इस सांस्कृहितक योग की अपनी सी�ाएं ीं। ये सी�ाएं उन वग? की राजनैहितक चेतना की सी�ाए ंीं। आधुहिनक अ? �ें, वे वगB कभी जागरूक सा�ाजिजक-राजनैहितक-संघषB-प पर अग्रसर न�ीं हुए। इसका कारण क्या �ै, य� हिवषय य�ां अप्रस्तुत �ै। केवल इतना �ी क�ना उपयु� �ोगा हिक संघषB�ीनता के अभाव का �ूल कारण भारत की सा�न्तयुगीन सा�ाजिजक-आर्चिकं रचना �ें �ै। दूसरे, ज�ां ये संघषB करते-से दिदखायी दिदये, व�ां उन्�ोंने एक नये सा�ान्ती शासक वगB को �ी दृढ़ हिकया, जैसा हिक ��ाराष्ट्र �ें हुआ �ै। प्रस्तुत हिवचारों के प्रधान हिनष्कषB ये �ैं : (१) हिनम्नवगgय भथि�-भावना एक सा�ाजिजक परिरस्थिस्थहित �ें उत्पन्न हुई और दूसरी सा�ाजिजक स्थिस्थहित �ें परिरणत हुई। ��ाराष्ट्र �ें उसने एक राष्ट्रीय जाहित खड़ी कर दी, थिसख एक नवीन जाहित बन गये। इन जाहितयों ने तत्कालीन सवoत्त� शासक वग? से �ोचाB थिलया। भथि�कालीन सन्तों के हिबना ��ाराष्ट्रीय भावना की कल्पना न�ीं की जा सकती, न थिसख गुरुओं के हिबना थिसख जाहित की। सारांश य� हिक भथि� भावना के राजनैहितक गर्णिभंताB े। ये राजनैहितक गर्णिभंताB तत्कालीन सा�ंती शोषक वग? और उनकी हिवचारधारा के स�Bकों के हिवरुद्ध े। (२) इस भथि�-आन्दोलन के प्रारस्तिम्भक चरण �ें हिनम्नवगgय तत्व सवाBमिधक स2� और प्रभावशाली े। दक्षि2ण भारत के कट्टरपंी तत्व, जो हिक तत्कालीन हि�न्दू सा�न्ती वग? के स�Bक े, इस हिनम्नवगgय सांस्कृहितक जनचेतना के एकद� हिवरुद्ध े। वे उन पर तर�-तर� के उत्याचार भी करते र�े। �ुस्थिस्ल� तत्वों से �ार खाकर भी, हि�न्दू सा�न्ती वगB उनसे स�झौता करने की हिववश्ता स्वीकार कर, उनसे एक प्रकार से मि�ले हुए े। उत्तर भारत �ें हि�न्दुओं के कई वग? का पेशा �ी �ुस्थिस्ल� वग? की सेवा करना ा। अकबर �ी

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प�ला शासक ा, जिजसने तत्कालीन तथ्यों के आधार पर खुलकर हि�न्दू सा�न्तों का स्वागत हिकया। उत्तरप्रदेश ता दिदल्ली के आस-पास के 2ेत्रों �ें हि�न्दू सा�न्ती तत्व �ुसल�ान सा�न्ती तत्वों से थिछkककर न�ीं र� सके। लूk-पाk, नोच-खसोk के उस युग �ें जनता की आर्चिकं-सा�ााजिजक दु:स्थिस्थहित गंभीर ी। हिनम्नवगgय जाहितयों के सन्तों की हिनगुBण-वाणी का, तत्कालीन �ानों के अनुसार, क्रांन्तिन्तकारी सुधारवादी स्वर, अपनी सा�ाजिजक स्थिस्थहित के हिवरुद्ध 2ोभ और अपने थिलए अमिधक �ानवोथिचत परिरस्थिस्थहित की आवश्यकता बतलाता ा। भथि�काल की हिनम्नवगgय चेतना के सांस्कृहितक स्तर अपने-अपने सन्त पैदा करने लगे। हि�न्दू-�ुस्थिस्ल� सा�न्ती तत्वों के शोषण-शासन और कट्टरपंी दृढ़ता से पे्ररिरत हि�न्दू-�ुस्थिस्ल� जनता भथि�-�ागB पर चल पड़ी ी, चा�े व� हिकसी भी ना� से क्यों न �ो। हिनम्नवगgय भथि�-�ागB हिनगुBण-भथि� के रूप �ें प्रसु्फदिkत हुआ। इस हिनगुBण-भथि� �ें तत्कालीन सा�न्तवाद-हिवरोधी तत्व सवाBमिधक े। हिकन्तु तत्कालीन स�ाज-रचना के कट्टर प2पाती तत्वों �ें से बहुतेरे भथि�-आंदोलन के प्रभाव �ें आ गये े। इन�ें से बहुत-से भद्र सा�न्ती परिरवारों �ें से े हिनगुBण भथि� की उदारवादी और सुधारवादी सांस्कृहितक हिवचारधारा का उन पर भारी प्रभाव हुआ। उन पर भी प्रभाव तो हुआ, हिकन्तु आगे चलकर उन्�ोंने भी भथि�-आन्दोलन को प्रभाहिवत हिकया। अपने कट्टरपन्थी पुराण�तवादी संस्कारों से पे्ररिरत �ोकर, उत्तर भारत की कृष्णभथि�, भावावेशवादी आत्�वाद को थिलये हुए, हिनगुBण �त के हिवरुद्ध संघषB करने लगी। इन सगुण �त �ें उच्चवगgय तत्वों का पयाBप्त से अमिधक स�ावेश ा। हिकन्तु हिफर भी इस सगुण श्रृंगारप्रधान भथि� की इतनी हि�म्�त न�ीं ी हिक व� जाहित-हिवरोधी सुधारवादी वाणी के हिवरूद्ध प्रत्य2 और प्रकk रूप से वणाBश्र� ध�B के सावBभौ� औथिचत्य की घोषणा करे। कृष्णभथि�वादी सूर आदिद सन्त-कहिव इन्�ीं वग? से आये े। इन कहिवयों ने भ्र�रगीतों द्वारा हिनगुBण �त से संघषB हिकया और सगुणवाद की प्रस्थापना की। वणाBश्र� ध�B की पुन:स्थाBपना के थिलए थिसफB एक �ी कद� आगे बढ़ना जरूरी ा। तुलसीदासजी के अदम्य व्यथि�त्व ने इस कायB को पूरा कर दिदया। इस प्रकार भथि�-आन्दोलन, जिजस पर प्रारंभ �ें हिनम्नजाहितयों का सवाBमिधक जोर ा, उस पर अब ब्राह्मणवाद पूरी तर� छा गया और सुधारवाद के हिवरुद्ध पुराण �तवाद की हिवजय हुई। इस�ें दिदल्ली के आस-पास के 2ेत्र ता उत्तरप्रदेश के हि�न्दू-�ुस्थिस्ल� सा�न्ती तत्व एक े। यद्यहिप हि�न्दू �ुसल�ानों के अधीन े, हिकन्तु दु:ख और खेद से �ी क्यों न स�ी, य� हिववशता उन्�ोंने स्वीकार कर ली ी। इन हि�न्दू सा�न्त तत्वों की सांस्कृहितक 2ेत्र �ें अब पूरी हिवजय �ो गयी ी। (३) ��ाराष्ट्र �ें इस प्रहिक्रया ने कुछ और रूप थिलया। जन-सन्तों ने अप्रत्य2 रूप से ��ाराष्ट्र को जाग्रत और सचेत हिकया, रा�दास और थिशवाजी ने प्रत्य2 रूप से नवीन राष्ट्रीय जाहित को जन्� दिदया। हिकन्तु तब तक ब्राह्मणवादिदयों और जनता के वगB से आये हुए प्रभावशाली सेनाध्य2ों और सन्तों �ें एक-दूसरे के थिलए काफी उदारता बतलायी जाने लगी। थिशवाजी के उपरान्त, जनता के गरीब वग? से आये हुए सेनाध्य2ों और नेताओं ने नये सा�न्ती घराने स्थाहिपत हिकय। नतीजा य� हुआ हिक पेशवाओं के काल �ें ब्राह्मणवाद हिफर जोरदार �ो गया। क�ने का सारांश य� हिक ��ाराष्ट्र �ें व�ी �ाल हुआ जो उत्तरप्रदेश �ें। अन्तर य� ा हिक हिनम्नजातीय सांस्कृहितक चेतना जिजसे पल-पल पर कट्टरपं से �ुकाबला करना पड़ा ा, व� उत्तर भारत से अमिधक दीघBकाल तक र�ी। पेशवाओं के काल �ें दोनों की स्थिस्थहित बराबर-बराबर र�ी। हिकन्तु आगे चलकर, अंग्रेजी राजनीहित के ज�ाने �ें, पुराने संघष? की यादें दु�रायी गयीं, और ‘ब्राह्मण-ब्राह्मणेतरवाद` का पुनजBन्� और हिवकास हुआ। और इस स�य भी लगभग व�ी स्थिस्थहित �ै। फकB इतना �ी �ै हिक हिनम्नजाहितयों के हिपछडे़ हुए लोग थिशड्यूलकास्k फेडरेशन �ें �ै, और अग्रगा�ी लोग कांग्रेस, पेजेंन्k्स ऐण्ड वकB सB पाkÍ, कम्युहिनस्k पाkÍ ता अन्य वा�प2ी दलों �ें शामि�ल �ो गये �ैं। आखिखर जब इन्�ीं जाहितयों �ें से पुराने ज�ाने �ें सन्त आ सकते े, आगे चलकर सेनाध्य2 हिनकल सकते े, तो अब राजनैहितक हिवचारक और नेता क्यों न�ीं हिनकल सकते?

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 (४) सा�न्तवादी काल �ें इन जाहितयों को सफलता प्राप्त न�ीं �ो सकती ी, जब तक हिक पंूजीवादी स�ाज-रचना सा�न्ती स�ाज-रचना को स�ाप्त न कर देती। हिकन्तु सच्ची आर्चिंक-सा�ाजिजक स�ानता तब तक प्राप्त न�ीं �ो सकती, जब तक हिक स�ाज आर्चिकं-सा�ाजिजक आधार पर वगB�ीन न �ो जाये। (५) हिकसी भी साहि�त्य का वास्तहिवक हिवशे्लषण �� तब तक न�ीं कर सकते, जब तक हिक �� उन गहित�ान सा�ाजिजक शथि�यों को न�ीं स�झते, जिजन्�ोंने �नोवैज्ञाहिनक-सांस्कृहितक धरातल पर आत्�प्रकkीकरण हिकया �ै। कबीर, तुलसीदास आदिद संतों के अध्ययन के थिलए य� सवाBमिधक आवश्यक �ै। �ैं इस ओर प्रगहितवादी 2ेत्र का ध्यान आकर्षिषंत करना चा�ता हूं।

भक्ति� आन्दोलन की प�नव्या�ख्याPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 6, 2008

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हि�न्दू आध्यात्मित्�कता की पुनव्याBख्या की सबसे स्पQ मि�साल �ध्यकालीन भथि� आन्दोलन के हिववेचन के सन्दभB �ें मि�लती �ै। इस हिववेचन �ें भथि� आन्दोलन की सरा�ना और सख्त आलोचना दोनों �ी एक सा उपस्थिस्थत �ै। बालकृष्ण भट्ट के थिलए भथि�काल की उपयोहिगता अनुपयोहिगता का प्रश्न �ुस्थिस्ल� चुनौती का सा�ना करने से सीधे सीधे जडु़ गया ा। इस दृमिQकोण के कारण भट्ट जी ने �ध्यकाल के भ� कहिवयों का काफी कठोरता से हिवरोध हिकया और उन्�ें हि�न्दुओं को क�जोर करने का जिजम्�ेदार भी ठ�राया। भ� कहिवयों की कहिवताओं के आधार पर उनके �ूल्यांकन के बजाय उनके राजनीहितक सन्दभ? के आधार पर �ूल्यांकन का तरीका अपनाया गया। भट्ट जी ने �ीराबाई व सूरदास जैसे ��ान कहिवयों पर हि�न्दू जाहित के पौरुष पराक्र� को क�जोर करने का आरोप �ढ़ दिदया। उनके �ुताहिबक स�ूचा भथि�काल �ुस्थिस्ल� चुनौती के स�2 हि�न्दुओं �ें  �ुल्की जोश’ जगाने �ें नाका� र�ा। भ� कहिवयों के गाये भजनों ने हि�न्दुओं के पौरुष और बल को खत्� कर दिदया। उन्�ोंने भ� कहिवयों की इसी क�जोरी और नाका�ी के हिवषय �ें थिलखा :  �ीराबाई, सूरदास, कुम्भनदास, सनातन गोस्वा�ी आदिद हिकतने ��ापुरुष जिजनके बनाये भजन और पदों का कैसा असर �ै जिजसे सुन कर थिचत्त आद्रB �ो जाता �ै। �ुल्की जोश की कोई बात तो इन लोगों �ें भी न ी उसकी जड़ तो न जाहिनये कब से हि�न्दू जाहित के बीच से उखड़ गयी।” भथि�काल सम्बन्धी अपने हिववेचन �ें बालकृष्ण भट्ट जी ने �ुस्थिस्ल� शासन के राजनीहितक सन्दभ? को आवश्यकता से अमिधक ��त्व दिदया और वल्लभाचायB व चैतन्य ��ाप्रभु के भथि� स्वरूप की व्याख्या करने के स्थान पर तत्कालीन परिरस्थिस्थहितयों पर अमिधक जोर देते हुए थिलखा : ये लोग ऐसे स�य �ें हुए जब देश का देश म्लेच्छाक्रान्त �ो र�ा ा और �ुसल�ानों के अत्याचारों से नाकों �ें प्राण आ लगे े। इससे आध्यात्मित्�कता पर इन्�ोंने हिबलकुल जोर न दिदया। भथि�कालीन सन्तों पर इल्जा� लगाना हिक उन्�ोंने आध्यात्मित्�कता पर जोर न�ीं दिदया , अजीबोगरीब बात ी। जाहि�र �ै हिक भट्ट जी के �स्तिस्तष्क �ें आध्यामि�कता ईश्वरीय भथि� व थिचन्तन के बजाय लौहिकक शथि� व

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सम्पन्नता का पयाBय बन चुकी ी। �ूल्यांकन की कसौदिkयां अगर काल्पहिनक धारणाओं से हिनर्मि�ंत की जाती �ैं तब वस्तुगत याB की व्याख्या भी वैज्ञाहिनक और वस्तुगत न�ीं र� पाती। इहित�ास के एक हिवथिशQ चरण के आधार पर इहित�ास की स�ूची प्रहिक्रया के हिवषय �ें हिनष्कषB हिनकाले जाते �ैं। भव्य और श्रेष्ठ की तुलना �ें पतन ता हिवकार से भरे ऐहित�ाथिसक युग, चरण ता घkनाओं का उल्लेख हिकया जाता �ै। बालकृष्ण भट्ट ने भी इहित�ास की व्याख्या ऐसे नजरिरये से की जो य� जानने और बताने के थिलए अमिधक उत्सुक ा हिक हि�न्दुओं की शथि� और आत्�गौरव �ें कब उन्नहित हुई और कब हिगरावk आयी। �ध्यकाल �ें उन्�ोंने भथि� भावना के हिवकास के सा �ी य� भी थिशकायत की हिक ��ारी आध्यात्मित्�क उन्नहित के सुधार पर हिकसी की दृमिQ न गयी। इसके अहितरिर� आध्यात्मित्�कता पर हिबल्कुल जोर न देने के कारण भ� कहिवयों व आचायo की हिनन्दा करते हुए थिलखा हिक ऋहिष प्रणीत प्रणाली को �ाल के इन आचाय? ने सब भांहित त�स न�स कर डाला। जाहि�र �ै हिक बालकृष्ण भट्ट ने भथि� और अध्यात्� के �ध्य अपनी �जg से एक हिवभाजन खड़ा कर दिदया ा। उनके अनुसार भथि� का सम्बन्ध रसीली और हृदयग्रहि�णी प्रवृक्षित्तयों , हिव�लथिचत्त अकुदिkल भाव और सेवक सेव्य भाव से �ै जबहिक अध्यात्� का सम्बन्ध ज्ञान, कुशाग्र बुजिद्ध और अन्ततः जातीयता ( नेशनैथिलkी) से �ोता �ै। इसी आधार पर उन्�ोंने हिनष्कषB हिनकाला हिक “भथि� ऐसी रसीली और हृदयग्रहि�णी हुई हिक इसका स�ारा पाय लोग रूखे ज्ञान को अवज्ञा और अनादर की दृमिQ से देखने लगे और सा �ी जातीयता नेशनैथिलkी को भी हिवदाई देने लगे जिजसके रफूचक्कर �ो जाने से भारतीय प्रजा �ें इतनी क�जोरी आ गयी हिक पक्षिश्च�ी देशों से यवन ता तुरुक और �ुसल�ानों के य�ां आने का सा�स हुआ।” भथि�काल की य� पूवBग्र�पूणB आलोचना आज शायद �ी हिकसी को स्वीकार �ो। लेहिकन क�ाल की बात �ै हिक रा�चन्द्र शुक्ल से लेकर �जारी प्रसाद दिदवेदी तक के भथि�काल सम्बन्धी �तों का बारीक हिववेचन करने वाली हि�न्दी आलोचना बालकृष्ण भट्ट की भथि�काल से जडु़ी धारणाओं पर ध्यान न�ीं दे सकी। �कीकत य� �ै हिक अध्यात्� और जातीयता का य� सम्बन्ध ध�B और राजनीहित के सम्बन्धों की वकालत करता ा। हि�न्दी का स�ूचा नवजागरणकालीन थिचन्तन कुरीहितयों और आडम्बरों को स�ाप्त करने की दृमिQ से हि�न्दू ध�B की आन्तरिरक संरचना �ें सुधार की बात तो क�ता ा , लेहिकन हि�न्दुओं की सांस्कृहितक धार्मि�ंक अस्तिस्�ता का उपयोग हिकये बगैर हि�न्दुओं के राजनीहितक पुनरुत्थान को असम्भव �ानता ा। भथि� आन्दोलन �ें चंूहिक राजनीहितक ढांचे को धार्मि�ंक संस्थाओं व हिवचारों से हिनयन्तिन्त्रत करने का स्पQ सरोकार न�ीं मि�लता, इसथिलए भट्ट जी जैसे लेखकों ने उसकी आलोचना की। य� आलोचना इस कल्पना से पे्ररिरत ी हिक प्राचीनकाल �ें ध�B और अध्यात्� राजनीहित से हिवलग न�ीं हुए े इसथिलए हि�न्दू जाहित के शौयB, �ानथिसक शथि� और वीयB जैसे गुण भी बने र�े और जातीयता का भावबोध भी। 

बालकृष्ण भट्ट

 

भक्ति�:उद‌्भ� ए�ं वि�कासPosted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 6, 2008

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गुजरात के स्वा�ी �ाधवाचायB (संवत् 1254-1333) ने दै्वतवादी वैष्णव सम्प्रदाय (ब्राह्म सम्प्रदाय) चलाया जिजसकी ओर भी लोगों का झुकाव हुआ। इसके सा �ी दै्वतादै्वतवाद (सनकादिद सम्प्रदाय) के संस्थापक हिनम्बाकाBचायB ने हिवष्णु के दूसरे अवतार कृष्ण की प्रहितष्ठा हिवष्णु के स्थान पर की ता लक्ष्�ी के स्थान पर राधा को रख कर देश के पूवB भाग �ें प्रचथिलत कृष्ण-राधा (जयदेव, हिवद्यापती) की पे्र� काओं को नवीन रूप एवं उत्सा� प्रदान हिकया। वल्लभाचायB जी ने भी कृष्ण भथि� के प्रसार का कायB हिकया। जगत् प्रथिसद्ध सूरदास भी इस सम्प्रदाय की प्रथिसजिद्ध के �ुख्य कारण क�े जा सकते �ैं। सूरदास ने वल्लभाचायB जी से दी2ा लेकर कृष्ण की पे्र�लीलाओं एवं बाल क्रीड़ाओं को भथि� के रंग �ें रंग कर प्रस्तुत हिकया। �ाधुयBभाव की इन लीलाओं ने जनता को बहुत रस�ग्न हिकया। इस तर� दो �ुख्य सम्प्रदाय सगुण भथि� के अन्तगBत अपने पूरे उत्कषB पर इस काल �ें हिवद्य�ान े - रा�भथि� शाखा; कृष्णभथि� शाखा। इसके अहितरिर� भी दो शाखाए ँप्रचथिलत हुईं - पे्र��ागB (सूफ़ी) ता हिनगुBण�ागB शाखा। सगुण धारा के इस हिवकास क्र� के स�ानांतर �ी बा�र से आए हुए �ुसल�ान सूफ़ी संत भी अपने हिवचारों को सा�ान्य जनता �ें फैला र�े े। �ुसल�ानों के इस लम्बे प्रवास के कारण भारतीय ता �ुस्थिस्ल� संस्कृहित का आदान-प्रदान �ोना स्वाभाहिवक ा। हिफर इन सूफ़ी संतों ने भी अपने हिवचारों को जनसाधारण �ें व्याप्त करने की, अपने �तों को भारतीय आख्यानों �ें, भारतीय परिरवेश �ें, य�ीं की भाषा-शैली लेकर प्रस्तुत करने का सफल प्रयास हिकया। इनके �तों �ें कट्टरता का क�ीं भी आभास न�ीं ा। इनका �ुख्य थिसद्धान्त पे्र� तत्त्व ा। यद्यहिप पे्र� के �ाध्य� से ईश्वर को पाने के थिलए हिकए जाने वाले प्रयास - (हिवमिध) �ें कुछ अन्तर अवश्य ा ताहिप इनके पे्र� तत्त्व के प्रहितपादन एवं प्रसार शैली ने लोगों को आकर्षिषंत हिकया। इन्�ोंने एकेश्वरवाद का प्रहितपादन भी हिकया जिजसे कुछ लोगों ने अदै्वतवाद �ी �ान थिलया, जो हिक उथिचत न�ीं �ै। �ज़रत हिनज़ा�ु�ीन थिचश्ती, सली� थिचश्ती आदिद अनेक संतों ने हि�न्दू-�ुसल�ान सबका आदर प्राप्त हिकया। इस सूफ़ी �त �ें भी चार धाराए ँ�ुख्यत: चलीं- 1. थिचश्ती सम्प्रदाय 2. कादरी सम्प्रदाय 3. सु�रावदÍ सम्प्रदाय 4. नक्शबंदिदया सम्प्रदाय। जायसी, कुतुबन, �ंझन आदिद प्रथिसद्ध (साहि�त्यकार) कहिवयों ने हि�न्दी साहि�त्य को अ�ूल्य साहि�त्य रत्न भेंk हिकए। हिनगुBणज्ञानाश्रयी शाखा पर भी इनका प्रभाव पड़ा ता हि�न्दू-�ुसल�ानों के भेद को मि�kाने की बातें क�ी जाने लगीं। आचायB शुक्ल ने भी इन्�ें ‘हि�न्दू और �ुसल�ान हृदय को आ�ने सा�ने करके अजनबीपन मि�kाने वाला क�ा। रा�ानन्द जी उत्तर भारत �ें रा�भथि� को लेकर आए े। उनके थिसद्धान्तों �ें इस भथि� का स्वरूप दो प्रकार का ा - रा� का हिनगुBण रूप; रा� का अवतारी रूप। ये दोनों �त एक सा �ी े। हिनगुBण रूप �ें रा� का ना� तो �ोता पर उसे ‘दशर-सुत’ की का से सम्बद्ध न�ीं हिकया जाता। रा�ानन्द ने देखा हिक भगवान की शरण �ें आने के उपरान्त छूआ-छूत, जाँत-पाँत आदिद का कोई बन्धन न�ीं र� जाता अत: संस्कृत के पस्थिण्डत और उच्च ब्राह्मण कुलोद ्भूत �ोने के पश्चात भी उन्�ोंने देश-भाषा �ें कहिवता थिलखी और सबको (ब्राह्मण से लेकर हिनम्नजाहित वालों तक को) रा�-ना� का उपदेश दिदया। कबीर इन्�ीं के थिशष्य े। कबीर, रैदास, धन्ना, सेना, पीपा आदिद इनके थिशष्यों ने इस �त को प्रथिसद्ध हिकया। रा�ना� के �ंत्र को लेकर चलने वाले अक्खड़-फक्कड़ संतों ने भेद-भाव भुला कर सबको पे्र�पूवBक गले लगाने की बात क�ी। वैदिदक क�Bकाण्ड के द्वारा फैले हुए आडंबरों एवं बाह्य हिवमिध-हिवधानों के त्याग पर बल देते हुए रा� ना� का पे्र�,

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श्रद्धा से स्�रण करने की सरल पद्धहित और स�ज स�ामिध का प्रसार हिकया। कबीर �ें तीन प्र�ुख धाराए ँस�ाहि�त दिदखाई देती �ैं - 1. उत्तरपूवB के ना-पं और स�जयान का मि�क्षिश्रत रूप 2. पक्षिश्च� का सूफ़ी �तवाद और 3. दक्षि2ण का वेदान्तभाहिवत वैष्णवध�B �ठयोग का कुछ प्रभाव इन पर अवश्य �ै परन्तु �ुख्यत: पे्र� तत्त्व पर �ी बल दिदया गया �ै। सा�ाजिजक सुधार के 2ेत्र �ें इन संतों का ��त्त्वपूणB योग र�ा �ै। इन संतों के साहि�त्य �ें ��ें तत्कालीन युग की सा�ाजिजक, धार्मि�ंक, राजनैहितक स�स्त स्थिस्थहितयों के दशBन �ो जाते �ैं। धार्मि�ंक दृमिQ से भी इनका योग बहुत �ै। स�ज पे्र� की भाषा पर बल देने के कारण लोगों का इन पर भी बहुत झुकाव र�ा। कबीर की�ृत्यु के कुछ स�य बाद इस�ें भी सम्प्रदाय की स्थापना �ो गई। अन्य शाखाओं के स�ान इसका ��त्व भी भथि�काल को पूणB बनाने �ें �ै। ये चारों शाखाए ँभथि�काल या �ध्यकाल के पूवB भाग �ें अपने उत्कषB �ें ीं। इन चारों �ी शाखाओं ने हि�न्दी साहि�त्य को बडे़-बडे़ व्यथि�त्व प्रदान हिकए जैसे - सूर, तुलसी, कबीर आदिद । अपने भथि�भाव की चर� उत्कृQता के थिलए भी ये जनता के �न-�ानस पर आमिधपत्य कर सके। आज भी ये श्रद्धा एवं आदर से देखे जाते �ैं। यद्यहिप कालान्तर �ें इन सम्प्रदायों �ें भी अनैहितकता के तत्त्वों के प्रवेश के कारण शुद्धता न�ीं र� गई ी ता इनका पतन भी धीरे-धीरे �ो गया ा ताहिप जो अद ्भुत �क्षिणयाँ इस काल �ें प्राप्त हुईं, वे हिकसी भी अन्य काल �ें प्राप्त न�ीं �ो सकीं, य� हिनस्संदे� क�ा जा सकता �ै। भथि�काल �ें �र प्रकार से कला स�ृजिद्ध हुई, नवीन वातावरण का जन्� हुआ, जन-जन �ें भथि�, पे्र� और श्रद्धा के स्रोत फूk पडे़, ऐसा काल वस्तुत: साहि�त्येहित�ास का “स्वणBकाल” क�लाने योग्य �ै। सम्प्रदायों से �ु� रूप �ें भी भथि� का प्रचार ा। �ीरा, रसखान, र�ी� का ना� उतनी �ी श्रद्धा से थिलया जाता �ै जिजतना हिक हिकसी सम्प्रदायबद्ध संत कहिव का। इस तर� क�ा जा सकता �ै हिक जनता �ें सम्प्रदाय से भी अमिधक शुद्ध भथि�-भाव की ��त्ता ी। ऐकान्तिन्तक भथि� ने स�मिQगत रूप धारण हिकया और जन-जन के हृदय को आप्लाहिवत कर दिदया। तुलसी की �ृत्य (1680 ई.) के कुछ स�य बाद �ी रीहितकाल के आग�न के थिचह्न दिदखाई देने लगे े। रा� के �याBदावादी रूप का सा�ान्यीकरण करके उस�ें भी लौहिकक लीलाओं का स�ावेश कर दिदया गया। कृष्ण की पे्र� भथि� (�ूलक) जागृत करने वाी लीलाओं �ें से कृष्ण की श्रृंगारिरक लीलाओं को ग्र�ण करके उसका अश्लील थिचत्रण �ोने लगा ा। य� स्थिस्थहित रीहितकाल �ें अपने घोरत� रूप �ें पहुँच गई ी। इसीथिलए क�ा गया ा “रामिधका कन्�ाई सु�रिरन को ब�ानो �ै।” रा�भथि� का जो रूप तुलसी ने अंहिकत हिकया ा, यद्यहिप व� धूमि�ल न�ीं हुआ ताहिप राजाओं के आश्रय �ें र�ने वाले कहिवयों ने श्रृंगारिरकता के वातावरण �ें उसे हिवस्�ृत कर दिदया ा। इस तर� धीरे-धीरे ई.1680-90 के आसपास भथि�काल स�ाप्त �ो गया। कालांतर �ें यद्यहिप जनता �ें भथि�भाव हिवद्य�ान र�े ताहिप न तो इस (तुलसी आदिद के स�ान) को ��ान हिवभूहित पैदा �ो सकी और न कोई बहुत अमिधक लोकहिप्रय गं्र �ी थिलखा जा सका। भथि� युग का य� आन्दोलन बहुत बड़ा आन्दोलन ा एवं ऐसा आन्दोलन भारत ने इससे प�ले कभी न�ीं देखा ा। इस साहि�त्य ने जनता के हृदय �ें श्रद्धा, भथि�, हिवश्वास, जिजजीहिवषा जागृत की, सा�स, उल्लास, पे्र� भाव प्रदान हिकया, अपनी �ातृभूमि�, इसकी संस्कृहित का हिवराk एवं उत्सा�वधBक थिचत्र प्रस्तुत हिकया,

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लोगों के हृदय �ें देशपे्र� भी प्रकारंतर से इसी कारण जागृत हुआ। भथि�युग �ें इस तर� �ुख्यत: भथि�परक साहि�त्य की रचना हुई परन्तु य� भी पूणBतया न�ीं क�ा जा सकता हिक हिकसी अन्य प्रकार का साहि�त्य उस काल �ें ा �ी न�ीं। य� अकबर का शासन काल ा ता उसके दरबार �ें अनेक कहिव े। अब्दुरB�ी� खानखाना आदिद की राजप्रसस्तिस्तपरक कुछ कहिवताए ँ मि�लती �ैं। अकबर ने साहि�त्य की पारम्परिरक धारा को भी प्रोत्सा�न दिदया ा अत: काव्य का व� रूप भी कृपारा� की “हि�ततरंहिगणी” बीरबल के फुkकर दो�ों आदिद �ें उपलब्ध �ोता �ै। इसके अहितरिर� नीहित परक दो�े आदिद थिलखे गये। एक और ��ान कहिव आचायB केशव को शुक्ल जी ने भथि�काल के फुkकर कहिवयों �ें रखा �ै। य� कायB उन्�ोंने केशव के रचनाकाल के आधार पर हिकया �ै। केशव की अलंकार, छंद, रस के ल2णों - उदा�रणों को प्रस्तुत करने वाली तीन ��त्त्वपूणB रचनाओं - कहिव हिप्रया, रथिसक हिप्रया ता रा�चजिन्द्रका को भथि� से क्षिभन्न �ान कर भी उन्�ें इस युग के फुkकर कहिवयों �ें शुक्ल जी ने रखा �ै परन्तु य� उथिचत न�ीं �ै। केशव का आचायBत्त्व पूरे रीहितकाल को गौरव प्रदान करता �ै। रीहित - ल2ण -उदा�रण के हिनधाBरण की परम्परा भी सवBप्र� उन्�ीं �ें दिदखाई देती �ै चा�ें रीहितकाल �ें इस हिनधाBरण के थिलए केशव को रीहितकाल से पृक करना अनुथिचत �ै अत: उन्�ें भथि�युग �ें रखना उथिचत न�ीं �ै। भथि�काल �ें लथिलत कलाओं का उत्कषB दिदखाई देता �ै। श्रीकृष्ण-राधा की हिवक्षिभन्न लीलाओं के थिचत्र इस काल �ें मि�लते �ैं, को�ल एवं सरस भावों को अक्षिभव्य� करने वाली अनेक �ूर्णित्तयंाँ इस काल �ें मि�लती �ै। �ूर्षितंकला का बहुत हिवकास इस युग �ें बहुत अमिधक हुआ ा। वास्तुकला, थिचत्रकला �ें �ुस्थिस्ल� (ईरानी) शैली का स�न्वय भारतीय शैली �ें हुआ फलत: �े�राबें, गुम्बद आदिद का प्रयोग अमिधक दिदखाई देने लगा। �ध्यकाल �ें राजस्थानी शैली अमिधक लोकहिप्रय ी। �ानवीय थिचत्रों के अहितरिर� प्राकृहितक दृश्यों का अंकन, दरबारी जीवन के हिवहिवध प्रसंग भी क्षिभक्षित्त थिचत्र इस युग �ें प्राप्त �ोते �ैं। ‘कुतुब�ीनार’, ‘अढ़ाई दिदन का झौंपड़ा’ आदिद ऐहित�ाथिसक वास्तुकला के अप्रहित� न�ूने �ैं। इस तर� साहि�त्य के सा लथिलत कलाओं का हिवकास भी बहुत अमिधक हुआ ा। संगीत के 2ेत्र �ें बहुत प्रगहित हुई। कृष्णलीलाओं का गायन, साखी, र�ैनी, पद को राग हिनबद्ध करने की जैसी योजना इस काल �ें �ै वैसी अन्यत्र प्राप्य न�ीं �ै। सूर और तुलसी साहि�त्य �ें अनेक राग-रागहिनयों का वणBन आता �ै। हिनष्कषBत: क� सकते �ैं हिक भथि� के उद ्भव एवं हिवकास के स�य जो कुछ भी भारतीय साहि�त्य, भारतीय संस्कृहित ता इहित�ास को प्राप्त हुआ, व� स्वयं �ें अद ्भुत, अनुप� एवं दुलBभ �ै। अंतत: �ज़ारी प्रसाद हिद्ववेदी जी के शब्दों �ें क� सकते �ै - “स�ूचे भारतीय इहित�ास �ें य� अपने ‘ग का अकेला साहि�त्य �ै। इसी का ना� भथि� साहि�त्य �ै। य� एक नई दुहिनया �ै। भथि� का य� नया इहित�ास �नुष्य जीवन के एक हिनक्षिश्चत लक्ष्य और आदशB को लेकर चला। य� लक्ष्य �ै भगवद ्भथि�, आदशB �ै शुद्ध सान्तित्वक जीवन और साधन �ै भगवान के हिन�Bल चरिरत्र और सरस लीलाओं का गान।”

�ल्लभाचाय�Posted by: संपादक- मि�थिलेश वा�नकर on: October 6, 2008

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भथि�कालीन सगुणधारा की कृष्णभथि� शाखा के आधारस्तंभ एवं पुमिQ�ागB के प्रणेता श्रीवल्लभाचायB जी का प्रादुभाBव संवत् 1535, वैशाख कृष्ण एकादशी को दक्षि2ण भारत के कांकरवाड ग्रा�वासी तैलंग ब्राह्मण श्रीलक्ष्�णभट्ट जी की पत्नी इलम्�ागारू के गभB से काशी के स�ीप हुआ। उन्�ें वैश्वानरावतार क�ा गया �ै। वे वेदशास्त्र �ें पारंगत े। श्रीरूद्र संप्रदाय के श्रीहिवल्व�ंगलाचायB जी द्वारा इन्�े अQादशा2र ‘गोपाल�न्त्र’ की दी2ा दी गई। हित्रदण्ड संन्यास की दी2ा स्वा�ी नारायणेन्द्र तीB से प्राप्त हुई। हिववा� पस्थिण्डत श्रीदेवभट्टजी की कन्या- ��ालक्ष्�ी से हुआ, और यास�य दो पुत्र हुए- श्री गोपीना व श्रीहिवट्ठलना। भगवत्पे्ररणावश व्रज �ें गोकुल पहुंचे, और तदनन्तर व्रज2ेत्र स्थिस्थत गोव द्धBन पवBत पर अपनी ग�ी स्थाहिपत कर थिशष्य पूरन�ल खत्री के स�योग से संवत् 1576 �ें श्रीना जी के भव्य �ंदिदर का हिन�ाBण कराया। व�ां हिवथिशQ सेवा-पद्धहित के सा लीला-गान के अंतगBत श्रीराधाकृष्ण की �धुराहित�धुर लीलाओं से संबंमिधत रस�य पदों की स्वर-ल�री का अवगा�न कर भ�जन हिन�ाल �ो जाते। श्रीवल्लभाचायBजी के �तानुसार तीन स्वीकायB त 8 व �ै-ब्रह्म, जगत् और जीव। ब्रह्म के तीन स्वरूप वर्णिणतं �ै-आमिधदैहिवक, आध्यात्मित्�क एवं अन्तयाB�ी रूप। अनन्त दिदव्य गुणों से यु� पुरुषोत्त� श्रीकृष्ण को �ी परब्रह्म स्वीकारते हुए उनके �धुर रूप एवं लीलाओं को �ी जीव �ें आनन्द के आहिवभाBव का स्त्रोत �ाना गया �ै। जगत् ब्रह्म की लीला का हिवलास �ै। संपूणB सृमिQ लीला के हिनमि�त्त ब्रह्म की आत्�कृहित �ै। जीवों के तीन प्रकार �ै- ‘पुमिQ जीव’ , ‘�याBदा जीव’ (जो वेदो� हिवमिधयों का अनुसरण करते हुए क्षिभन्न-क्षिभन्न लोक प्राप्त करते �ै) और ‘प्रवा� जीव’ (जो जगत्-प्रपंच �ें �ी हिन�ग्न र�ते हुए सांसारिरक सुखों की प्रान्तिप्त �ेतु सतत् चेQारत र�ते �ैं)। भगवान् श्रीकृष्ण भ�ों के हिनमि�त्त ‘व्यापी वैकुण्ठ’ �ें (जो हिवष्णु के वैकुण्ठ से ऊपर स्थिस्थत �ै) हिनत्य क्रीड़ाए ंकरते �ैं। इसी व्यापी वैकुण्ठ का एक खण्ड �ै- ‘गोलोक’, जिजस�ें य�ुना, वृन्दावन, हिनकंुज व गोहिपयां सभी हिनत्य हिवद्य�ान �ै। भगवदसे्वा के �ाध्य� से व�ां भगवान की हिनत्य लीला-सृमिQ �ें प्रवेश �ी जीव की सवoत्त� गहित �ै। पे्र�ल2णा भथि� उ� �नोर की पूर्षितं का �ागB �ै, जिजस ओर जीव की प्रवृक्षित्त �ात्र भगवदनु्ग्र� द्वारा �ी संभव �ै। श्री �न्��ाप्रभु वल्लभाचायB जी के ‘पुमिQ�ागB’ (अनुग्र� �ागB) का य�ी आधारभूत थिसद्धान्त �ै। पुमिQ-भथि� की तीन उत्तरोत्तर अवस्थाएं �ै-पे्र�,आसथि� और व्यसन। �याBदा-भथि� �ें भगवदप््रान्तिप्त श�द�ादिद साधनों से �ोती �ै, हिकन्तु पुमिQ-भथि� �ें भ� को हिकसी साधन की आवश्यकता न �ोकर �ात्र भगवदकृ्पा का आश्रय �ोता �ै। �याBदा-भथि� स्वीकायB करते हुए भी पुमिQ-भथि� �ी श्रेष्ठ �ानी गई �ै। पुमिQ�ागgय जीव की सृमिQ भगवत्सेवाB �ी �ै- ‘भगवद्रूपसेवाB तत्सृमिQनाBन्या भवेत्’। पे्र�पूवBक भगवत्सेवा भथि� का याB स्वरूप �ै-’भथि�श्च पे्र�पूर्षिवंका सेवा’। भागवतीय आधार (’कृष्णस्तु भगवान् स्वयं’) पर भगवान कृष्ण �ी सदा सवBदा सेव्य, स्�रणीय ता कीतBनीय �ै- ‘सवBदा सवBभावेन भजनीयो ब्रजामिधप:।’.. ‘तस्�ात्सवाBत्�ना हिनत्यं श्रीकृष्ण: शरणं ��’। ब्रह्म के सा जीव-जगत् का संबंध हिनरूपण करते हुए उनका �त ा हिक जीव ब्रह्म का सदंश(सद ्अंश) �ै, जगत् भी ब्रह्म का सदंश �ै। अंश एवं अंशी �ें भेद न �ोने के कारण जीव-जगत् और ब्रह्म �ें परस्पर अभेद �ै। अंतर �ात्र इतना �ै हिक जीव �ें ब्रह्म का आनन्दांश आवृत्त र�ता �ै, जबहिक जड़ जगत �ें इसके आनन्दांश व चैतन्यांश दोनों �ी आवृत्त र�ते �ै। श्रीशंकराचायB के अदै्वतवाद केवलादै्वत के हिवपरीत श्रीवल्लभाचायB के अदै्वतवाद �ें �ाया का संबन्ध अस्वीकार करते हुए ब्रह्म को कारण और जीव-जगत को उसके कायB रूप �ें वर्णिणतं कर तीनों शुद्ध तत्वों का ऐक्य प्रहितपादिदत हिकए जाने के कारण �ी उ� �त

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‘शुद्धादै्वतवाद’ क�लाया (जिजसके �ूल प्रवतBकाचायB श्री हिवष्णुस्वा�ीजी �ै)। वल्लभाचायB जी के चौरासी थिशष्यों �ें अQछाप कहिवगण- भ� सूरदास, कृष्णदास, कुम्भनदास व पर�ानन्द दास प्र�ुख े। श्री अवधूतदास ना�क पर��ंस थिशष्य भी े। सूरदासजी की सच्ची भथि� एवं पद-रचना की हिनपुणता देख अहित हिवनयी सूरदास जी को भागवत् का श्रवण कराकर भगवल्लीलागान की ओर उन्�ुख हिकया ता उन्�े श्रीनाजी के �जिन्दर की की त्तBन-सेवा सौंपी। तत्व ज्ञान एवं लीला भेद भी बतलाया- ‘श्रीवल्लभगुरू त 8 व सुनायो लीला-भेद बतायो’ (सूरसारावली)। सूर की गुरु के प्रहित हिनष्ठा दृQव्य �ै-’भरोसो दृढ़ इन चरनन केरो। श्रीवल्लभ-नख-चन्द-छkा हिबनु सब जग �ांझ अधेरो॥’ श्रीवल्लभ के प्रताप से प्र�त्त कुम्भनदास जी तो सम्राk अकबर तक का �ान-�दBन करने �ें न�ीं जिझझके-पर�ानन्ददासजी के भावपूणB पद का श्रवण कर ��ाप्रभु कई दिदनों तक बेसुध पडे़ र�े। �ान्यता �ै हिक उपास्य श्रीनाजी ने कथिल-�ल-ग्रथिसत जीवों का उद्धार �ेतु श्रीवल्लभाचायBजी को दुलBभ ‘आत्�-हिनवेदन -�न्त्र’ प्रदान हिकया और गोकुल के ठकुरानी घाk पर य�ुना ��ारानी ने दशBन देकर कृताB हिकया। उनका शुद्धादै्वत का प्रहितपादक प्रधान दाशBहिनक ग्रन्थ �ै-’अणुभाष्य’ (’ब्रह्मसूत्र भाष्य’ अवा उत्तर�ी�ांसा’)। अन्य प्र�ुख ग्रन्थ �ै- ‘पूवB�ी�ांसाभाष्य’, भागवत के दश� स्कन्ध पर ‘सुबोमिधनी’ kीका, ‘त 8 वदीप हिनबन्ध’ एवं ‘पुमिQ -प्रवा�-�याBदा’। संवत् 1587, आषाढ़ शुक्ल तृतीया को उन्�ोंने अलौहिकक रीहित से इ�लीला संवरण कर सदे� प्रयाण हिकया।


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